शिशुओं के मुख्य रोग, उनके कारण तथा उनके उपचार का वर्णन कीजिए। विषाक्त भोजन से क्या अभिप्राय है ?
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शिशुओं के मुख्य रोग
(1) जल तथा भोजन द्वारा फैलने वाले रोग – कुछ रोग जल के द्वारा भी फैलते हैं। जल द्वारा फैलने वाले रोगों में हैजा तथा पेचिस प्रमुख हैं। भोजन के द्वारा भी ऐसे रोग फैलते हैं। टाइफाइड या मोतीझरा भी जल द्वारा फैलने वाला रोग है।
(2) संसर्ग द्वारा फैलने वाले रोग – संसर्ग द्वारा फैलने वाले रोगों में टिटनेस, कोढ़, खुजली, आँख आना, एग्जीमा, कर्णफेर, दाद आदि आते हैं।
(3) वायु द्वारा फैलने वाले रोग- वायु द्वारा फैलने वाले रोगों में चेचक, खसरा, छोटी माता, जुकाम, डिप्थीरिया, इन्फ्लूएंजा तथा तपैदिक आदि हैं। वायु के द्वारा इन रोगों के जीवाणु व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर उसे रोगी बना देते हैं।
(4) कोट द्वारा फैलने वाले रोग-कीट द्वारा फैलने वाले रोगों में मलेरिया, प्लेग, फाइलेरिया तथा पीत ज्वर आते हैं।
1. छोटी माता
रोग के कारण यह रोग विषाणुओं से फैलता है। विषाणु वायु के द्वारा फैलकर रोग को फैलाते हैं। रोगी का मल, मूत्र, थूक, नाक आदि भी रोग फैलाने में मुख्य भूमिका निभाते हैं।
रोग के लक्षण-
छोटी माता के विषाणु शरीर में प्रवेश करके इन लक्षणों को प्रकट करते हैं-
- सिरदर्द, बेचैनी, आँखों का भारीपन बढ़ जाता है।
- एक या दो दिन के बाद शरीर में छोटे-छोटे दाने निकलने लगते हैं।
- ये दाने कम गहरे होते हैं, इसलिये त्वचा पर इनके निशान प्राय: नहीं रहते। (iv) रोगी को ज्वर होने लगता
- नाक से पानी निकलने लगता है।
- फिर ये दाने सूखकर गिरने लगते हैं।
रोगी का इलाज –
रोग के लक्षण जैसे ही दिखाई दें, रोगों की व्यवस्था अलग कमरे में करनी चाहिये। साथ ही निम्न व्यवस्थायें भी करनी चाहियें-
- रोगी के कमरे, कपड़े तथा बर्तनों की सफाई कीटाणुनाशक घोल के पानी से होनी चाहिये।
- रोगी को हल्के नमक वाला भोजन देना चाहिये अन्यथा रोगी को खुजली की अनुभूति होने लगेगी।
- रोगी के आराम की पूरी व्यवस्था होनी आवश्यक है।
- यदि खुजलाहट अनुभव हो तो रूई के फायें से हल्का-हल्का सहलाना चाहिये।
रोग से बचने के उपाय-
इस रोग से बचने के लिये निम्न उपायों को करना चाहिये-
- रोगी के वस्त्रों को कीटाणुनाशक घोल से साफ करना चाहिये।
- रोगी के मल-मूत्र को अलग गड्ढे में दबवा देना चाहिये।
- रोगी के शरीर के दानों की सूखी पपड़ी को इकट्ठा कर जला देना चाहिये।
- रोगी के सम्पर्क में अन्य व्यक्तियों को न आने देना चाहिये। केवल एक व्यक्ति ही उसकी परिचर्या में रहे।
- रोगी के बिस्तरे को उबलते पानी में धोना चाहिये।
- बच्चे को छोटी माता निकलने पर कम से कम एक सप्ताह तक विद्यालय नहीं भेजना चाहिये।
2. कुक्कुर खांसी या काली खांसी
कुक्कुर खांसी एक भयंकर रोग है जो बच्चों के फेफड़े तथा हृदय को प्रभावित करता है। बच्चों को इस कुक्कुर खांसी के विषाणु अधिक प्रभावित करते हैं। यह रोग 7 से 20 दिन तक परेशान करता है।
कारण- इस रोग के विषाणु रोगी के थूक तथा लार में होते हैं। ये विषाणु वस्त्रों और खिलौनों में भी लग जाते हैं। अन्य बच्चे जब इन्हें मुँह से लगाते हैं तो उन्हें भी कुक्कुर खांसी हो जाती है। इस रोग को काली खांसी भी कहते हैं।
- आरम्भ में रोगी बालक को रह-रहकर खांसी आती है और लगभग 5 मिनट तक बनी रहती है।
- रोगी बालक की नाक बहने लगती है और छींक आने लगती हैं तथा उसकी आँखें और मुख लाल हो जाता है।
- कुक्कुर खांसी के लक्षण कमजोर छाती वाले बालक शरीर में जीवाणुओं के प्रवेश पा जाने के 6 से 10 दिन के भीतर प्रकट हो जाते हैं।
- रोगी बालक खांसते-खांसते उल्टी कर देता है।
- प्रतिदिन रोगी बालक निर्बल और निस्तेज होता जाता है।
लक्षण- इस रोग के जीवाणु बालक के जोर से बोलने, खांसने तथा छींकने के साथ सांस में मिलकर स्वस्थ बालक के शरीर में प्रविष्ट होते हैं। इसके संक्रमित रोगी बालक का झूठा खाने तथा उसके गिलास में पानी पीने से भी यह रोग फैलता है। रोगी बालक का थूक, बलगम तथा नाक से बहने वाला तरल पदार्थ भी इस रोग को फैलाता है।
रोग का उपचार- रोगी बालक को स्वच्छ एवं हवादार कमरे में अलग सुलाना चाहिये। रोगी को अधिक से अधिक आराम देना चाहिये। रोगी को ताजा, सादा और हल्का आहार देना चाहिये। गर्म पेय थोड़ी मात्रा में 60-90 मिनट के अन्तर से उसकी शक्ति स्थिर रखने के लिये पिलाते रहना चाहिये। डॉक्टर के परामर्श से कुक्कुर खाँसी की औषधि का प्रयोग करना चाहिये। रोगी को खाँसी की तीव्रता के कारण कोई चीज नहीं पचती। उल्टी हो जाने के कारण रोगी के फेफड़ों के तन्तुओं की प्रतिरोध शक्ति क्षीण हो जाती है। उसको निमोनिया तथा क्षय रोग से प्रसित होने की सम्भावना अधिक हो जाती है। इसलिये रोगी बालक की ठण्ड व सीलन से रक्षा करनी चाहिये।
रोग से बचने के उपाय-
(i) स्वस्थ बालकों को काली खांसी का टीका लगवाना चाहिये।
(ii) स्वस्थ बालक का आहार हल्का तथा पौष्टिक होना चाहिये।
(iii) बालक के रोगमुक्त होने के बाद उसके वस्त्रों तथा अन्य वस्तुओं तथा आवास स्थान को निसंक्रमित करवा देना चाहिये ।
(iv) स्वस्थ बालकों से रोगी बालक को दूर रखना चाहिये। उसकी किसी भी वस्तु का प्रयोग नहीं करना चाहिये।
(v) डेढ़ वर्ष की आयु तक बालक को ट्रिपल वैक्सीन नामक इन्जेक्शन लगवा देना चाहिये, फिर यह रोग जीवन भर नहीं होता है। इस इन्जेक्शन से बालक में कृत्रिम रोग निरोधक शक्ति विकसित हो जाती है, वह बालक की रक्षा करती है।
(vi) ठण्ड एवं खांसी से स्वस्थ बालकों की विशेष रक्षा करनी चाहिये। खांसी की शिकायत होने पर उचित औषधियों द्वारा उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिये नहीं तो वह बढ़कर भयंकर रूप धारण कर सकती है।
3. क्षय रोग अथवा तपैदिक
यह रोग बहुत गम्भीर तथा संसर्गजन्य है। क्षय रोग के रोगाणु वायु द्वारा मनुष्य के शरीर में प्रवेश करते हैं। मनुष्य के शरीर में इस रोग के जीवाणु प्रवेश कर जाते हैं तथा फेफड़ों व अन्य कोमल जगहों पर अपना स्थान बना लेते हैं। रोगी का शरीर कमजोर होता जाता है। हमारे देश में प्रत्येक वर्ष 5 लाख से अधिक व्यक्ति तपैदिक रोग से मृत्यु के शिकार हो जाते हैं।
4. पेचिस
पेचिस जल से फैलने वाला एक साधारण रोग है। पेट में ऐंठन होकर बार-बार शौच जाना पड़ता है। मल साफ नहीं होता, चिपचिपा पदार्थ मल में होता है। इस चिपचिपे पदार्थ को आंव कहते हैं। शौच में कभी-कभी रक्त भी आने लगता है
कारण – पेचिस रोग जल में उपस्थित जीवाणुओं द्वारा होता है। यह रोग अमीबा हिस्टोलिटिका द्वारा फैलता है।
संक्रमण – यह रोग 1-2 दिन में होता है। रोगाणु शरीर में पहुँचते हैं तथा अपना प्रभाव दिखाना आरम्भ कर देते हैं।
पेचिस के रोगाणु मल में होते हैं। यह दूषित मल ही रोग का संक्रमण करता है। लक्षण-पेचिस के जीवाणु शरीर में पहुँच कर ऐंठन पैदा करते हैं। पेट में मरोड़ा उठता है, दस्त के साथ आंव भी आने लगती है।
उपचार- पेचिस के रोगी का कमरा शौचालय के निकट होना चाहिये। यदि रोगी की हालत गम्भीर है तो उसका शौच, मूत्र का बर्तन अलग होना चाहिये। अच्छी परिचर्या तथा जीवाणुनाशक औषधि ही इस रोग का उपचार है।
बचाव के उपाय-पेचिस के रोग से बचने के लिये निम्न उपाय अपनाये जाने चाहियें-
- रोगी को पृथक् से अकेले ही खाना खिलाना चाहिये।
- मक्खियों को नष्ट करना चाहिये।
- पेचिस के रोगी का मल से संक्रमण अलग होना चाहिये।
- सफाई का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए।
5. डिप्थीरिया
डिप्थीरिया एक तीव्र संक्रामक एवं फैलने वाला रोग है। यह रोग किलैब्स लियोफिलर (Klebs-Leofler) बैसीलस द्वारा होता है। इस जीवाणु को कॉरीनीबैक्ट्रियम डिप्थीरिया (Coryne-bactrium Diphtheria) भी कहते हैं। यह जीवाणु मुख्यतः गले, हलक तथा श्वसन नलिकाओं के ऊपरी अंगों में उत्पन्न होता है। यह गले, नाक तथा मुख के विसर्जनों में पाया जाता है।
लक्षण – इस रोग के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं-
- जबड़े तथा गर्दन के पास की लसिका मन्थियाँ सूज जाती हैं।
- थूक सटकने, पानी पीने अथवा साँस लेने में कठिनाई का अनुभव होना।
- प्रारम्भ में रोगी का गला खराब हो जाता है।
- टॉन्सिलों का बढ़ जाना। करता है।
- इस रोग के जीवाणु विष उत्पन्न करते हैं। यह विष रक्त में घुलकर रोगी के नाड़ीमण्डल तथा हृदय को प्रभावित करता है।
- गम्भीर रूप से कण्ठ, तालू तथा टॉन्सिलों की श्लैष्मिक झिल्ली पर सफेद चकत्ते पड़ जाना।
भौगोलिक वितरण—यह रोग मुख्यतः समशीतोष्ण क्षेत्र में अधिक फैलता है। यह रोग ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा नगरीय क्षेत्रों में अधिक फैलता है।
आयु- यद्यपि इस रोग से किसी भी आयु का व्यक्ति अछूता नहीं है। फिर भी यह रोग 3 से 5 वर्ष के बच्चों में अधिक प्रसारित होता है। यह रोग नव शिशुओं को प्रभावित नहीं करता है, क्योंकि वे अपनी माता से प्रतिकारिता प्राप्त करते हैं।
मृत्यु – 2 से 5 प्रतिशत तक इस रोग से मृत्यु हो जाती है।
मौसम-यह रोग सर्दी के मौसम के प्रारम्भ में शुरू होता है। परन्तु इसकी गम्भीरता नवम्बर तथा दिसम्बर में होती
उद्भवन-काल – सामान्यतः 2 से 5 दिन तक माना जाता है, परन्तु कभी-कभी यह काल लम्बा हो जाता है।
प्रसार- इस रोग को फैलाने में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं-
- बिन्दु संक्रमण (Croplet Infection) द्वारा रोगी के खाँसने, छींकने, थूकने या बोलने से जीवाणु बाहर आ जाते हैं। ये जीवाणु साँस द्वारा स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में प्रविष्ट कर जाते हैं।
- दूषित दूध तथा अन्य भोज्य पदार्थों के खाने-पीने से भी फैलता है।
- रोगवाहक-स्वस्थ तथा रोगी। इसमें नाक सम्बन्धी (Nasal) वाहक गले से सम्बन्धित वाहकों से अधिक खतरनाक होते हैं।
- यह संक्रमित वस्तुओं (रूमाल, खिलौने, स्लेट, पेन्सिल आदि) द्वारा भी प्रत्यक्ष रूप से फैलाया जाता है।
रोग के स्तर-यह रोग तीन स्तरों में होकर गुजरता है—
- टॉक्सीमिया स्तर (Stage of Toxemia),
- कॉरडियोवसकुलर की असफलता का स्तर (Stage of Cardiovascular Failure),
- लकवा का स्तर (Stage of Paralysis ) ।
उद्भवन काल-2 से 10 तक माना जाता है।
निवारण- इस रोग के निवारण के लिए निम्नलिखित उपायों को काम में लाया जा सकता है
1. पृथक्करण रोगी को पृथक् कर देना चाहिए। पृथक्करण के लिए रोगी को अस्पताल भेजा जा सकता है और घर में अलग रखा जा सकता । घर में उसे समुचित रूप से सम्बन्धित कमरे में रखा जाना चाहिए।
2. नियमित रूप से उन सभी व्यक्तियों को गरारे कराने चाहिए जो रोगी के सम्पर्क में आते हों। 3. अधिसूचना- इस रोग के फैलने पर सम्बन्धित अधिकारियों को सूचना दी जानी चाहिए।
4. निसंक्रमण-घर को फॉरमेलिन के 1 प्रतिशत के घोल से निसंक्रमित किया जाना चाहिये। बिस्तर तथा वस्त्रों को भाप से निसंक्रमित किया जाना चाहिए। स्लेट, पेन्सिल, खिलौनों आदि को आधे घण्टे तक उबाला जाना चाहिए। रोगी के गले तथा मुख के विसर्जनों को कपड़े के टुकड़े पर लेना चाहिए। उस कपड़े को तुरन्त ही जला देना चाहिए। नांक सम्बन्धी वाहकों को रोगाणुरोधक वस्तुएँ दी जानी चाहिए। सल्फापैरेडीन युक्त हों तो अच्छा है। मुख को रोगाणुरोधक घोल से धोना चाहिए।
5. रोग निरोधक प्रतिरक्षण (Prophylactic Immunisation)– डिप्थीरिया के परिणामों से जनता को अवगत कराया जाये। साथ ही उनको सक्रिय प्रतिरक्षण के लाभों की जानकारी करानी चाहिए। नवजात शिशु प्रायः आरक्षित नहीं होते हैं। इसलिए 1 वर्ष तक के बच्चों को सक्रिय प्रतिरक्षण प्रदान करना उपयुक्त नहीं है। 1 से 5 वर्ष तक के बच्चों को प्रतिरक्षण प्रदान करना अनिवार्य है, क्योंकि ये सबसे अधिक आरक्षित होते हैं। इस आयु वर्ग के बच्चों की सिक-परीक्षा (Sick-Test) द्वारा जाँच की जाये। इसके बाद उनको सक्रिय प्रतिरक्षण प्रदान किया जाये। इसके लिए निम्नलिखित रोग निरोधकों का प्रयोग लाभप्रद सिद्ध होगा-
(i) टी० ए० एफ० (Toxoid Anti-toxin Floccules) – इसके 2 से 3 सप्ताह के अवकाश पर 3 इंजेक्शन माँसपेशियों में दिये जाने चाहिए। हर बार यह दवा एक सी० सी० से कम नहीं होनी चाहिए। यह दवा प्रतिक्रिया करती है। इसलिए यह बच्चों को नहीं देनी चाहिये। यह वयस्कों के लिए उपयुक्त है।
(ii) ए० पी० टी० (Alum Precipitated Toxide) – चार सप्ताह के अवकाश पर इसके टीके दिए जाने चाहिए। प्रथम टीके में A.P.T. 0-2 और दूसरे टीके में 0.5 सी० सी० दी जानी चाहिए। यह इंजेक्शन माँसपेशियों में दिया जाना चाहिए।
(iii) पी० टी० ए० पी० (Purified Toxide Aluminium Phosphate Precipitated) – इसकी खोज हाल ही में की गई है। इसको चार सप्ताह के अन्तर पर दो-बार माँसपेशियों के माध्यम से दिया जाना चाहिए। इसकी मात्रा 0.5 सी० सी० होनी चाहिए। इस दवा को देने से पूर्व व्यक्ति की मेलोनी (Meloney) की परीक्षा द्वारा जाँच कर लेनी चाहिए।
6. एण्टी-डिप्थीरिया सीरम की एक से दो हजार इकाई द्वारा निष्क्रिय प्रतिरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।
7. जब डिप्थीरिया किसी समुदाय या संस्था में फैल जाये तब सम्पूर्ण समुदाय या संस्था के लोगों की शिक परीक्षा ली जाये। साथ ही गले के स्वानों (Swabs) की जाँच की जाये। इन दोनों परीक्षाओं के परिणामों के आधार पर व्यक्तियों को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है-
- शिक (+) तथा स्वाब (-) हो अहानिकारक अरक्षित (Harmless Suspectible अघाती जीवाणु)।
- शिक (+) तथा स्वाब (+) अघाती जीवाणु (अहानिकारक तथा अरक्षित)।
- शिक (+) तथा स्वाब (+) घातक जीवाणु (देखभाल तथा एण्टीट्रॉक्सिन से उपचार करो।)
- शिक (-) तथा स्वाब (-) (अहानिकारक तथा रोग-प्रभाव-मुक्त)।
- शिक (-) तथा स्वाब (+) अघाती जीवाणु (अहानिकारक, परन्तु अरक्षित)।
- शिक (-) तथा स्वाब (+) घातक जीवाणु (खतरनाक वाहक, प्रारम्भ से ही उसका पृथक्करण होना चाहिए)।
उदाहरण- इसके रोगी के उपचार के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए-
1. रोगी को आराम प्रदान किया जाना चाहिए। इसके लिए उसे बिस्तर पर रखा जाये।
2. सीरोथ्रेपी (Serotherapy) ने इस रोग से होने वाली मृत्यु दर को कम कर दिया है। अतः इसका प्रयोग करना चाहिए। सीरम की मात्रा इस प्रकार दी जा सकती है-
रोगी की आयु |
हल्का आक्रमण | साधारण आक्रमण | विषय आक्रमण | तीव्र आक्रमण |
5 वर्ष से कम आयु वाले बच्चों के लिए |
3 से 5 हजार इकाई | 5 से 10 हजार इकाई | 10-20 हजार इकाई | 15 से 30 हजार इकाई |
15 वर्ष से ऊपर तथा वयस्क |
5 से 10 हजार इकाई | 10 से 15 हजार इकाई | 20 से 40 हजार इकाई | 40 से 60 हजार इकाई |
सीरम की ये मात्राएँ माँसपेशियों के माध्यम से दी जानी चाहिए।
3. एक लाख यूनिट की पैनसिलीन का इंजेक्शन प्रति 3 घण्टे पर दो से तीन दिन तक देना चाहिए।
4. जब तक गला साफ न हो जाय तब तक पेय पदार्थ देने चाहिए।
5. नसों के माध्यम से ग्लूकोज दिया जाना चाहिए।
6. मोतीझरा या टाइफाइड (Typhoid)
मोतीझरा को टाइफाइड, मियादी बुखार आदि के नाम से भी जाना जाता है। यह रोग पूरे संसार में फैलता है। टाइफाइड के जीवाणु एक समय-सीमा तक रोगी को परेशान करते हैं। यदि टाइफाइड का बुखार समय-सीमा तक ठीक नहीं होता और अन्य कोई उलझन हो जाती है तो मृत्यु तक की सम्भावना हो जाती है।
रोग के कारण टाइफाइड वैसीलस टाइफोसिस अथवा साल्मोनेला टाइफी (Salamonella Typhi) नामक रोगाणु द्वारा फैलता है। इस रोग के. जीवाणु रोगी के मल-मूत्र आदि में होते हैं। यदि इनके निराकरण की उचित व्यवस्था तथा रोकथाम नहीं होती तो पानी, भोजन आदि के साथ ये रोगाणु स्वस्थ मनुष्य पर तेजी से आक्रमण करते हैं। टाइफाइड रोग का कार्यकाल 4 से 40 दिन तक का होता है। जब इस रोग के जीवाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं तो 7 से 21 दिन में बुखार के लक्षण प्रकट होने लगते हैं।
टाइफाइड रोग फैलने के दो कारण हैं-
प्रत्यक्ष- टाइफाइड के रोगी की देखभाल तथा परिचर्या करने वाला व्यक्ति कभी-कभी टाइफाइड के रोगाणुओं के सम्पर्क में आ जाता है। जब देखभाल करने वाला व्यक्ति रोगी के मल-मूत्र के बर्तनों को उठाता है, उसके सामान को छूता है, इससे ये जीवाणु उसके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।
अप्रत्यक्ष – टाइफाइड रोग को फैलाने दूषित जल, दूध तथा भोजन का बहुत योगदान होता है। जब टाइफाइड महामारी के रूप में फैलता है तो उसका यही कारण होता है। फलों, सब्जियों, बाजार के खुले पदार्थों तथा तरल पदार्थों के द्वारा यह रोग अधिक फैलता है।
रोग के लक्षण – टाइफाइड के रोगाणु आँतों पर आघात करते हैं। रोग के लक्षण निम्न प्रकार प्रकट होते हैं-
(i) बुखार आने लगता है। इसका तापक्रम 100°, 101° से लेकर 104° फारेनहाइट तक होता है।
(ii) बुखार धीरे-धीरे चढ़ता है। इसे सीढ़ी पर चढ़ने जैसी संज्ञा दी गई है। 100° से लेकर धीरे-धीरे 104°, 105 तक बुखार बढ़ जाता है।
(iii) ज्वर का प्रकोप प्रायः तीन सप्ताह तक रहता है। पहले एक सप्ताह में कम, दूसरे में ज्यादा, फिर तीसरे में और ज्यादा, फिर चौथे सप्ताह में ज्वर कम हो जाता है
(iv) दूसरे सप्ताह में सभी में कई असामान्यतायें आ जाती हैं, जैसे-पेशाब बन्द हो जाना, फूल जाना, रुधिर पेट स्त्राव हो जाता है। इस अवस्था में मृत्यु तक हो जाती है।
(v) जीभ बीच में सफेद तथा किनारों पर लाल हो जाती है।
(vi) दूसरे सप्ताह में गले तथा कमर में गुलाबी दाने हो जाते हैं।
(vii) नाक से खून निकलने लगता है।
(viii) तीसरे सप्ताह में ज्वर शांत होने लगता है और चौथे सप्ताह में ज्वर उतर जाता है पर दुर्बलता बनी रहती है।
(ix) बुखार का तापक्रम प्रातः, दोपहर तथा सायं को अलग-अलग रहता है।
परिचर्या- टायफाइड के रोगी का उपचार अत्यन्त सावधानीपूर्वक अपने को स्वस्थ रखते हुये करना पड़ता है। परिचारक को रोगी की परिचर्या करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिये-
- रोगाणुनाशक घोल से रोगी के मल, मूत्र व थूक आदि के जीवाणु नष्ट कर देने चाहियें।
- चिकित्सक की सलाह से रोगी को दूध, चाय, फलों के रस आदि देने चाहियें।
- टेरामाइसिन के इंजेक्शन भी डॉक्टर लगाते हैं।
- रोगी का कमरा अलग हो।
- रोगी को हिलने-डुलने नहीं देना चाहिये ।
- रोगी को पानी उबाल कर देना चाहिये।
बचने के उपाय- टाइफाइड एक भयंकर रोग है। रोगी की परिचर्या करने वाला तक रोग की चपेट में आ सकता है। अतः इस रोग से बचने के उपाय इस प्रकार हैं-
- रोगी के द्वारा बरते जाने वाले जल के, दूध के तथा अन्य पात्रों का प्रयोग नहीं करना चाहिये।
- रोगी के वस्त्रों को रोगाणुनाशक घोल में डालकर धोना चाहिये।
- जल को उबालकर पीना चाहिये।
- रोगी के मल, मूत्र, थूक आदि के पात्रों का प्रयोग नहीं करना चाहिये।
- सब्जियों तथा फलों का प्रयोग सदा धोकर करना चाहिये।
- खाने-पीने की वस्तुओं को सदा ढक कर रखें।
- रोग फैलने की सम्भावना देखते ही बचाव का टीका लगवाना चाहिये ।
7. खसरा (Measles)
खसरा वायु द्वारा प्रसारित एक भयंकर रोग है। भारत में खसरा से मरने वाले प्रत्येक दस बच्चों में से पाँच बच्चे पाँच वर्ष तक की आयु के होते हैं। यह रोग विषाणुओं द्वारा फैलता है। शिशुओं तथा बालकों पर इस रोग के विषाणु अधिक भयंकर आघात करते हैं।
रोग के कारण – खसरा अत्यन्त सूक्ष्म विषाणु के द्वारा फैलता है। यह विषाणु रोगी के गले, नाक तथा कान को प्रभावित करता है। दूसरों की छींक भी विषाणु को फैलाने में योग देती है। इस रोग के फैलने का सामान्य समय जनवरी से अप्रैल तक होता है।
रोग के लक्षण- इस रोग का प्रकोप जब होता है तो उस समय ये लक्षण प्रकट होते हैं
- रोगी को जाड़ा लगकर ज्वर आता है।
- आँखों से पानी निकलता है और वे लाल हो जाती हैं।
- इस बीच बच्चा खांसता रहता है और छींकता रहता है। उसकी खांसी तथा छींकें हवा में विषाणुओं को फैलाती हैं।
- खसरा के दाने 8-10 दिन में उतर जाते हैं।
- रोगी बेचैनी अनुभव करता है
- सूखी छींके लगातार आती रहती हैं। यह अवस्था दाने निकलने तक बनी रहती है।
- सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों को भी खसरा निकल सकती है।
रोग का उपचार- जिस रोगी को खसरा हो, उसे साफ कमरे में रखना आवश्यक है। रोगी को ठण्ड से बचाना आवश्यक है। कमरे में स्वच्छ वायु का प्रवाह बना रहना चाहिये। तेज रोशनी से भी रोगी को बचाना चाहिये। रोगी को गर्म पेय (दूध, चाय, कॉफी) देना चाहिये। यदि कुछ गम्भीर स्थिति दिखाई दे तो चिकित्सक को दिखाना चाहिये ।
प्रतिबन्धक उपाय-खसरा से बचने का सबसे सही उपाय प्रतिबन्धक उपायों का पालन करना चाहिये जहाँ खसरा हो उस स्थान से बचा जाये। इसलिये इन उपाय प्रतिबन्धक उपायों का पालन करना चाहिये-
- रोगी को पौष्टिक आहार देकर उसकी रोगी प्रतिरक्षण शक्ति को बढ़ाना चाहिये।
- वे सभी उपाय अपनाने चाहियें जो चेचक तथा छोटी माता के निकलने के समय बचाव के लिये इस्तेमाल किये जाते हैं।
- बच्चों को खसरा वाले बालक के सम्पर्क में आने से रोकना चाहिये।
- यदि बच्चा, रोगी के सम्पर्क में आया हो तो कम से कम 16 दिन तक उसकी देखभाल करनी चाहिये।
8. टिटनेस
कारण-टिटनेस के विषाणु धूल, गोबर, कीचड़, गोबर, घोड़े की लीद आदि में होते हैं। शरीर में जब कहीं घाव हो जाता है तो उस घाव के जरिये टिटनेस के जीवाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। नवजात शिशु की कटी हुई नाल के जरिये टिटनेस के जीवाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। छोटे बच्चों में यह बीमारी अधिक इसलिये फैलती है क्योंकि वे अपनी चोट के प्रति लापरवाह होते हैं।
रोग के लक्षण – टिटनेस का रोग हो जाने पर निम्न लक्षण प्रकट होते हैं—
- रोगी को दौरे पड़ने लगते हैं।
- रोगी को ज्वर भी होता है।
- मांसपेशियाँ तन जाती हैं और उनमें सख्तपन आ जाता है।
- जबाड़ा सख्त हो जाता है और वह इतना भिंच जाता है कि रोगी के मुँह में कुछ भी डालना कठिन हो जाता है।
उपचार – टिटनेस के रोगी को तुरन्त अस्पताल ले जाना चाहिये। जहाँ पर उसे तुरन्त टिटनेस का टीका लगवा देना जरूरी है। टिटनेस के टीके से रोगी के शरीर में फैले जीवाणु मरने लगते हैं। यदि इस कार्य में देर हो जाती है तो रोगी को बचाना कठिन हो जाता है। रोगी का कमरा शांत, एकान्त में होना चाहिये, वहाँ पर शोर बिल्कुल नहीं होना चाहिये।
प्रतिबन्धक उपाय – इस रोग की अधिक सम्भावना प्रसव के समय होती है। टिटनेस के प्रतिबन्धक उपाय इस प्रकार है-
- प्रसव के समय प्रयुक्त होने वाले औजार कीटाणु निसंक्रमित होने चाहियें।
- नाल काटने की कैंची अथवा चाकू को स्प्रिट आदि से निसंक्रमित किया जाना चाहिये ।
- प्रसव के समय प्रसूता को टिटनेस अवरोधी टीका लगवाना चाहिये ।
- बच्चों को ट्रिपल वेक्सीन (टिटनेस, कुक्कुर खांसी तथा डिप्थीरिया) का मिला-जुला टीका लगवाना चाहिये।
- नर्स, दाई तथा डॉक्टर आदि के हाथ साफ हों। उनके नाखून कटे हुये हों।
- बच्चों के चोट लगने की हालत में उनके घाव को टिंचर आयोडीन के घोल से साफ करना चाहिये।
9. अतिसार (Diarrhoea)
अतिसार का नाम प्रवाहिका अथवा दस्त भी है। गन्दे जल, फल तथा भोजन के द्वारा इस रोग के विषाणु व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करते हैं। भोजन के ठीक प्रकार से हजम न होने के कारण यह रोग अधिक होता है। बच्चों को यह रोग विशेष रूप से प्रभावित करता है।
कारण – अतिसार के रोगाणु जब शरीर में प्रविष्ट होते हैं तो फिर वे अधिक क्रियाशील हो जाते हैं। बरसात में यह रोग अधिक फैलता है। इस रोग के फैलने के कारण इस प्रकार हैं-
- अनुचित तथा अपौष्टिक भोजन भी इसका कारण होता है।
- गन्दे फलों से भी यह रोग फैलता है।
- समय-असमय भोजन करने से अतिसार हो जाता है।
- गन्दे वातावरण में इस रोग के जीवाणु पनपते हैं।
- गन्दा दूध, पाती भी इस रोग को फैलाता है।
लक्षण- अतिसार के रोगी को दस्त लगने आरम्भ होते हैं। दस्त का रंग हरा होता है। दस्तों की संख्या एक दिन में 25-30 तक हो जाती है। रोगी इन दस्तों के कारण बिल्कुल दुर्बल तथा शक्तिहीन हो जाता है। उपचार-अतिसार के रोगी को पूरा आराम मिलना चाहिये। उसे इधर-उधर बैठने, घूमने नहीं दे चाहिये। उसे निम्न पदार्थ पीने के लिये दिये जा सकते हैं-
- सोडावाटर
- शीघ्र पचने वाले हल्के खाद्य पदार्थ
- अरारोट का पानी
- मट्ठा।
प्रतिबन्धक उपाय-अतिसार रोग प्रायः उन बच्चों को होता है, जिन्हें उनकी मातायें अपना दूध नहीं पिलातीं, ऊपर का पिलाती हैं। इसलिये इस रोग के प्रतिबन्धक उपाय इस प्रकार हैं-
- सदैव स्वच्छ तथा स्वस्थ पशु का दूध बालकों को देना चाहिये।
- बच्चों की दूध की बोतल प्रतिदिन साफ करनी चाहिये ।
- खाद्य पदार्थों को ढक कर रखना चाहिये।
विषाक्त भोजन (Food Poisoning)
विषाक्त भोजन से अभिप्राय उस भोजन से है, जिसको खाने से व्यक्ति में अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
विषाक्त भोजन के कारण – जहाँ भोजन बनाया जा रहा है, वहाँ पर किसी कीड़े का भोजन में गिरना, किसी जहरीले पदार्थ का भोजन में मिलना, भोजन बनाने की प्रक्रिया में दोष होना, रखे हुए दूषित खाद्य पदार्थों को खाने से विषाक्त प्रभाव शरीर पर पड़ता है।
लक्षण – विषाक्त भोजन का आम प्रभाव उल्टी तथा दस्त होना है। इसके लक्षण हैजे वाले रोगी जैसे होते हैं। •
उपचार- विषाक्त भोजन के रोगी को तुरन्त अस्पताल में पहुँचाना चाहिये। रोगी के शरीर का विष निकलवाने के लिये उपयुक्त औषधि देनी चाहिये। इसके उपचार के लिए शरीर में पानी तथा अन्य तत्त्वों की कमी को शिराओं द्वारा ग्लूकोज चढ़ाकर पूरा किया जाता है। रोगी को ऐसे समय पूरा विश्राम देना चाहिये। हैजे के रोगी को दिए जाने वाले समस्त उपचार रोगी को दिये जाने चाहियें।
बचाव के उपाय – विषाक्त भोजन के प्रभाव से बचने के लिये ये उपाय अपनाने चाहियें
- बासी भोजन नहीं करना चाहिये ।
- ताजे तथा अच्छे फलों का सेवन करना चाहिये।
- सदा ताजा भोजन करना चाहिये।
- भोजन सफाई के साथ बना होना चाहिये।
- सड़ी-गली साग-सब्जियाँ नहीं खानी चाहियें।
- सामूहिक दावतों में आमतौर पर विषैले भोजन से बीमारी हो जाती है। इसलिये सामूहिक भोजों में यथासम्भव अच्छे पदार्थों का सेवन करना चाहिये।
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