व्यावसायिक अर्थशास्त्र / BUSINESS ECONOMICS

मजदूरी निर्धारण के सीमान्त उत्पादकता नियम की आलोचनात्मक | Marginal Productivity Theory for the determination of wages in Hindi

मजदूरी निर्धारण के सीमान्त उत्पादकता नियम की आलोचनात्मक | Marginal Productivity Theory for the determination of wages in Hindi
मजदूरी निर्धारण के सीमान्त उत्पादकता नियम की आलोचनात्मक | Marginal Productivity Theory for the determination of wages in Hindi

मजदूरी निर्धारण के सीमान्त उत्पादकता नियम की आलोचनात्मक | Marginal Productivity Theory for the determination of wages

मजदूरी निर्धारण में सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त का उपयोग सर्वप्रथम जे० बी० क्लार्क ने किया; तत्पश्चात् प्रो० वानथम, विकस्टीड, वालरस आदि अर्थशास्त्रियों ने इसे विकसित किया; किन्तु इस सिद्धान्त की वैज्ञानिक ढंग से व्याख्या करने का श्रेय प्रो० मार्शल, श्रीमती रॉबिन्सन तथा हिक्स को है। वितरण का सामान्य सिद्धान्त जिसे ‘सीमान्त उत्पादकता का सिद्धान्त’ कहते हैं, का प्रयोग जब श्रम के पुरस्कार अर्थात् मजदूरी के निर्धारण के लिए किया जाता है तो उसे मजदूरी का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त कहते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार मजदूरी का निर्धारण श्रमिक द्वारा की जाने वाली सीमान्त उत्पत्ति के द्वारा होता हैं। जिस प्रकार किसी एक उपभोक्ता के लिए किसी वस्तु का मूल्य उस वस्तु की सीमान्त उपयोगिता के आधार पर तय होता है, उसी प्रकार मजदूर की मजदूरी भी उसकी सीमान्त उपयोगिता के आधार पर तय होती है। श्रम की सीमान्त उत्पादकता से आशय उस उत्पादन की मात्रा से है जो कि अन्य साधनों को स्थिर रखते हुए श्रम की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग से बढ़ती या घटती है। उदाहरण के लिए, यदि 10 मजदूर अन्य साधनों के साथ मिलकर 80 इकाइयों का उत्पादन करते हैं और अब 12 मजदूर साधनों की उस मात्रा के साथ मिलकर 100 इकाइयों का उत्पादन करते हैं तो श्रम की सीमान्त उत्पादकता इन दोनों के अन्तर 100 -80 = 20 इकाइयों के बराबर होगी।

सिद्धान्त की व्याख्या (Explanation of Theory)

उत्पादन के अन्य साधनों की मात्रा को अपरिवर्तित रखते हुए जब एक उत्पादक द्वारा श्रम की अधिकांश इकाइयों का प्रयोग किया जाता है तो एक सीमा के पश्चात् उत्पत्ति ह्रास नियम क्रियाशील हो जाता है तथा श्रम की सीमान्त उत्पादकता घटती चली जाती है। उद्योगपति श्रम को उस बिन्दु तक प्रयोग करता है जहाँ पर कि एक अतिरिक्त इकाई की उत्पादकता का मूल्य उसके लिए दी जाने वाली मजदूरी के बराबर हो जाता है। यदि मजदूरी सीमान्त उत्पादकता के मूल्य से अधिक है तो उद्योगपतियों को हानि होगी और वे श्रमिकों की माँग कम कर देंगे। यदि मजदूरी सीमान्त उत्पादकता से कम हो तो उद्योगपतियों को लाभ होगा और श्रमिकों की अधिक माँग करेंगे। अतः सन्तुलन की स्थिति में एक उद्योगपति उस बिन्दु तक श्रमिकों का प्रयोग करेगा जहाँ पर श्रमिकों की मजदूरी ठीक उनकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर हो जाती है।

मान्यतायें (Assumption) – यह सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है—

  1. बाजार में सदैव पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति रहती है।
  2. श्रम की प्रत्येक इकाई समान रूप से कुशल होती है।
  3. श्रमिकों में पूर्ण गतिशीलता होती है।
  4. उत्पादन में उत्पत्ति हास नियम लागू होता है।
  5. अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की स्थिति पायी जाती है।
  6. श्रम के अतिरिक्त उत्पादन के अन्य साधनों की मात्रा स्थिर रहती है।

आलोचनायें

मजदूरी निर्धारण के सीमान्त उत्पादकता नियम की निम्नलिखित आलोचनायें हैं-

(1) अपूर्ण सिद्धान्त – यह सिद्धान्त केवल श्रम की माँग पर ही विचार करता है, श्रम की पूर्ति के बारे में कुछ नहीं बताता अर्थात् यह सिद्धान्त अपूर्ण है। वास्तव में मजदूरी का निर्धारण श्रम की माँग व पूर्ति दोनों के आधार पर होता है।

(2) पूर्ण प्रतियोगिता अवास्तविक मान्यता- यह सिद्धान्त यह मान लेता है कि पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति है जबकि पूर्ण प्रतियोगिता व्यावहारिक जीवन में देखने को नहीं मिलती।

(3) दीर्घकालीन सिद्धान्त – इस सिद्धान्त से यह स्पष्ट होता है कि दीर्घकाल में मजदूरी का निर्धारण कैसे होता है किन्तु अल्पकाल में मजदूरी कैसे निर्धारित होती है इसकी विवेचना यह सिद्धान्त नहीं करता ।

(4) मान्यतायें काल्पनिक — यह सिद्धान्त पूर्णतः काल्पनिक मान्यताओं पर आधारित है। उदाहरण के लिए, श्रम की सभी इकाइयाँ कार्यकुशलता की दृष्टि से एक समान होती हैं, वास्तविकता से अलग है; क्योंकि व्यावहारिक जगत में मजदूरों की कार्यकुशलता में अन्तर पाया जाता है। इस प्रकार यह मान्यता कि श्रमिक पूर्ण रूप से गतिशील होता है, काल्पनिक है।

(5) श्रम की सीमान्त उत्पादकता को ज्ञात करना कठिन है— प्रत्येक वस्तु का उत्पादन उत्पत्ति के विभिन्न साधनों के संयुक्त प्रयासों का परिणाम होता है। अतः श्रम की सीमान्त उत्पादकता को पृथक् रूप से ज्ञात करना अत्यन्त कठिन है । अतः मजदूरी का निर्धारण ऐसी अवस्था में नहीं हो सकता।

(6) श्रम संघों के महत्व का अभाव – इस सिद्धान्त के अनुसार मजदूरी में वृद्धि श्रम की सीमान्त उत्पादकता में वृद्धि के कारण होती है, न कि श्रम संघों के प्रयास से; जबकि व्यावहारिक जीवन में देखा गया है कि श्रम संघ भी मजदूरी की दरों को बढ़ाने में सफल हो जाते हैं।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यह सिद्धान्त अधूरा तथा एकपक्षीय है; परन्तु यह मजदूरी निर्धारण के महत्वपूर्ण तत्व अर्थात् श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता को प्रकाश में लाता है, अतः महत्त्वपूर्ण है।

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Anjali Yadav

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