व्यापार चक्रों की अवस्थाएँ (Phases of Business Cycles)
व्यापार चक्रों की अवस्थाओं के सम्बन्ध में प्रो. शुम्पीटर के दृष्टिकोण के आधार पर चार अवस्थाओं में विभाजित किया है-
(a) समृद्धि अवस्था
(b) प्रतिसार अवस्था
(c) मंदी अवस्था
(d) पुनरुत्थान अवस्था
प्रो. बार्न तथा प्रो. मिचैल ने व्यापार चक्र की चार आत्मनिर्भर अवस्थाओं को प्रस्तुत किया है-
(a) पुनरुस्थान
(b) विस्तार
(c) प्रतिसार
(d) संकुचन
इन दोनों दृष्टिगोचर के अध्ययन के पश्चात हम मानक व्यापार चक्र को पाँच अवस्थाओं में विभाजित कर सकते हैं-
(1) पुनरुत्थान अवस्था
(2) समृद्धि अवस्था
(3) अभिवृद्धि या तेजी अवस्था
(4) प्रतिसार अवस्था
(5) मंदी अवस्था
(1) पुनरुत्थान अवस्था (Recovery or Revival Phase)- मन्दी के पश्चात जब व्यावसायिक क्रियाओं में वृद्धि होने लगती है तो व्यापार चक्र की इस अवस्था को पुनरुत्थान अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में व्यावसायिक क्रियाओं में सुधार प्रारम्भ हो जाता है। उद्यमियों द्वारा यह महसूस किया जाने लगता है कि देश की आर्थिक स्थिति पहले जितनी खराब नहीं है। धीरे-धीरे औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि उत्पन्न होती है। रोजगार की मात्रा बढ़ने लगती है। कीमतों में धीरे-धीरे वृद्धि होने लगती है। मजदूरियों में भी वृद्धि होने लगती है हालाँकि उनमें वृद्धि कीमतों से कम होती है। बैंक साख का विस्तार करने लगते हैं। पूर्व अवस्था की तुलना में लोगों में आशावादी वातावरण पनपने लगता है।
इस पुनरुत्थान के परिणामस्वरूप सभी आर्थिक क्रियाओं उत्पादन, आय, विनियोग रोजगार एवं कीमत में वृद्धि होकर मन्दी से पूर्व की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मन्दी जितनी अधिक दर से उत्पन्न होती है। ठीक उतनी ही आर्थिक दर से पुनरुत्थान का काल प्रारम्भ हो जाता है। पुनरुत्थान अवस्था के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है क्योंकि यह उन शक्तियों की क्रियाशीलता पर निर्भर है जो इस काल का सूत्रपात करती है।
(2) समृद्धि अवस्था (Prosperity Phase)- समृद्धि अवस्था व्यापार चक्र की पूर्ण रोजगार अवस्था होती है। व्यापार चक्र की इस अवस्था के अन्तर्गत विभिन्न आर्थिक क्रियाओं में निरन्तर समृद्धि की स्थिति देखने को मिलती है। इस काल में उत्पादन वृद्धि ऊँचे लाभ, पूर्ण रोजगार, आधारभूत उद्योगों में पूँजी का अत्याधिक निवेश, बैक साख का विस्तार, तथा नये-नये व्यवसायों की स्थापना जैसी विशेषताएँ देखने को मिलती है। व्यवसाय एवं उद्योग जगत में एक आशावादी वातावरण उत्पन्न हो जाता है।
(3) अभिवृद्धि या तेजी अवस्था (Boom Phase)- अभिवृद्धि या तेजी की अवस्था व्यापार चक्र की पूर्ण से अधिक रोजगार अवस्था है। व्यापार-चक्र की इस अवस्था में व्यवसाय में तेजी से विस्तार होता है। इसके अन्तर्गत लाभ की दरें, शेयरों के दाम तथा रोजगार में अत्याधिक वृद्धि होती है। वस्तुओं की कीमतें इसमें पूर्ण रोजगार की अवस्था के पश्चात जब विनियोग किया जाता है तो इसके परिणामस्वरूप कीमतों में स्फीतिकारी वृद्धि होती है। इससे अर्थव्यवस्था में विभिन्न भागों में अधिकाधिक विनियोग किया जाने लगता है। उत्पादन के साधनों पर अधिक दबाव पड़ने लगता है, क्योंकि वे पहले से ही पूर्ण रोजगार की स्थिति में है जिसके परिणामस्वरूप उनकी कीमतों में अत्यधिक वृद्धि होने लगती है। इससे अर्थव्यवस्था में काम करने वालों की तुलना में काम करने के अवसरों में अत्याधिक वृद्धि हो जाती है। लाभ भी अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाते हैं। बढ़ते हुए लाभ से पूँजीगत विनियोगी में वृद्धि होती है। इससे देश में सरपट स्फीति (Run away Inflation) उत्पन्न हो जाती है तथा कीमतें आकाश को छूने लगती है। इस अत्यधिक तेजी से स्व-विनाश (Self-destruction) के लक्षण भी विद्यमान रहते हैं। अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में कठिनाइयाँ उत्पन्न होने लगती हैं। व्यवसायियों एवं उद्योगपतियों के लागत सम्बन्धी निर्णय गलत सिद्ध होने लगते हैं तथा कई नई फर्मों का पतन शुरु हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप नये निवेश बन्द होते हैं तथा इकाइयों के विस्तार में भी उनकी रुचि नहीं रहती है। तेजी के बाद मन्दी अनिवार्य रूप से उत्पन्न होती है।
(4) प्रतिसार अवस्था (Recession Phase)- व्यापार चक्र की इस अवस्था के अन्तर्गत व्यवसाय असफल होने लगती है और आतंक का वातावरण छाने लगता है। बैंक भी भ्रमित होकर व्यावसायियों एवं उद्यमियों से अपने ऋण वापस माँगते हैं। जिसके परिणामस्वरूप और अधिक व्यवसाय असफल होने लगते हैं। कीमतें गिरने लगती हैं और व्यवसायियों का विश्वास डगमगाने लगता है। निर्माण कार्य में भी सुस्ती आ जाती है और पूँजीगत उद्योगों में बेरोजगारी फैल जाती है। इस बेरोजगारी से कीमतें आय व्यय तथा लाभ की दरों में गिरावट आने लगती है। इससे इस अवस्था का संचयी प्रभाव (Cumulative effect) पड़ने से मन्दी का रूप धारण कर लेता है।
(5) मन्दी अवस्था (Depression Phase)- इसके अन्तर्गत देश की व्यावसायिक क्रियाओं के स्तर में सामान्यतया गिरावट आ जाती है। इस अवस्था में उत्पादन में अत्याधिक कमी, निम्न रोजगार स्तर, गिरती हुई कीमतें गिरते हुए लाभ, गिरती हुई मजदूरियाँ व्यापक बेरोजगारी, साख, संकुचन, व्यावसायिक असफलताओं की ऊँची दर एवं घोर निराशावादी वातावरण का बोलबाला होता है। इस काल में निर्माण कार्य भी ठप्प हो जाते हैं। खाद्य, कपड़े आदि उपभोग वस्तु उद्योगों की तुलना में आधारभूत पूँजीगत उद्योगों में अधिक बेरोजगारी उत्पन्न हो जाती है। निर्मित वस्तुओं की कीमतें इनकी उत्पादन लागत से अधिक तेजी से गिरने लगती हैं जिसके परिणामस्वरूप उद्यमियों को भारी वित्तीय हानि सहन करनी पड़ती है।
कीमतों में निरन्तर गिरावट के कारण सापेक्ष कीमत संरचना (Relative Price Structure) विकृत (Distorted) हो जाती है। कृषि एवं कच्चे पदार्थों की कीमतें निर्मित वस्तुओं की कीमतों से तेजी से घटती है।
व्यापार चक्र की विभिन्न अवस्थाओं को उपर्युक्त रेखा चित्र से स्पष्ट किया जा सकता है।
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