कबीर दास का रहस्यवाद ( कवि के रूप में )
रहस्यवाद की दुनिया में कबीरदास का स्थान सर्वोपरि है। उनके रहस्यवाद में हमें रहस्यवादी अनुभूति की तीनों दशाएँ अपनी पूर्णावस्था में प्राप्त होती हैं, अन्य रहस्यवादी कवियों में यह विशेषता दुर्लभ है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है-
“चिन्तन के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है।
भावना के क्षेत्र में वह रहस्यवाद’ है ।।”
डॉ० रामकुमार वर्मा के अनुसार – “रहस्यवाद जीवात्मा की उस अन्तर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह है और आलौकिक शक्ति से अपना शान्त और निश्छल सम्बन्ध जोड़ना चाहती है और वह सम्बन्ध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता है। “
हिन्दी साहित्य के सर्वप्रथम रहस्यवादी कवि कबीरदास ही हैं। इनसे पूर्व हिन्दी साहित्य में नाथ पंथियों, हठवादियों, सूफियों आदि का प्रभाव था। कबीर के काव्य में इन प्रभावों को समन्वित कर रहस्य भावना का रूप निर्मित हुआ। कबीर का काव्य साधनात्मक रहस्यवाद है। इसके अन्तर्गत आत्मा का परमात्मा से जो चिर सम्बन्ध है उसकी व्याख्या की जाती है। वास्तव में रहस्यवाद के मूल में अज्ञात सत्ता के प्रति जिज्ञासा का भाव रहता है, कबीर भी अव्यक्त सत्ता से प्रभावित हैं। उसका वर्णन करते समय उनकी वाणी अवरुद्ध हो जाती है।
“कहत कबीर यह अकथ कथा है।
कहता कही न जाई ॥”
गूंगे के कबीर का कथन है कि परमसत्ता तो संसार के कण-कण में व्याप्त है, उनकी दृष्टि में प्रभु की अनुभूति अवर्णनीय है, वह गूंगे के गुण के समान है-
“अकथ कहानी प्रेम की कछु कही न जाय ।
गूँगे केरी सरकरा त्यों बैठा मुसकाय ॥”
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रहस्यवाद के दो रूप माने हैं-
(क) साधानात्मक रहस्यवाद (ख) भावात्मक रहस्यवाद
रहस्यवाद के उपर्युक्त दोनों रूप कबीर के काव्य में मिलते हैं।
(क) साधनात्मक रहस्यवाद- साधनात्मक रहस्यवाद में साधक अज्ञात तथा अकथ्य को जानने का प्रयास करता है। इसी कारण साधनात्मक रहस्यवाद कुछ कठिन एवं जटिल भी है। महात्मा कबीर ने साधनात्मक रहस्यवाद में प्रतीकात्मक शब्दों का प्रयोग किया है। कुण्डलिनी, बाड़ी जाल गंगा-जमुना, सरस्वती, पट्चक्र आदि का उन्होंने खुलकर प्रयोग किया है। यथा-
“अवधू परा मन मतिवारा
उत्पनि चढ्या मगन रस पीवै त्रिभुवन भया उजियारा।”
(ख) भावात्मक रहस्यवाद- कबीर के काव्य में भावात्मक रहस्यवाद की अभिव्यक्ति भी भली प्रकार हुई है। भावात्मक रहस्यवाद माधुर्य भाव से प्रेरित है, इसके अन्तर्गत कविगण परमात्मा पुरुष और आत्मा को नारी रूप में चित्रित करते रहे हैं। जीवात्मा रूपी पत्नी अपने परमात्मा रूपी पुरुष से मिलने के लिये निरन्तर व्याकुल रहती है। कबीर भी राम की ‘बहुरिया’ बन जाते हैं-
‘यह तन जारौं मसि करौं लिखौं राम का नाउं ।
लेखनि करौं करंक की लिखि राम पठाऊ ।।”
सूफी सन्तों एवं मुस्लिम धर्म के सिद्धान्तों का भी महात्मा कबीर पर स्पष्ट प्रभाव पड़ा है। हल्लाज मंसूर के प्रणयवाद प्रभाव देखिए-
“कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई।
अन्तर भोगी आत्म, हरी भई बनराई ।। “
प्रेम भाव की अभिव्यक्ति देखिये-
“नैना अन्दर आव तू, नैनन झाँपि तोहि लेऊं ।
न मैं देखूं और को, ना तोहिं देखन देऊं ।। “
कबीर अपनी रहस्य भावना को प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करते हैं। कबीर ने भी ईश्वर को पुरुष और आत्मा को स्त्री माना है-
“हरि मोरे पति मैं राम की बहुरिया ।
राम बड़े मैं छुटक लहुरिया ।।”
कबीर ने आत्मा और परमात्मा के विवाह की सुन्दर कल्पना की है।
“दुलहिनी गावहु मंगलाचार ।
हमारे घर आये हो राजाराम भरतार ।। “
कबीर की रहस्यवाद परम्परागत है। अतः उनके काव्य में हठयोगियों की सुषमा, कुण्डलिनी आदि नाड़ियों का भी वर्णन हुआ है। इस प्रकार के भावों को प्रकट करने के लिए कवि ने उलटबाँसी तथा संध्या भाषा का प्रयोग किया है।
कबीर का रहस्यवाद अद्वैतवाद पर आधारित है, अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा का पार्थक्य नहीं है, दोनों एक ही हैं। कबीरदास जी ने अद्वैतवाद के सिद्धान्त पर पूर्णरूपेण अपनी श्रद्धा प्रकट की है।
कबीर के रहस्यवाद में सूफी का भी प्रभाव है। कबीर दास का अभिमत है-
“लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल ।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ॥”
कबीर का रहस्यवाद प्रभु के प्रेम पर आधारित है। प्रभु के प्रति उनकी दाम्पत्य भाव की भावना ही उनके प्रभु प्रेम की परिचायक है।
“सांई बिनु दरद करेजे होय।
दिन नहि चैन रात नहिं निंदिया कासे कहूँ दुख होय ॥”
निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि कबीर के रहस्यवाद की उपर्युक्त उक्तियाँ उनके विकल हृदय की तड़प को सूचित करती हैं जिनकी गूंज आधुनिक काल के रहस्यवादी कवियों में भी स्पष्ट सुनाई देती है। कबीर ने समाज सुधार विषयक उक्तियों में नौरसता तथा शुष्कता का समावेश कर दिया लेकिन रहस्यवाद की उक्तियों में माधुर्य, वेदना और स्नेह का अत्यन्त कवित्वपू ढंग से सुन्दर चित्रण किया है।
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