‘सन्ध्या सुन्दरी’ कविता में व्यक्त की निराला के भावों की विवेचना कीजिए। अथवा ‘सन्ध्या सुन्दरी’ कविता का भाव पल्लवन कीजिए।
‘सन्ध्या सुन्दरी’ कविता की विशेषता
‘सन्ध्या-सुन्दरी’ निराला की प्रमुख उल्लेखनीय कविता है जिसमें रीति कालीन परम्परा से हटकर उन्होंने नारी के सात्विक सौन्दर्य का चित्रण किया है, छन्द -विधान के क्षेत्र में एक नया क्रान्तिकारी कदम उठाया, मुक्त छन्द की स्थापना की तथा प्रकृति चित्रण के क्षेत्र में एक नया दृष्टिकोण उपस्थित किया प्रचलित रीति की छोड़कर नया आयाम प्रस्तुत किया। प्राचीन काल में प्रकृति कहीं तिरस्कृत रही, कहं उसका उपयोग आध्यात्मिक भावों की अभिव्यक्ति के लिए हुआ, कहीं उसकी आड़ में उपदेश दिये गये, कहीं उसे उद्दीपन के रूप में व्यवहार किया गया, कहीं उसका सहारा लेकर नारी का श्रृंगार भी किया गया, लेकिन यह सब होते हुए भी प्रकृति को उसका उचित स्थान नहीं मिला। सन्ध्या सुन्दरी कविता में प्रकृति को उसका वास्तविक महत्त्व प्रदान किया गया है। मनुष्य के समान ही प्रकृति को चेतन मानकर यहाँ उसकी स्वतन्त्र सत्ता का उद्घोष हुआ। प्रकृति में चेतना के आरोप के कारण यह रचना काव्य में छायावाद की प्रतिष्ठा करती है।
इस कविता की रचना सन् 1921 में हुई थी। इस मुक्तक छन्द में लिखी कविता में निराला ने प्रकृति का मानवीकरण करके सन्ध्या का वर्णन किया है और सन्ध्या की तुलना एक यौवन सम्पन्ना सुन्दर युवती से किया है। सन्ध्या के समय चारों ओर शान्त वातावरण होता है और पक्षियों का कलरव बन्द हो जाता है उसी प्रकार निराला की यह सुन्दरी मौन रहकर थके हुए जीवों को अपने अंक में विश्राम दे रही है। वर्णन उस समय का है जब आकाश में सूर्य के छिप जाने पर धीरे-धीरे अन्धकार अपना दामन फैलाता रहता है और सन्ध्या के समय चारों ओर का वातावरण स्तब्ध रूप हो जाता है। रूप वर्णन के अन्तर्गत कवि ने श्याम तन के उल्लेख के साथ उसके मधुर अधरों और घुंघराले काले बालों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। उसकी कमनीयता और आकर्षण शक्ति का वर्णन करते हुए वह उसे कली जैसा कोमल और परी जैसी सुन्दर बतलाता है। उसकी सजीवता के प्रकाश में में उसने उसे आकाश से उतरते, नीरवता के कन्धे पर हाथ रखकर चलते और सहसा अन्तर्धान होते दिखाया है। उसके स्वभाव की स्नेहशीलता का उल्लेख करते हुए कवि ने दिखलाया है कि वह श्रान्त जग को मादकता की मंदिरा पिलाने के लिए ही आती है। सन्ध्या के आकार, रूप और स्वभाव द्वारा यह चित्र बड़ा सजीव हो उठा है।
सन्ध्या-सुन्दरी मेघमय आसमान से परी के समान उतर रही है सन्ध्या का मानवीकृत रूप में चित्रण हुआ है। सन्ध्या सुन्दरी के उतरन में अलसता, मंथरता, गम्भीरता और नीरवता है पन्त जी ने “कौन रूपसि तुम-कौन?” में व्योम से उतर रही रूपसि सन्ध्या का चित्रण किया है किन्तु उनकी सन्ध्या परी न होकर रूपसि है अतः पन्त जी की दृष्टि उसके रूप सौन्दर्य पर ही केन्द्रित रही है। दिवस के अन्त के समय परी के समान अत्यन्त धीरे-धीरे सन्ध्या सुन्दरी आसमान से नीचे उतर रही है। अन्धकार रूपी अंचल में चंचलता बिल्कुल नहीं है। हवा निस्तब्ध है। ओठों में माधुर्य के साथ साम्भीर्य है। उसके घुंघराले काले बालों में गुंथा हुआ एक तारा मात्र हँसता है। नीरवता रूपी सखी के कन्धे पर वह कोमलता की कली बाँह डाल कर आकाश मार्ग से गुजर रही है। अब न वीणा बजती है, न प्रेमालाप होता है और न नूपुर ध्वनि करते हैं, केवल चुप-चुप का अव्यक्त शब्द सर्वत्र व्याप्त है। आकाश, पृथ्वी, शान्त सरोवर में, सुप्त निर्मल कमल में, सौन्दर्य-गर्विता-सरिता के वक्षस्थल पर, हिमगिरि, सागर, क्षितिज वायु, अग्नि, सर्वत्र चुप शब्द भरा है। मदिरा की नदी बहाकर वह मस्त जीवों को मदिरा पिलाकर अपने अंक में सुलाती है। कवि ने सन्ध्या काल के शान्त निस्तब्ध वातावरण का सुन्दर कोमल स्वप्निल रूपक बाँधा है। यहाँ सूक्ष्मता, गतिशीलता, भावात्मकता के साथ आत्म सौन्दर्य का सुन्दर चित्रण हुआ है। तकनीकी दृष्टि से इसमें मानवीकरण, मूत विधान और चित्रमयता विद्यमान है जो कि छायावादी काव्य कला की अपनी विशेषताएँ हैं।
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