“व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ज्ञान शिक्षक के लिए अनिवार्य है।” विवेचना कीजिए।
चूंकि शिक्षा के द्वारा ही बालक का सर्वांगीण विकास सम्पन्न होता है, अतः प्रत्येक बालक की शिक्षा की व्यवस्था भी अलग-अलग ढंग से होनी चाहिए। किन्तु प्रायः उन्हें एक जैसा ही समझकर शिक्षा दिया जाता है। जो अपने आप में ही एक बहुत बड़ी बिडम्बना है। इस समस्या से निपटने के लिए, यद्यपि शिक्षक अपने ज्ञान एवं विवेक के आधार पर, प्रयास करता है लेकिन वह अपनी सीमाओं के कारण प्रायः इसमें सफल नहीं हो पाता है। अतः शिक्षकों को व्यक्तिगत भेदों का ज्ञान होना तो आवश्यक है ही, साथ ही तदनुसार शिक्षा व्यवस्था एवं शिक्षण पद्धति में भी परिवर्तन आवश्यक होता है। इसलिए शैक्षिक दृष्टिकोण से व्यक्तिगत भिन्नता महत्त्वपूर्ण होती है। अतः इसे ध्यान रखते हुए, बालक के सर्वांगीण विकास हेतु शिक्षा व्यवस्था में निम्नलिखित परिवर्तन होने चाहिए-
1. कक्षा विभाजन की नवीन व्यवस्था- विद्यालयों में एक ही कक्षा में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों में आयु के अन्तर के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक एवं संवेगात्मक अन्तर भी होता है। अतः इनकी भिन्नताओं के अनुसार, समान समूहों में विभाजन किया जाना चाहिए। इनमें सबसे अधिक उपयुक्त होता है मानसिक स्तर के आधार पर विभाजन एक ही कक्षा के श्रेष्ठ, सामान्य, योग्यता वाले बालकों के अलग-अलग वर्ग बनाकर, उनके शिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए।
2. कक्षा का सीमित आकार- किसी भी कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या उतनी ही होनी चाहिए जिनसे शिक्षक सुविधाजनक ढंग से व्यक्तिगत सम्पर्क रख सके तथा उनकी व्यक्तिगत भिन्नताओं के आधार पर उनकी शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। परम्परागत ढंग की कक्षा में 40 से 60 तक विद्यार्थी होते हैं। अतः ऐसी कक्षा में शिक्षक raper भिन्नता को ध्यान में रखकर शिक्षण नहीं कर सकता है। इसके लिए कक्षा का आकार और छोटा होना चाहिए तथा एक कक्षा में 30 से अधिक विद्यार्थी नहीं होने चाहिए।
3. व्यक्तिगत शिक्षण की व्यवस्था – कक्षा शिक्षण सामान्य विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर ही किया जा सकता है तथा उन्हीं के लिए अधिक उपयोगी भी होता है। विशिष्ट प्रतिभा वाले तथा अत्यधिक पिछड़े हुए बालकों के लिए अलग से व्यक्तिगत शिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे उन्हें उनकी मानसिक योग्यता के अनुसार आगे बढ़ने का अवसर प्रदान किया जा सके।
4. लिंग भेद के अनुसार शिक्षा व्यवस्था – बालकों एवं बालिकाओं के विकास, उनकी रूचियों एवं क्षमताओं में अन्तर होता है। साथ ही उनके कार्यक्षेत्र में भी बहुत बड़ा अन्तर होता है। अतः उनके पाठ्यक्रमों में अन्तर होना चाहिए। लड़कियों की शिक्षा व्यवस्था एवं पाठ्यक्रम उनकी आवश्यकता की पूर्ति करने वाला होना चाहिए।
5. बालकों की विशिष्ट रूचियों का ध्यान – शिक्षा का स्वरूप एवं उसकी व्यवस्था इस प्रकार होनी चाहिए जिससे बालकों की रूचियों एवं अभिरूचियों के विकास को समुचित अवसर मिल सके। अतः व्यक्तिगत भिन्नता का ज्ञान होने पर शिक्षक इस प्रकार की व्यवस्था करने में सक्षम हो सकता है।
6. नवीन शिक्षण विधियों एवं तकनीकों का प्रयोग – परम्परागत कक्षा-शिक्षण में प्रायः सभी विद्यार्थियों को समान समझकर ही पढ़ाया जाता है तथा एक जैसी शिक्षण विधि का प्रयोग किया जाता है। चूंकि सभी विद्याथ एक ही शिक्षण विधि से समान रूप से लाभान्वित नहीं होते हैं। अतः नवीन शिक्षण विधियों एवं नवीन तकनीकी का प्रयोग करके सभी को ठीक ढंग से शिक्षित किया जा सकता है। प्रोजेक्ट विधि, डाल्टन योजना, अभिक्रमित अनुदेशन (चतवहतंउउमक प्देजतनबजपवद), दृश्य श्रव्य माध्यमों का प्रयोग करके शिक्षण को प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
7. विद्यार्थी के अनुसार गृह कार्य – व्यक्तित भिन्नताओं के कारण सभी विद्यार्थियों में उतनी ही समय में समान कार्य करने की क्षमता नहीं होती है। इसीलिए सभी बालकों को एक जैसा गृह कार्य दिया जाना उचित नहीं होता है। अतः गृहकार्य देते समय शिक्षकों को विद्यार्थियों की मानसिक एवं शारीरिक क्षमता तथा उनके सामाजिक परिवेश का भी ध्यान रखना चाहिए।
8. पाठ्यक्रम में लचीलापन एवं विभिन्नता – बालकों की रूचियों, अभिवृत्तियों, योग्यताओं तथा आकांक्षा स्तर में अन्तर होता है। कुछ बालक गणित एवं विज्ञान में अधिक रूचि रखते हैं तो कुछ कला, संगीत एवं साहित्य में। अतः सभी बालकों के लिए एक जैसा पाठ्यक्रम उपयुक्त नहीं होता है। इसलिए पाठ्यक्रम में लचीलापन तथा विभिन्नता होनी चाहिए।
9. शारीरिक दोषों के प्रति ध्यान – यद्यपि विकलांग बालकों की शिक्षा की अलग से व्यवस्था की जाती है। किन्तु साधारण दोषों वाले विद्यार्थियों के लिए वे उपयुक्त नहीं होते हैं। लूले, लंगड़ों, कम सुनने तथा देखने वाले विद्यार्थियों की शिक्षण व्यवस्था सामान्य विद्यालयों में ही की जाती । अतः शिक्षकों को ऐसे बालकों पर विशेष ध्यान रखना चाहिए। तथा उनके लिए उचित व्यवस्था करनी चाहिए।
10. आर्थिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय आवश्यकताओं का ध्यान — शिक्षा का स्वरूप राष्ट्रीय एवं सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार निर्धारित किया जाना चाहिए। साथ ही शिक्षा व्यवस्था व्यक्ति एवं राष्ट्र दोनों के लिए उपयुक्त होनी चाहिए। अतः बालकों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति के अनुसार उनकी शिक्षा व्यवस्था की जानी चाहिए।
11. निर्देशन एवं परामर्श- सभी स्तर के विद्यार्थियों को उचित निर्देशन परामर्श की आवश्यकता होती है। व्यक्तिगत भिन्नता का ज्ञान होने पर ही शिक्षक समुचित ढंग से निर्देशन एवं परामर्श दे सकता है। बालकों की रूचियों, क्षमताओं एवं मानसिक योग्यताओं के आधार पर उन्हें विभिन्न व्यवसायों के चुनने एवं विशिष्ट विषयों को पढ़ने के लिए सुझाव एवं निर्देश दिया जाना चाहिए। अतः व्यक्तिगत भिन्नता का ज्ञान इसमें बहुत सहायक होता है।
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