भारत जैसे प्रजातन्त्रीय देश में शिक्षा के क्या उद्देश्य होने चाहिएँ ? शिक्षा किस प्रकार इन उद्देश्यों को प्राप्त कर सकती है ?
भारत में शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण आदिकाल से देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार होता रहता है। – ए० एस० अल्तेकर के अनुसार, “सभी प्रकार की शिक्षा का प्रत्यक्ष उद्देश्य चाहे वह साहित्यिक हो अथवा व्यावसायिक, विद्यार्थी को समाज का एक पवित्र तथा लाभप्रद प्राणी बनाती है।”
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प्राचीन काल में शिक्षा के उद्देश्य
प्राचीन काल में शिक्षा के उद्देश्यों का आधार आदर्शवाद था। आध्यात्मिक क्रियायें तथा दार्शनिक चिन्तन के अनुसार इस प्रकार शिक्षा के उद्देश्य थे-
- पवित्रता तथा जीवन की उद्भावना,
- चरित्र निर्माण,
- व्यक्तित्व का विकास,
- नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्य का विकास,
- सामाजिक कुशलता, सुख साधना,
- संस्कृति का संरक्षण तथा हस्तान्तरण
मध्य युग में शिक्षा के उद्देश्य
मध्य युग में विदेशी आक्रान्ताओं ने शासक बनकर अपने धर्म तथा शासन व्यवस्था के अनुसार शिक्षा के ये उद्देश्य निर्धारित किये-
- इस्लाम का प्रसार,
- मुसलमानों में शिक्षा का विस्तार,
- इस्लामी राज्यों में वृद्धि करना,
- चरित्र निर्माण,
- नैतिकता का विकास,
- शरियत का प्रसार,
- भौतिक सुखों की प्राप्ति।
आधुनिक भारत में शिक्षा के उद्देश्य
कोठारी कमीशन ने कहा है भारत के भाग्य का निर्माण उसकी कक्षा में हो रहा है। हमारा विश्वास है कि कोई चमत्कारोक्ति नहीं है।” इसका अर्थ है कि भाग्य के निर्माण की कोई निर्धारित दिशा भी है। किसी देश की शिक्षा उसके भविष्य का आधार होती है। हमारे देश ने प्रजातान्त्रिक रूप का निर्माण किया और समाजवादी समाज की रचना के लिए कदम बढ़ाये। स्वयं को समर्पित संविधान से आत्मनियन्त्रण का संकल्प लिया।
देश की शिक्षा की पुनर्रचना का आधार उसकी समस्यायें होती हैं। समस्याओं को हल करने में ही शैक्षिक लक्ष्यों का निर्माण होता है।
भारत की कुछ समस्यायें प्रमुख रही हैं, वे इस प्रकार हैं-
1. खाद्यान् की समस्या- महात्मा गाँधी ने कहा था- “यदि परमात्मा को भारत में अवतरित होना पड़ा तो उसे रोटी के टुकड़े के रूप में अवतरित होना पड़ेगा।” अत: खाद्यान्न में आत्म-निर्भरता हमारा प्रमुख ध्येय है।
2. आर्थिक विकास और रोजगार की समस्या- भारत में जनसंख्या जिस तेजी से बढ़ रही है, उससे ऐसा लगता है कि आर्थिक विकास तथा रोजगार में अधिक सन्तुलन नहीं बना रह सकेगा। अतः शिक्षा का यह भी लक्ष्य हो जाता है कि इस दिशा में प्रयत्न किये जायें।
3. सामाजिक तथा राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या- इस समय देश में जाति, सम्प्रदाय, भाषा, प्रादेशिकता आदि के कारण राष्ट्रीय एकता को खतरा पैदा हो गया है। देश को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि इस दिशा में शैक्षिक प्रयत्न किये जायें।
4. राजनीतिक विकास की समस्या- हमारा लोकतन्त्र अब किशोरावस्था को समाप्त कर यौवनावस्था में आया है। लोकतन्त्र के स्थायित्व के लिए आत्मनियन्त्रण, सहनशीलता, पारस्परिक सद्भाव एवं आदर जैसे मूल्यों का विकास किया जाना आवश्यक है।
5. लोकतांत्रिक नागरिकता का विकास (Development of Democratic Citizenship) – भारत एक लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है। लोकतन्त्र की सफलता उच्च गुणों से अलंकृत नागरिकों पर अवलम्बित है। यदि नागरिक सुलझे हुए विचारों वाले होंगे तो न वे सरकार चुनने में कोई योगदान कर सकते हैं, न राज्य के विकास से सम्बन्धित नीतियों के विषयों में अपना कोई निर्णय ले सकते हैं। हार्न के शब्दों में, “नागरिकता राज्य में मनुष्य का स्थान है, क्योंकि राज्य समाज की एक स्थाई संस्था है और मनुष्य को अपने साथियों के साथ सुसंगठित सम्बन्धों के साथ रहना चाहिए, इसलिए नागरिकता को शिक्षा के आदर्श क्षेत्र से बाहर नहीं निकाला जा सकता।”
माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार, “लोकतन्त्र में नागरिकता एक चुनौतीपूर्ण दायित्व है, जिसके लिए प्रत्येक नागरिक को प्रशिक्षित किया जाता है। इसमें बहुत से बौद्धिक, सामाजिक तथा नैतिक गुण निहित हैं, जिनके अपने आप विकसित होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।” वस्तुत: इन को विकसित करने हेतु एक विशेष प्रकार का प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है और निश्चित रूप से शिक्षा के माध्यम से यह दायित्व पूरा किया जा सकता है।
6. सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना का समावेश (Inculcation of the spirit of Social Responsibility) – व्यक्ति की अनेक आवश्यकतायें होती हैं, वह अकेले ही सभी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। उसे इसके लिए समाज के अन्य व्यक्तियों की मदद लेनी पड़ती है। जिस प्रकार वह समाज के अन्य सदस्यों की मदद की अपेक्षा करता है, ठीक उसी प्रकार उसे भी सामाजिक संगठन को सुदृढ़ बनाने में मदद करनी चाहिए। शिक्षा का उद्देश्य है कि वह व्यक्ति में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना का समावेश करे।
7. मानसिक शक्तियों का विकास (Development of Mental Powers)- आधुनिक भारत में शिक्षा का एक अन्य उद्देश्य बालक की मानसिक शक्तियों का विकास करना है। ये मानसिक शक्तियाँ हैं- कल्पना, तर्क, आलोचना, स्मरण तथा निर्णय आदि शक्तियाँ इन मानसिक शक्तियों के विकास से ही व्यक्ति को सत्य-असत्य में, उचित-अनुचित में तथा अच्छे-बुरे के बीच भेद करना सिखाया जा सकता है। जो सत्य है, उचित है, अच्छा है, उसी को ग्रहण करने पर बल दिया जाता है।
8. नेतृत्व के गुणों का विकास (Development of the Qualities of Leadership) – लोकतन्त्र से आशय है-“सबसे बुद्धिमान निर्वाचित नागरिकों के नेतृत्व में सबकी प्रगति। अतः लोकतन्तत्रीय भारत में शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य व्यक्तियों में नेतृत्व के गुणों का विकास करना है। आज के भावी नागरिक ही क्योंकि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों का नेतृत्व सम्भालेंगे। इसलिए शिक्षा का यह दायित्व है कि वह उन्हें सामाजिक, आर्थिक सांस्कृतिक तथा राजनीतिक आदि क्षेत्रों में नेतृत्व के लिए प्रशिक्षित करे।” माध्यमिक शिक्षा आयोग के शब्दों में भी जनतन्त्रीय भारत में शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य-व्यक्तियों में नेतृत्व के गुणों का विकास करना है।
9. निस्वार्थ कार्य की भावना का समावेश (Inculcation of the spirit of selfless Work)- आज के भौतिकवादी युग में व्यक्ति में स्वार्थ की भावना बहुत प्रबल हो गई है। एक प्रकार से स्वार्थ में वह अन्धा हो गया है। सेवा, परोपकार, त्याग, बलिदान के आदर्श जैसे धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं। यदि किसी व्यक्ति से हमारा कोई काम नहीं निकलता तो हम उसे पहचानना ही बन्द कर देते हैं। यह मनोवृत्ति निश्चित रूप से हमारे राष्ट्र, हमारे समाज और हमारे देश के लिए। घातक है। शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य व्यक्तियों में इस मनोवृत्ति को बदलना होना चाहिए।
10. वैज्ञानिक दृष्टि का विकास (Development of Scientific Outlook) – वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तात्पर्य है। कि व्यक्ति अन्धविश्वासी न बने, वह अवैज्ञानिक वस्तुओं, विचारों, धारणाओं का त्याग करने में समर्थ हो सके। वह जीवन में सर्वदा सही बात का समर्थन करे। यह तभी किया जा सकता है, जब उसकी तर्क एवं निर्णय की शक्तियाँ विकसित हों। शिक्षा इस उत्तरदायित्व को पूर्ण करने में पूरी तरह सक्षम है।
11. व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality)- लोकतन्त्रीय भारत में शिक्षा का एक प्रमुख कार्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है। इस दृष्टि से यह आवश्यक है कि शिक्षा व्यक्ति की सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, भावात्मक एवं व्यावहारिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने पर ध्यान दे। शिक्षा व्यक्ति की रचनात्मक शक्तियों का विकास करे, जिससे वह सांस्कृतिक विरासत के महत्व को समझे और श्रेष्ठ रुचियों का निर्माण कर सके।
12. उत्पादकता में वृद्धि करना (To Increase the Productivity)- देश को आत्मनिर्भर बनाने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि देश सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर हो, विशेष रूप से खाद्यान्नों की देश में कोई कमी न हो। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा को उत्पादकता से जोड़ा जाये। शिक्षा छात्रों में अपने भावी जीवन में देश में खाद्यान्नों तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं की वृद्धि करने हेतु प्रेरणा जाग्रत करे। यदि माध्यमिक शिक्षा का व्यावसायीकरण कर दिया जाये तथा विश्वविद्यालय स्तर पर कृषि एवं सम्बद्ध विज्ञानों पर विशेष बल दिया जाये तो इस दिशा में विशेष प्रगति सम्भव हो सकेगी।
13. सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करना (To Cultivate Social, Moral and Spiritual Values) – लोकतन्त्रीय भारत में शिक्षा का एक अत्यन्त प्रमुख उद्देश्य छात्रों में सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करना है, जिससे भौतिक विकास के साथ-साथ उनका आध्यात्मिक विकास भी हो सके। शिक्षा आयोग के अनुसार, “भारत में विज्ञान तथा आत्मा सम्बन्धी मूल्यों को निकट एवं संगति में लाने का प्रयास करना चाहिए तथा अन्त में जाकर एक ऐसे समाज के उदय के लिए मार्ग तैयार करना चाहिए, जो सम्पूर्ण मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा, न कि उसके व्यक्तित्व के किसी विशेष खण्ड को।”
14. राष्ट्रीय चरित्र का विकास (Development of National Character)- लोकतन्त्रीय भारत में शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जिससे छात्रों में राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास हो सके अर्थात् उनके राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण हो सके। वे अपने जीवन में कोई ऐसा कार्य न करें, जिससे राष्ट्र का सिर शर्म से झुक जाये। सामाजिक मूल्यों का जिससे पतन हो, समाज का विघटन हो अथवा उसके कार्यों से राष्ट्रीय सुरक्षा को कोई खतरा पैदा हो।
15. आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को तीव्र करना (To Accelerate the Process of Modernization) – आजकल समाज में प्रत्येक क्षेत्र में वैज्ञानिक तकनीकी का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। इस प्रयोग का प्रभाव केवल उत्पादन पर ही नहीं। पड़ा वरन् इसने मनुष्य के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन को भी प्रभावित किया है। इसके परिणामस्वरूप जो मूलभूत सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तन हुए हैं, उन्हें सामान्य रूप से ‘आधुनिकीकरण’ कहा जाता है। शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य आधुनिकीकरण की इस प्रक्रिया को तीव्र बनाने में योगदान देना होना चाहिए।
इन समस्याओं को दृष्टिगत रखते हुए स्वतन्त्र भारत में शैक्षिक उद्देश्यों पर विभिन्न शिक्षा आयोग ने अलग-अलग रूप से विचार किया है।
1. राधाकृष्णन कमीशन द्वारा प्रस्तावित उद्देश्य (Aims of Education by Radhakrishnan Commission)
राधाकृष्णन कमीशन ने शिक्षा के उद्देश्यों को 1948 में इस प्रकार प्रस्तावित किया था—
- राजनीति, प्रशासन, व्यवसाय, उद्योग तथा वाणिज्य के क्षेत्र में नेतृत्व
- ज्ञान तथा पदार्थ के विषय में बौद्धिक दृष्टिकोण का विकास।
- साहसी तथा बुद्धिमान व्यक्तित्व का निर्माण।
- जीवन तथा ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में समन्वय करना।
- आध्यात्मिक विकास करना।
- व्यक्ति के जन्मजात गुणों की खोज करना ।
- स्वास्थ्य निर्माण।
- सामाजिक, व्यक्तिगत तथा मानवीय मूल्यों का विकास करना
2. मुदालियर कमीशन द्वारा प्रस्तावित शैक्षिक उद्देश्य (Aims of Education by Mudaliar Commission)
मुदालियर कमीशन ने कहा है- “राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ बदल गई हैं एवं नवीन समस्याओं का अभ्युदय हुआ है। यह आवश्यक हो गया है कि सावधानीपूर्वक परीक्षण करके प्रत्येक निश्चित स्तर पर शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण हो।” इसलिए शिक्षा के उद्देश्य इस प्रकार होने चाहिएँ-
- प्रजातान्त्रिक नागरिकता का विकास।
- व्यावसायिक कुशलता का विकास।
- व्यक्तित्व का विकास।
- नेतृत्व के लिए शिक्षा
इन उद्देश्यों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए आयोग ने कहा है- “हमें है कि यदि शिक्षा का संगठन स्वतन्त्रता पर आधारित हो एवं अनेक विषयों का समावेश कर क्षेत्र को विस्तृत किया जाए एवं छात्र संवेदनशील तथा प्रखर बुद्धि वाले हों तो उन्हें कला एवं प्रकृति की दुनिया में रखकर सांस्कृतिक वंशक्रम को सम्पन्न किया जा सकता है। “
3. कोठारी कमीशन एवं शिक्षा के उद्देश्य (Kothari Commission and Aims of Education)
कोठारी कमीशन ने पिछले आयोगों के सन्दर्भ में शैक्षिक उद्देश्यों पर विचार किया है। कोठारी कमीशन ने इस प्रकार शिक्षा के लक्ष्य निर्धारित किए हैं-
- शिक्षा को उत्पादन के साथ जोड़ना।
- शैक्षणिक कार्यक्रमों के द्वारा सामाजिक तथा राष्ट्रीय एकता को बल देना।
- शिक्षा के द्वारा प्रजातन्त्र को संगठित करना ।
- सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का विकास।
- जिज्ञासा, मनोवृत्ति और मूल्यों के द्वारा कौशल का विकास करते हुए समाज का आधुनिकीकरण करना।
भारतीय लोकतन्त्र और शिक्षा (Democracy and Education)
भारत में लोकतन्त्र, जीवन शैली के रूप में विकसित हुआ है। स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृत्व और के सिद्धान्तों न्याय का परिपालन करते हुए समग्र सामाजिक जीवन का समन्वित विकास करना लोकतन्त्र का धर्म है। इसलिए लोकतन्त्र की • सफलता के लिए शिक्षा की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। लोकतन्त्र में व्यक्ति के विकास, सामाजिक विकास तथा नेतृत्व, व्यावसायिक कुशलता, सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण तथा हस्तान्तरण, भावात्मक एकता, राष्ट्र विकास तथा विश्ववन्धुत्व के गुणों को विकसित किया जाना आवश्यक है। शिक्षा के उद्देश्य इस प्रकार निर्धारित किए जाने चाहिएं, जिनसे इन सभी गुणों का विकास हो सके।
शिक्षा परिवर्तन का महत्वपूर्ण साधन है। कोठारी कमीशन ने स्पष्ट ही यह बात कही है कि, “देश की आकांक्षाओं की प्राप्ति में उसके समस्त जनों के ज्ञान, कौशल, हितों और मूल्यों में परिवर्तन निहित है। “
वास्तविकता यह है कि भारत में प्रजातन्त्र की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक विकास के मूल्य में शिक्षा की नवीनीकरण की व्यवस्था का होना आवश्यक है। हमें अपने शैक्षिक लक्ष्यों में स्पष्ट रहना है। अध्यात्म की आवाज आत्मशक्ति के लिए आवश्यक है। केन उपनिषद में कहा गया है-“किससे प्रेरित होकर यह मन अपने विषय की ओर जाता है ? किससे प्रयुक्त होकर प्रथम प्राण आगे बढ़ता है ? किससे प्रेरित होकर मनुष्य वाणी बोलते हैं ? तथा वह कौन-सा देवता है, जो आँख और कान को अपने काम में लगाता है ?”
शैक्षिक लक्ष्यों का निर्धारण जितना महत्वपूर्ण है, उतनी ही महत्वपूर्ण उनकी उपलब्धि भी है। इसके लिए प्रयत्न आवश्यक है। जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में- “क्या हम विज्ञान और शिक्षा विज्ञान की इस तरक्की का मेल मन और आत्मा की तरक्की से भी नहीं बैठा सकते ? क्या हम विज्ञान को भी नहीं झुठला सकते, क्योंकि आज तो वह जिन्दगी की बुनियादी चीज है और पिछले जमाने से भारत जिन जरूरी सिद्धान्तों पर अमल करता आ रहा है, उसको भी झुठला सकते हैं। इसलिए हम पूरी ताकत और मशक्कत के साथ उद्योग-धन्धों से अपने रास्ते पर चलते रहें, मगर उसके साथ यह भी याद रखें कि सहनशीलता, दया और बुद्धिमानी के बिना भौतिक दौलत धूल और राख भी हो सकती है।”
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