महादेवी वर्मा को आधुनिक मीरा क्यों कहा जाता है? सविस्तार सोदाहरण उत्तर दीजिए।
महादेवी जी ने अपने काव्य से क्षणभंगुर तथा नाशवान मानव हृदय की अमर पीड़ा को वाणी देने का प्रयास किया है। यथार्थ के करुणा महादेवी जी की चिरसंगिनी है जो चहुँ ओर प्रत्येक क्षण महादेवी जी के आच्छादित किये रहती है। महादेवी जी के व्यक्तित्व के निर्माण का श्रेय करुणा की भावुकता तथा दार्शनिकता की आधारशिला पर हुआ है। इसके विषय में इनकी स्वयं की विचारधारा दृष्टव्य हैं “बचपन से ही भगवान बुद्ध के प्रति एक भक्ति का अनुराग होने के कारण उनकी संसार को दुःखात्मक समझने वाली फिलॉस्पी से मेरा असमय ही पपरिचय हो गया था।” यही बात है कि आपको अपने चहुँ ओर पीड़ा का साम्राज्य ही नजर आता है। आपका हृदय भी करुणा से उस भाँति आप्लावित है जिस प्रकार की स्वयं बुद्ध भगवन का था करुणा की धारा आपके चहुँ और प्रतिपल प्रवाहित होती रहती है करुणा को छोड़ना तो दूर की बात रही महादेवी जी प्रतिपल वह सोचती रहती है किस प्रकार विश्व की सम्पूर्ण उनके मानस में समाहित हो जाए निम्न उदाहरण से यह बात पूर्णतः खड़ी उतरती है-
“मेरे बिखरे प्राणों में सारी करुणा ढुलका दो,
मेरी छोटी सीमा में अपना अस्तित्व मिटा दो,
शेष नहीं होगी यह मेरे प्राणों को क्रीड़ा,
तुमको ढूँढ़ा पीड़ा में तुममें ढूँढूँगी पीड़ा।”
इसी बात के प्रभाव के कारण महादेवी जी के हृदय में वेदना बहुत ही गहरे रंग में अंकित हो गई। आपकी कविता की प्रत्येक पंक्ति में वेदना ही वेदना मुखरित हो रही है। आप सुर का प्रमुख आधार वेदना को ही ठहराती है।
हिन्दी साहित्य जगत में यदि किसी ने अपने काव्य में करुणा विरह एवं वेदना को चित्रित किया है तो उनमें केवल महादेवी जी का ही नाम सर्वोच्च है महादेवी जी के काव्य में पीड़ा, वेदना, कसम, टीस आदि की प्रधानता हैंआपने अपनी एक गीत रचना में जीवन को विरह का जलजात कहा है।
महादेवी जी विरह को अथाह समुद्र की भाँति ठहराती है जिसकी कोई थाह नहीं हो सकता। महादेवी जी का प्रियतम ससीम न होकर असीम है। आप प्रिय के विरह में हर समय दुःखी रहती हैं। प्रिय को प्राप्त करने की प्रेरणा आपको विरह वेदना से प्राप्त होती रहती है। आप वेदना को किसी भी कीमत पर छोड़ने के लिए उद्यत नहीं है। यदि उन्हें प्रिय की प्राप्ति हो भी जाय तो भी आप वेदना को निरन्तर खोजती रहेंगी। इस विषय में उनकी धारणा देखिए-
पर शेष नहीं होगी वह मेरे प्राणों की क्रीड़ा,
तुमको ढूँढ़ा पीड़ा में तुममें ढूंढेंगी पीड़ा॥”
आपकी करुणा की यही भावना आपके सम्पूर्ण साहित्य में मुखरित हो उठी है। प्रारम्भ में तो उनकी ये वेदना स्वयं के दायरे तक सीमित थी, परन्तु धीरे-धीरे अवसर पाकर उसका रूप व्यापक हो गया। वह अपने प्रियतम के मिलने के साथ-साथ संवेदना से निरन्तर गबन्धन बनाए रखना चाहती है। यदि प्रियतम में भी वेदना का कोई कण मिलेगा तो वह सहर्ष उसे अंगीकार करने में जहाँ भी विलम्ब नहीं लगायेंगी।
विरहिणी महादेवी जी की आत्मा अपने सारे प्रेम को अपने मन में समेटे हुए अपने अज्ञान प्रियतम से मिलने हेतु प्रत्येक समय व्यथित होती रहती है। जब विरहिणी आत्मा साधना के पथ पर चरण बढ़ाकर अपने अज्ञात प्रियतम से मिलने के लिए अग्रसर हो जाती हैं तो मार्ग के काँटे भी सुमनों में परिणत हो जाते हैं। जिस तरह से दीपक प्रतिपल जलकर के अपने प्रकाश से सम्पूर्ण अन्धकार को धो डालता है। उसी भाँति महादेवी जी भी दीपक की भाँति जलता रहना चाहती हैं प्रियतम सेव मिलने में यदि कहीं दुःख का अनुभव भी करना पड़े वह महादेवी जी को सुख के समान प्रिय लगता है।
महादेवी जी के प्रत्येक क्षण विश्व में करुण क्रन्दन सुनाई पड़ता हैं आप अपना महादेव रूप का निरीक्षण करती है तो साथ ही करुणा से पूरित मानव के जर्जरित जीवन पर परिस्थिति में कवयित्री को प्रकृति के रम्यरूप अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाते हैं तो उसके दुःख से द्रवीभूत होकर स्वयं से भी होने लगती हैं इन्हीं दोनों परिस्थितियों को देखती हैं आप उन्हें जिशासा प्रदर्शित करती हुई प्रश्न करती है। देखिए-
“तुमसे अम्लान हँसी है
इसमें अजस्र आँसू
तेरा वैभव देखूं या जीवन का क्रन्दन देखूं।”
विषाद एवं रहस्यात्मक भावना- विषाद एवं रहस्यात्मक भावना ने महादेवी जी के छायावादी रूप को और भी निखार प्रदान किया है-
“शून्य नभ में उमड़ जब दुःख भार सी”
नैन तन में सघन छठा जाती घटा,
बिखर जाती जुगनुओं की आर सी,
तब चकम लोचनों की जो पूँछता,
तड़ित की मुस्कान में वह कौन है ? “
अतीन्द्रिय प्रेम का चित्रण- महादेवी जी के छायावादी काव्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपने सन्देशों के द्वारा अपने प्रिय से मिलना चाहती है। काल्पनिक मिलने से ही प्रियतमा की प्रेमानुभूतियों का बोध हो जाता है, परन्तु संदेशों के द्वारा दोनों पक्षों का प्रबल प्रेम स्पष्ट हो जाता है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि महादेवी जी के काव्य में छायावाद की सभी विशेषताओं का समावेश हैं यद्यपि प्रसाद, पन्त तथा निराला तीनों ही छायावाद के प्रवर्तक हैं, किन्तु वे उतने श्रेष्ठ गीतकार नहीं जितनी महादेवी जी है। उन्होंने छायावादी काव्य के भावपक्ष एवं कलापक्ष को विकसित ही नहीं किया अपितु काव्य को छायावाद की सौन्दर्य चेतना सजाने का भरसक प्रयत्न किया।
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