व्यावसायिक अर्थशास्त्र / BUSINESS ECONOMICS

पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य निर्धारण | Price Determination under Perfect Competition in Hindi

पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य निर्धारण | Price Determination under Perfect Competition in Hindi
पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य निर्धारण | Price Determination under Perfect Competition in Hindi

पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य निर्धारण (Price Determination under Perfect Competition)

पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया किस प्रकार सम्पन्न होती है ? इस प्रश्न को लेकर अर्थशास्त्रियों में व्यापक मतभेद रहा है। इस सम्बन्ध में मुख्यतः दो विचारधाराएँ हैं। पहली विचारधारा के समर्थक वे अर्थशास्त्री थे जो उत्पादन व्यय (Cost of Production) को मूल्य निर्धारण का एकमात्र घटक समझते थे। इन अर्थशास्त्रियों में प्रो० एडम स्मिथ एवं रिकार्डो आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। दूसरी विचारधारा के समर्थक वे अर्थशास्त्री थे जो मूल्य के निर्धारण में उत्पादन लागत को महत्त्वपूर्ण न मानकर सीमान्त उपयोगिता (Marginal Utility) को मूल्य निर्धारण का प्रमुख आधार मानते थे। इस विचारधारा के प्रतिपादकों में प्रो० जेवेन्स, वालरस, मेन्जर, वीजर आदि प्रमुख अर्थशास्त्री हैं। काफी समय तक इन दोनों मतों में काफी मतभेद तथा विवाद रहा। अन्त में अर्थशास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि दोनों विचारधाराओं में आंशिक सत्यता है और दोनों ही विचारधाराएँ एकपक्षीय एवं अपूर्ण हैं।

प्रो० मार्शल ने दोनों विचारधाराओं को परखा और उनमें समन्वय किया। उन्होंने बताया कि वस्तु का मूल्य न तो केवल उत्पादन लागत (पूर्ति पक्ष) द्वारा निर्धारित होता है और न केवल सीमान्त उपयोगिता (माँग पक्ष) द्वारा ही। अपितु दोनों शक्तियाँ (माँग व पूर्ति) संयुक्त रूप से मूल्य का निर्धारण करती हैं। स्वयं प्रो० मार्शल के शब्दों में, “जिस प्रकार कागज को काटने के सम्बन्ध में हम यह विवाद कर सकते हैं कि कैंची का ऊपर या नीचे का फलक कागज को काटता है, उसी प्रकार मूल्य निर्धारण में कहा जा सकता है कि मूल्य उपयोगिता से अथवा उत्पादन लागत से निर्धारित होता है ।” जबकि वास्तविकता यह कि कागज को काटने के लिए दोनों फलक आवश्यक हैं। ठीक उसी प्रकार वस्तु के मूल्य निर्धारण में माँग (उपयोगिता) तथा पूर्ति (उत्पादन लागत) का सहयोग आवश्यक है।

बाजार में किसी भी वस्तु का मूल्य उस बिन्दु पर निर्धारित होता है जहाँ वस्तु की माँग (Demand) और पूर्ति (Supply) एक-दूसरे के बराबर हो जाती हैं। यह बिन्दु साम्य बिन्दु (Equilibrium point) तथा यह मूल्य साम्य मूल्य (Equilibrium Price) कहलाता है। सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मूल्य उस बिन्दु पर निर्धारित होता है जहाँ माँग और पूर्ति की शक्तियाँ साम्य की दशा (State of Equilibrium) में होती है। इस प्रकार यह वह बिन्दु जहाँ माँग और पूर्ति दोनों ही सन्तुलन की स्थिति (एक-दूसरे के बराबर होता है, जो क्रमश: उपयोगिता (Utility) तथा उत्पादन लागत (Cost of Production) का प्रतिनिधित्व करती है। अतः ‘माँग’ और ‘पूर्ति’ दोनों का स्पष्टीकरण आवश्यक है।

माँग शक्ति (Demand Force) – वस्तु की माँग क्रेता वर्ग के द्वारा की जाती है। क्योंकि वस्तु में उपयोगिता (Utility) होती है। प्रत्येक क्रेता के लिए मूल्य की एक अधिकतम सीमा होती है जो वस्तु की सीमान्त उपयोगिता द्वारा निर्धारित होती है। अन्य शब्दों में, कोई भी क्रेता वस्तु से प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता से अधिक मूल्य देने के लिए तत्पर नहीं होता। क्रेता किसी वस्तु के लिए जो वस्तु देने के लिए तैयार होता है, वह वस्तु माँग मूल्य (Demand Price) कहलाती है।

वस्तु की माँग ‘माँग के नियम’ द्वारा नियन्त्रित होती है अर्थात् ऊँची कीमत पर वस्तु की माँग कम तथा नीची कीमत पर वस्तु की माँग अधिक होती है। जिस कीमत पर वस्तु विशेष की एक विशेष मात्रा क्रेता क्रय करने के लिए तत्पर होता है उसे माँग मूल्य कहा जाता है। प्रत्येक क्रेता की अपनी एक माँग सूची होती है जो यह प्रदर्शित करती है कि विभिन्न मूल्यों पर क्रेता कितनी-कितनी मात्रा खरीदेगा। व्यक्तिगत सूचियों के आधार पर बाजार माँग सूची का निर्माण किया जा सकता है।

पूर्ति शक्ति (Supply Force) – वस्तु की पूर्ति के सम्बन्ध में दो महत्त्वपूर्ण बातें हैं। प्रथम उत्पादक अथवा वस्तु विक्रेता मूल्य क्यों लेता है ? द्वितीय उत्पादक अथवा विक्रेता वस्तु का कम-से-कम कितना मूल्य लेना चाहेगा ? प्रथम प्रश्न के उत्तर में हम यह कह सकते हैं कि चूँकि प्रत्येक वस्तु के उत्पादन में कुछ-न-कुछ लागत अवश्य आती है। अतः उत्पादक वस्तु का मूल्य लेता है। द्वितीय के लिये, उत्पादक वस्तु का मूल्य वस्तु की सीमान्त लागत के बराबर अवश्य लेगा। इस प्रकार मूल्य की निम्नतम सीमा वस्तु की सीमान्त लागत द्वारा निर्धारित होती है।

जहाँ तक पूर्ति का प्रश्न है, पूर्ति, ‘पूर्ति के नियम’ के द्वारा नियन्त्रित होती है। अन्य शब्दों में ऊँची से ऊँची कीमत पर वस्तु की अधिक मात्रा तथा नीची कीमत पर वस्तु की कम मात्रा बेचने के लिए प्रस्तुत की जाएगी। जिस कीमत पर विक्रेता वस्तु की एक निश्चित मात्रा को बेचने को तैयार होता है उसे पूर्ति मूल्य कहकर पुकारा जाता है। प्रत्येक उत्पादक या विक्रेता की एक पूर्ति अनुसूची होती है जो स्पष्ट करती है कि एक विक्रेता विभिन्न मूल्यों पर कितनी मात्राएँ बेचने के लिए तैयार है। व्यक्तिगत पूर्ति अनुसूचियों की सहायता से बाजार-पूर्ति अनुसूची का निर्माण किया जा सकता है।

मूल्य निर्धारण (Price Determination) – मूल्य के सामान्य सिद्धान्त के अनुसार, “वस्तु का मूल्य सीमान्त उपयोगिता तथा सीमान्त उत्पादन व्यय के मध्य माँग और पूर्ति की सापेक्ष शक्तियों के द्वारा उस स्थान पर निर्धारित होता है, जहाँ वस्तु की पूर्ति उसकी माँग के बराबर होती है।” इसका अभिप्राय यह है कि क्रेता की दृष्टि से मूल्य की अधिकतम सीमा वस्तु की सीमान्त उपयोगिता द्वारा निर्धारित होती है जबकि विक्रेताओं की दृष्टि से सीमान्त लागत मूल्य की निम्नतम सीमा का निर्धारण करती है। प्रत्येक क्रेता वस्तु का कम से कम मूल्य देना चाहता है तथा विक्रेता वस्तु का अधिक से अधिक मूल्य प्राप्त करना चाहता है। अतः दोनों पक्ष सौदेबाजी करते हैं और अन्त में वस्तु का मूल्य उस बिन्दु पर (जिसे साम्य अथवा सन्तुलन बिन्दु कहते हैं) निर्धारित होता है, जहाँ वस्तु की माँग वस्तु की पूर्ति के ठीक बराबर होती है। इसी बिन्दु को सन्तुलन मूल्य (Equilibrium Price) कहा जाता है।

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Anjali Yadav

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