बाल कल्याण एंव स्वास्थय / Child Care & Health

तपैदिक रोग के कारण, लक्षण तथा रोग से बचने के उपाय

तपैदिक रोग के कारण, लक्षण तथा रोग से बचने के उपाय
तपैदिक रोग के कारण, लक्षण तथा रोग से बचने के उपाय

तपैदिक रोग के कारण लक्षण तथा रोग से बचने के उपायों का वर्णन कीजिए।

तपैदिक एक दीर्घकालीन बैक्टीरियल बीमारी है। रॉबर्ट कोच ने सन् 1882 में यह खोज की कि तपैदिक रोग ट्यूबरकिल बैसीलस के कारण होता है। सामान्य प्रयोग में ‘ट्यूबरक्लोसिस’ शब्द के आने से पूर्व यह रोग थाइसिस (Phthisis) के नाम से जाना जाता था। यह जीनस माइकोबैक्टीरियम (Mycobacterium) से सम्बन्धित है। यह एक सूक्ष्मदर्शी जीवाणु है तथा छः महीने तक सूखे स्थान पर जीवित रह सकता है। जब प्रत्यक्ष रूप से सूर्य के प्रकाश में आ है जाता है, तब यह आठ घण्टे में समाप्त हो जाता है। इसको 10 मिनट के उबाल से भी समाप्त किया जा सकता है। गर्म रक्त वाले सभी जानवर इस रोग से सुरक्षित हैं। यह उष्णकटिबन्धीय तथा समशीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में प्रचलित है। यह बड़े भीड़-भाड़ वाले नगरों में अधिक प्रचलित हैं। भारत में गाय तथा भैंस इस रोग से ग्रसित नहीं होते हैं, क्योंकि ये जानवर खुली हवा तथा सूर्य के प्रकाश में अधिकांश समय व्यतीत करते हैं।

क्षय या राजयक्ष्मा शरीर के किसी भी अंग अथवा संस्थान में हो सकता है। इनमें फेफड़े का रोग प्रमुख है। हड्डी के क्षय को (Tuberculosis Osteomyelitis) कहते हैं। रीड़ के क्षय को ‘Carics’ मस्तिष्क की झिल्ली के क्षय को मैनिनजाइटिस (Meningitis) तथा चर्म के क्षय को (Lupus) कहते हैं। इससे आँत, आँख, कान, ग्लैण्ड आदि भी आक्रान्त हो जाते हैं।

प्रसार- ट्यूबरकिल बैसीलस रोगी के बलगम में पाये जाते हैं। खाँसने अथवा छींकने के समय थूक के छोटे-छोटे कण हवा में फैल जाते हैं। इनसे रोग फैलने में सहायता मिलती है। जानवरों से भी इस रोग का प्रसार होता है, जिसे पाशविक संक्रमण कहते हैं। इस रोग के जीवाणु साँस की नलिका के माध्यम से शरीर में प्रवेश करते हैं। बलगम के जीवाणु धूल में मिल जाते हैं और ये हवा में उड़ने पर साँस के माध्यम से शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं।

तपैदिक रोग के प्रकार

इस रोग के प्रमुख दो प्रकार हैं जिनका विवेचन नीचे दिया जा रहा है-

फुफ्फुसीय क्षय रोग (Pulmonary Tuberculosis) – फुफ्फुसीय क्षय रोग प्रौढ़ व्यक्तियों का रोग है। यह बालकों को बहुत कम होता है। इसे राजयक्ष्मा (Phthisis) भी कहते हैं।

कारण- इस रोग के कारणों को दो भागों में बाँटा जा सकता है

(1) निश्चयात्मक कारण इनके अन्तर्गत रोग के विशेष जीवाणु आते हैं।

(2) निर्धारित कारण-ये कारण वे हैं, जो इस रोग के जीवाणुओं के लिए शरीर में अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा करते हैं। इनमें से प्रमुख इस प्रकार है:-

  1. निमोनिया, इन्फ्लुऐंजा या खसरा आदि के कारण शारीरिक दुर्बलता।
  2. अपौष्टिक एवं अपर्याप्त भोजन ।
  3. क्षय पीड़ित पशुओं का दूध पीना।
  4. शारीरिक दुर्बलता ।
  5. पैतृकता ।
  6. धूलयुक्त वातावरण और निरन्तर अशुद्ध एवं गर्म वातावरण में साँस लेना।
  7. मद्य या शराब का सेवन ।
  8. मानसिक दुर्बलता एवं कष्ट ।

तपैदिक रोग के लक्षण 

फेफड़े तथा गम्भीरता के आधार पर इस रोग के तीन स्तर- सामान्य (Minimal); सामान्य रूप में उन्नत (Moderately Advanced) तथा अति उन्नत (Far Advanced) होते हैं।

इस रोग के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं-

  1. भार में कमी ।
  2. खाँसी तथा बलगम का आना। बलगम में कभी-कभी खून का आना।
  3. तेज नब्ज ।
  4. शरीर का माँस सूख जाने पर हड्डियाँ दिखाई पड़ने लगती हैं।
  5. अत्यधिक थकान। रोगी सामान्य रोग से भी अत्यधिक थकान का अनुभव करता है। उसको सामान्य निर्बलता कार्य के प्रति अरुचि की भावना का अनुभव होता है।
  6. भूख में कमी ।
  7. श्वास का जल्दी-जल्दी लेना। चलने-फिरने में साँस का फूल जाना।
  8. रात को पसीना आना।
  9. स्त्रियों में इस रोग के कारण माहवारी में खून का आना बन्द हो जाता है। इसमें कभी-कभी छिछड़े से आने लगते हैं।
  10. शाम के समय ज्वर होना।
  11. हल्की धड़कन ।
  12. सीने तथा गले में दर्द।

छूत के ढंग (Modes of Infection) – इस रोग की छूत बिन्दु-संक्रमण द्वारा फैलती है। खाँसने, छींकने, जम्हाई लेने तथा जोर से बोलने पर कण बाहर आकर हवा में फैल जाते हैं। हवा में फैले हुए कण अन्तःश्वसन द्वारा स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में प्रविष्ट कर जाते हैं। सूखे खँखार तथा संक्रमित वस्तुओं से भी इस रोग की छूत फैलती है। रोगी के बलगम अथवा अन्य विसर्जनों के व्यवहार से भी छूत लगती है। इस रोग की छूत प्रत्यक्ष सम्पर्क से भी फैलती है। मक्खियाँ भी इस रोग के संचरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।

रोग का निदान – रोगी के बलगम की जाँच करके इस रोग का निदान किया जाता है। यदि रोगी को प्रारम्भिक अवस्था में बलगम नहीं आ रहा है तो रंजन-रे के द्वारा उसका निदान किया जाता है। इसके अलावा लक्षणों के आधार पर रोग का संदेहात्मक निदान होता है। साथ ही वक्षस्थल की जाँच के आधार पर उसकी पुष्टि की जाती है।

उद्भवन काल – छूत लगने से यह 4 से 6 सप्ताह होता है। प्रारम्भिक छूत से इसके विकसित होने में कई वर्ष भी लग सकते हैं। निवारण- इस रोग की रोकथाम के लिए निम्नलिखित सामान्य उपायों को काम में लाया जा सकता है-

1. व्यक्ति को खुली हवा तथा प्रकाश में रहना चाहिये।

2. खाने तथा पीने की वस्तुओं की उचित देखभाल करनी चाहिए।

3. स्वस्थ जीवन के स्तर में सुधार लाया जाये।

4. सामान्य रूप से सफाई की व्यवस्था की जाये।

5. जनता को भाषणों, पैम्फलेटों, स्लाइड्स, फिल्म तथा फिल्म पट्टियों के प्रयोग से शिक्षित किया जाये।

6. भवनों तथा सड़कों का समुचित निर्माण। सड़के चौड़ी होनी चाहिएँ। मकानों के पीछे तथा उनके बीच में पर्याप्त खाली स्थान रखना चाहिए। क्षेत्र में पार्क, उद्यान तथा खाली स्थान रखने चाहिएँ। घनी बस्तियों को नष्ट-भ्रष्ट करके उन्नत योजनाओं के अनुसार निर्माण कार्य किया जाये।

7. अस्वस्थ व्यवसायों, कई कोयले की खानें, बीड़ी बनाने के कारखानों को नियमित किया जाना चाहिए और धूल के अन्तःश्वसन को रोकने के लिए उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।

इस रोग की रोकथाम के लिए निम्नलिखित विशेष उपायों को काम में लाया जा सकता है-

  1. क्षय रोग से ग्रसित माता-पिता से बच्चों को पृथक् कर देना चाहिए।
  2. सभी क्षय रोगियों को, जिनके बलगम आ रहा है, उस समय तक सेनीटोरियम में भेज दिया जाय, जब तक बलगम समाप्त न हो जाये।
  3. अनिवार्य अधिसूचना होनी चाहिए। डॉक्टरों द्वारा इस रोग के रोगियों को घोषित कर देना चाहिए। इस रोग को घर के लोगों से भी छिपा कर नहीं रखना चाहिए।
  4. पूर्ण क्षय-निरोधी संगठन की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसमें निम्नलिखित की व्यवस्था होनी चाहिए।

(I) क्लीनिक प्रणाली (Clinic System) – क्लीनिक पूर्णतः सुसज्जित होना चाहिए। इसके द्वारा निम्नलिखित बातों की पूर्ति की जानी चाहिए-

  1. रोगियों को उपचार के विषय में सलाह देना।
  2. क्षय रोग का निदान करना।
  3. इसे सूचना केन्द्र के रूप में कार्य करना चाहिए। साथ ही उसे प्रचार केन्द्र के रूप में भी कार्य करना चाहिए।
  4. रोगियों को बताया जाये कि वे अपना प्याला, चम्मच, ग्लास तथा अन्य वस्तुएँ पृथक् रखें।
  5. इसे उपचारात्मक (Curative) केन्द्र के रूप में भी कार्य करना चाहिए।

(II) अस्पताल तथा सेनीटोरियम (Hospital and Sanitorium) – अस्पताल गम्भीर रोगियों के लिए होते हैं और सेनीटोरियम प्राथमिक रोगियों के लिए होते हैं। इनमें उनको अपनी देखभाल करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। अस्पताल या सेनीटोरियम का उपचार घर के छूत के केन्द्र को दूर कर देता है।

(III) गृह-उपचार (Domiciliary Treatment)- समुदाय के सभी रोगियों को अस्पताल में भर्ती करना सम्भव नहीं हो पाता है, क्योंकि अस्पताल में सबके लिए बैड उपलब्ध नहीं हो सकते हैं। इसलिए गृह-उपचार की व्यवस्था करना अनिवार्य है। गृह-उपचार में रोगियों को देखने के लिए स्वास्थ्य निरीक्षकों की व्यवस्था होनी चाहिए। इनके लिए खुले हुए आवास की व्यवस्था हो, जिससे कि वे दिन के समय में प्रकाश तथा शुद्ध हवा का सेवन कर सकें।

(IV) क्षय रोगी बस्तियाँ (Tuberculosis Colonies) – सेनीटोरियम अथवा डिस्पेन्सरी या क्लीनिक के पास क्षय के रोगियों के लिए बस्तियों की व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे इनकी समुचित रूप से देखभाल की जा सके। इन बस्तियों में जिल्द बाँधने, बढ़ईगीरी, चित्रकला, चटाई तथा डलियाँ बनाने के कार्यों को संचालित किया जाना चाहिए। इन कार्यों को करने के लिए रोगी अपने अधिकांश समय का उपयोग कर सकेंगे। साथ ही उनको शुद्ध वायु तथा प्रकाश मिल सकेगा।

(V) केयर तथा आफ्टर केयर (Care and After Care) समितियों का निर्माण, सेनीटोरियम, क्लीनिक, अस्पताल तथा बस्तियों में कार्य करने के लिए किया जाना चाहिए।

(Vl) अस्पतालों के स्वास्थ्य अधिकारियों, प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टरों तथा क्षय-रोग की डिस्पेन्सरियों के बीच समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए।

(Vll) बो० सी० जी० (B. C. G.) का टीका लगवाया जाय। इससे व्यक्ति को आंशिक रूप से सुरक्षा प्रदान की जा सकती है।

उपचार- इस रोग के उपचार के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए

  1. रोगी को सन्तुलित तथा पौष्टिक आहार प्रदान किया जाना चाहिए। उसके भोजन में दूध, फल, अण्डे आदि पर्याप्त मात्रा में होने चाहिए।
  2. रोगी को पूर्ण विश्राम करना चाहिए।
  3. स्वस्थ जीवन व्यतीत करने की आदतों का निर्माण किया जाना चाहिए।
  4. रोगी को शुद्ध वायु एवं प्रकाश उपलब्ध कराना चाहिए ।

दवा सम्बन्धी उपचार

1. आई० ए० एच० (Isnicotine Acid Hydroxide ) – इस दवा को आइसोनाइजिड (Isoniazid) भी कहते हैं। इसको 100 मिलीग्राम की मात्रा में दिन में दो बार देना चाहिए। आजकल पी० ए० एस० तथा आई० ए० एच० को मिलाकर 18 महीने तक दिया जाता है। यह मिश्रण बड़ा प्रभावकारी सिद्ध हुआ है।

2. रोगी को 2 महीने तक माँसपेशियों के माध्यम से 1 ग्राम स्ट्रैप्टोमाइसीन (Streptomycin) 2 सी० सी० दोहरे आसवित (Distilled) जल में मिलाकर प्रतिदिन देना चाहिए।

3. कैल्सियम, विटामिन ए तथा डी मौखिक रूप से दिया जाना चाहिए।

4. पी० ए० एस० (Para-Amino-Salicylic Acid) की तीन-तीन टिकियाँ दिन में 6 बार दी जानी चाहिए। इन टिकियों का भार 5 ग्राम होना चाहिये। ३० दवा तीन महीने तक चलनी चाहिए। अतः स्ट्रैप्टोमाइसीन तथा पी० ए० एस० साथ-साथ चलेंगी।

IMPORTANT LINK

Disclaimer

Disclaimer: Target Notes does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: targetnotes1@gmail.com

About the author

Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

Leave a Comment