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दर्शन और शिक्षा में सम्बन्ध | दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव | शिक्षा का दर्शन पर प्रभाव

दर्शन और शिक्षा में सम्बन्ध | दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव | शिक्षा का दर्शन पर प्रभाव
दर्शन और शिक्षा में सम्बन्ध | दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव | शिक्षा का दर्शन पर प्रभाव

शिक्षा एवं दर्शन के मध्य सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए। शिक्षा को दर्शन का गत्यात्मक पहलू क्यों कहा जाता है ? उचित उदाहरणों सहित विवचेना कीजिए।

दर्शन और शिक्षा में सम्बन्ध (Relation between Philosophy and Education)

जो भी विचार विद्वानों ने दिए हैं उनसे हमें दर्शन और शिक्षा का सम्बन्ध मालूम होता है। इन विचारों से यह भी ज्ञात होता है कि इन दोनों में घनिष्ठ और अविच्छिन्न सम्बन्ध होता है और दर्शन एक प्रकार से शिक्षा के लिए आधार है तो उसका प्रभाव शिक्षा पर इतना अधिक पड़ा है कि बिना दर्शन के शिक्षा की क्रिया पूर्णरूपेण हो नहीं सकती है। अतएव हमें पहले विभिन्न विचारों की ओर देखना चाहिए-

(i) दर्शन शिक्षा का सामान्य सिद्धान्तवाद है- जॉन डीवी ने कहा है कि “अपने सामान्यतम रूप में दर्शन शिक्षा का सिद्धान्तवाद है।” चूँकि दर्शन में सोच-विचार के बाद निष्कर्ष निकालते हैं इसलिए वह एक प्रकार से सिद्धान्तवाद बनता है। शिक्षा में इसे प्रयोग किया जाता है। अतएव दर्शन और शिक्षा में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।

(ii) दर्शन सिद्धान्तवादी और चिन्तनशील तथा शिक्षा व्यवहारशील- प्रो० बटलर ने लिखा है कि “दर्शन सिद्धान्तवादी और चिन्तनशील है और शिक्षा व्यावहारिक है।” इसका तात्पर्य यह है कि दर्शन में चिन्तन ही होता है और शिक्षा में क्रिया होती है। दर्शन ‘क्या’ का उत्तर देता है और शिक्षा ‘कैसे’ का उत्तर देती है।

(iii) दर्शन और शिक्षा एक सिक्के के दो पहलू- प्रो० रॉस ने लिखा है कि, “दर्शन और शिक्षा सिक्के के दो पहलू के समान हैं, एक चीज के दो विभिन्न दृश्य उपस्थित करते हैं, तथा एक-दूसरे से अभिप्रेत होता है।” इस कथन से हमें दर्शन और शिक्षा में अभिन्नता मालूम होती है, फिर इनके द्वारा एक ही वस्तु दो ढंग से प्रकट की जाती है।

(iv) दर्शन का सक्रिय पक्ष शिक्षा- प्रो0 एडम्स ने बताया है कि, “शिक्षा दर्शन का गत्यात्मक पक्ष है। यह दार्शनिक विश्वास का सक्रिय पक्ष है।” इस कथन में यह संकेत मिलता है कि मनुष्य जो कुछ विचार करता है उसे वह कार्य में लगाता है और यदि ऐसा न हो तो उन विश्वासों का कोई मूल्य नहीं। इस दृष्टि से दर्शन का मूल्य शिक्षा के क्षेत्र में प्रकट किया जाता है।

(v) दर्शन द्वारा शिक्षा की कला को पूर्णता देना- प्रो० फिक्टे ने जोर दिया कि “दर्शन के बिना शिक्षा की कला स्वतः पूर्ण स्पष्टता को कंदापि प्राप्त नहीं कर सकेगी।”

इस कथन से यह मालूम होता है कि दर्शन शिक्षा की बातों की स्पष्ट व्याख्या करता है और उन्हें पूर्णरूपेण तभी समझा जा सकता है जब दर्शन की सहायता ली जाती है।

(vi) दर्शन शिक्षा का आधार- आधुनिक विचारकों ने बताया है कि शिक्षा की प्रक्रिया मजबूत बनाने के लिए दर्शन का आधार होना चाहिए। इस कथन से स्पष्ट होता है कि दर्शन को और शिक्षा दोनों एक-दूसरे के साथ गहरा सम्बन्ध रखते हैं।

(vii) दर्शन शिक्षा की समस्या का हल- प्रो0 हरबर्ट ने लिखा है कि “शिक्षा को उस समय तक फुरसत नहीं जब तक कि दार्शनिक प्रश्न हल नहीं होते हैं।” इससे दर्शन की उपादेयता के साथ-साथ शिक्षा के साथ उसका अटूट सम्बन्ध भी मालूम होता है। दर्शन की दृष्टि प्रश्नों व समस्याओं को हल करने की ओर होती है। ऐसी समस्याएँ क्रिया करते समय उठती हैं। अतएव स्पष्ट है कि दर्शन शिक्षा की सहायता करता है, मार्ग स्पष्ट करता है।

(viii) दर्शन की समस्या शिक्षा की समस्या – शिक्षाविदों ने कहा है कि “शिक्षा की सभी समस्याएँ अन्ततोगत्वा दर्शन की समस्याएँ हैं।” इस कथन से हमें ज्ञात होता है कि शिक्षा एक सविचार, चिन्तनशील प्रक्रिया है, अतएव इसके बारे में दार्शनिक तौर से सोचना-समझना जरूरी है। यदि ऐसा नहीं होता तो समस्याओं का समाधान नहीं होता है। अब स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा और दर्शन में कैसा सम्बन्ध पाया जाता है।

(ix) दर्शन और शिक्षा के तथ्य समान- दर्शन मनुष्य और संसार की सभी चीजों के प्रति एक निश्चित दृष्टिकोण में पाया जाता है। शिक्षा भी मनुष्य के जीवन से सम्बन्धित होती है, वह भी संसार की सभी चीजों के बारे में ज्ञान-अनुभव देती है। दर्शन मनुष्य की आत्मा, मूल्य, आदर्श मानक स्थापित करता है, इनके बारे में खोज करता है और शिक्षा भी इस खोज की क्रिया रूप में रहती है। अतएव दोनों के तथ्य एक ही हैं तथा दोनों में गहरा सम्बन्ध है।

(x) दर्शन और शिक्षा दोनों मानव जीवन के अभिन्न अंग- दर्शन जीवन में सत्यं शिवं सुन्दरं की खोज करता है और शिक्षा जीवन के सर्वोत्तम की अभिव्यक्ति है, जीवन की पूर्णता का प्रकाशन है। सत्यं शिवं सुन्दरं में ही जीवन की पूर्णता पाई जाती है। अस्तु दर्शन और शिक्षा जीवन के अभिन्न अंग होने के नाते परस्पर सम्बन्धित माने जाते हैं।

ऊपर के विचारों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि दर्शन और शिक्षा में बहुत समीपी सम्बन्ध पाया जाता है। शिक्षा की सफलता दर्शन पर निर्भर करती है, दर्शन के अभाव में शिक्षा की योजना अन्धकार में रहती है, शिक्षा की खोज दर्शन के द्वारा होती है, शिक्षा की प्रयोगशीलता एक सच्चे दर्शन के कारण ही सम्भव होती है। दर्शन यदि सत्य सिद्धान्त प्रस्तुत न करे तो शिक्षा किसे काम में लाये ? ऐतिहासिक साक्ष्य इसके पक्ष में है। भारत में वशिष्ठ, विश्वामित्र, वाल्मीकि, बुद्ध, गांधी सभी ने शिक्षा दी जिसमें अपने दर्शन के मूल सिद्धान्त बताए । अतएव दर्शन और शिक्षा अविच्छेद्य है।

दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव (Effect of Philosophy on Education)

शिक्षा क्रिया के विभिन्न अंगों जैसे उद्देश्य, पाठ्यक्रम, विधि, पाठ्यपुस्तक, शिक्षक, शिक्षार्थी, अनुशासन आदि पर दर्शन का प्रभाव दिखाई देता है। अतः इन्हें अलग-अलग समझा देने से दर्शन और शिक्षा की स्थिति स्पष्ट हो जायेगी-

(i) दर्शन का शिक्षा के उद्देश्य पर प्रभाव- मनुष्य जीवन के लक्ष्य के अनुसार अपनी शिक्षा के उद्देश्य भी रखता है। जीवन के लक्ष्य का निर्धारण जीवन-दर्शन से होता है। अतएव शिक्षा का उद्देश्य भी दर्शन के द्वारा निश्चित होता है। उदाहरण के लिए, आज भारत में शिक्षा का उद्देश्य प्रमुखतः जीवन को सुखी बनाना है। इसके पीछे भौतिकवादी दर्शन मिलता है। अतएव हमारी शिक्षा का उद्देश्य भौतिकवादी दर्शन ने निश्चित किया है यह हम कह सकते हैं। इसी प्रकार अन्य देशों में होता है; जैसे- अमेरिका में प्रयोजनवादी दर्शन, रूस में साम्यवादी दर्शन, इंग्लैंड में उपयोगितावादी दर्शन ने शिक्षा के उद्देश्य निश्चित किये हैं।

(ii) दर्शन का शिक्षा के पाठ्यक्रम पर प्रभाव- पाठ्यक्रम शिक्षा के उद्देश्य के अनुसार निश्चित किया जाता है। यदि शिक्षा का उद्देश्य दर्शन निश्चित करना है तो उसका पाठ्यक्रम भी दर्शन के द्वारा निश्चित होता है। इसका उदाहरण हम विभिन्न देशों के पाठ्यक्रम में पाते हैं। भारत में प्राचीन काल से ही आध्यात्मिक विषयों को पाठ्यक्रम में स्थान दिया गया। आज विज्ञान के प्रभाव से वैज्ञानिक दृष्टिकोण हो गया है अतएव पाठ्यक्रम में विज्ञान, तकनीकी, व्यावसायिक विषय रखें गये हैं। आवश्यकता एवं क्रियाशीलता के आधार पर आज पाठ्यक्रम में खेल-कूद, क्रियात्मक शिक्षा क्राफ्ट जैसे विषय रखे गये हैं। ये सब दर्शन का ही प्रभाव कहा जा सकता है।

(iii) दर्शन का शिक्षा की विधि पर प्रभाव- शिक्षा की विधि पर भी दर्शन का प्रभाव पड़ा है। प्राचीन भारत में गुरु-शिष्य की प्रणाली थी, कुछ समय बाद मौखिक विधि के साथ क्रियाविधि भी काम में लायी गई। आज कुछ नई शिक्षाविधियाँ काम में लाई जा रही हैं जैसे प्रोजेक्ट विधि, डाल्टन विधि, किण्डरगार्टेन विधि आदि। इन विधियों का प्रयोग दार्शनिक विचारों में परिवर्तन के कारण हुआ है।

(iv) दर्शन का पाठ्यपुस्तकों पर प्रभाव- नवीनतम विधि आदि दर्शन का प्रभाव पाठ्यपुस्तकों पर भी पड़ता है। प्राचीन काल में प्रकाशन का अभाव होने से पाठ्यपुस्तकें नहीं थीं। आज इनके बिना शिक्षा का कार्य होना सम्भव नहीं है। पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से दर्शन का प्रचार होता है। जनतन्त्रवादी दर्शन ने शिक्षा सभी को प्राप्त कराने का दावा किया है अतएव पाठ्यपुस्तकें एक अनिवार्य साधन बन गईं। यहाँ भी दर्शन का प्रभाव शिक्षा व पाठ्यपुस्तकों पर पड़ता है।

(v) दर्शन का शिक्षक पर प्रभाव- शिक्षक का अपना एक दर्शन होता है। शिक्षक वही होता है जो ज्ञान की इच्छा रखता है। दर्शन ज्ञान के लिए प्रेम होता है। अतएव शिक्षक दर्शन से प्रभावित व्यक्ति होता है। दर्शन के द्वारा ज्ञान की परिपक्वता आती है व्यक्तित्व के मूल्य विकसित होते हैं, शिक्षण के प्रति उचित दृष्टिकोण बनता है, भविष्य निर्माण के लिए सही प्रयत्न होता है और शिक्षार्थी के जीवन का उन्नयन करने में सहायता मिलती है। प्राचीन भारत में गुरु शान्त, सरल, निरीह, कर्त्तव्यपरायण होता था, आज वह अशान्त है, तड़क-भड़क पसन्द करने वाला है, धन की इच्छा करने वाला है। यह भौतिकवाद का प्रभाव है। अतएव शिक्षक पर भी दर्शन का प्रभाव दिखाई देता है।

(vi) दर्शन का शिक्षार्थी पर प्रभाव- दर्शन का प्रभाव शिक्षार्थी पर पड़ता है। आज राजनीति को शिक्षार्थी ने अपना व्यवसाय बना लिया है। उसमें असन्तोष है और विरोधी तत्त्व का वह प्रकाशन करता है। प्राचीन भारत का शिक्षार्थी एवं शिक्षक दोनों राजनीति से दूर रहते थे, शान्त जीवन में उन्हें सुख मिलता था और राजनीति के व्यवसाय का उन्हें कोई ज्ञान न था दर्शन ने ही इस प्रकार का परिवर्तन ला दिया है। यह आज सभी स्वीकार करते हैं।

(vii) दर्शन का अनुशासन पर प्रभाव- अनुशासन शिक्षक एवं शिक्षार्थी के परस्पर व्यवहार में पाया जाता है। शिक्षक और शिक्षार्थी प्राचीन काल में अनुदेशक और अनुपालक होते थे। आज शिक्षार्थी एवं शिक्षक दोनों में स्वतन्त्रता का दुरुपयोग होता है अतएव दोनों में संघर्ष हो रहा है। शिक्षार्थी शिक्षक के आदेश को स्वीकार नहीं करता है बल्कि अपने आप जो चाहता है करता है। स्वेच्छाचारिता आधुनिक जनतंत्रवादी दर्शन का प्रभाव है। नैतिकता भी अनुशासन का एक अंग है, आज भौतिकवाद तथा धर्मनिरपेक्षवाद ने शिक्षार्थी को अनैतिक और धर्मविहीन बना दिया है। विद्यालय इनकी क्रियाओं के दुष्प्रभाव से अनुपयुक्त वातावरण से पूर्ण है। अब. हमें दर्शन का साफ प्रभाव अनुशासन पर दिखायी दे रहा है। प्रो० रस्क ने दर्शन का प्रभाव बताते हुए लिखा है कि “शिक्षा की समस्या के प्रत्येक कोण से इस प्रकार विषय के एक दार्शनिक आधार की माँग आती है।” इसके आगे प्रो० बटलर ने कहा है कि “दर्शन शैक्षिक अभ्यास के लिए एक निर्देशक है।”

इन कथनों से शिक्षा पर दर्शन किस प्रकार प्रभाव डालता है, यह ज्ञात होता है।

शिक्षा का दर्शन पर प्रभाव (Effect of Education on Philosophy)

शिक्षाविदों ने दर्शन के प्रभाव को स्वीकार तो किया है लेकिन यह भी कहा है कि शिक्षा का प्रभाव दर्शन पर भी काफी पड़ता है। प्रो० रॉस ने लिखा है कि, “शैक्षिक उद्देश्य और विधियाँ दार्शनिक सिद्धान्तों के सह-सम्बन्धी हैं।” दर्शन एक नियामक विज्ञान है अतएव वह शिक्षा के लिए आदर्श एवं मानक प्रस्तुत करता है, परन्तु मनुष्य का विचार उसकी शिक्षा से भी प्रभावित होता है। अतएव दर्शन पर शिक्षा का प्रभाव पड़ता है।

(i) दर्शन की आधारशिला शिक्षा- शिक्षा ऐसी वस्तु है और उसका ऐसा क्षेत्र है जहाँ दर्शन को काम में लाने का प्रयत्न करते हैं। दर्शन का निर्माण और विकास शिक्षा के विभिन्न अंगों के निरीक्षण, चिन्तन एवं विचारीकरण के फलस्वरूप होता है। शिक्षा के द्वारा भाषा सीखी जाती है। भाषा के द्वारा चिन्तन होता है और परिणामस्वरूप दर्शन की प्राप्ति होती है। बिना शिक्षा के दर्शन की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए शिक्षा दर्शन की आधारशिला है। उसके निर्माण का साधन है।

(ii) दर्शन को जीवित रखना – शिक्षा ज्ञान- अनुभव है जो हम संसार के बारे में प्राप्त करते हैं। दर्शन ज्ञान की अन्तिम व्याख्या करता है, सिद्धान्त निर्धारित करता है परन्तु ये व्याख्या एवं सहायक सिद्धान्त बिना शिक्षा के सम्भव नहीं हो सकते। फलतः शिक्षा दर्शन को जीवित रखने में सक्षम एवं सहायक होती है।

(iii) दर्शन को मूर्त रूप देना- दर्शन संसार के सम्बन्ध में जो चीजें निश्चित करता है उसको मूर्त रूप शिक्षा ही देती है जैसा कि प्रो० एडम्स ने कहा है कि शिक्षा दार्शनिक विश्वास का सक्रिय पक्ष है। शिक्षा जीवन के आदर्शों को व्यावहारिक विधि से प्राप्त कराती है। अतएव स्पष्ट है कि शिक्षा दर्शन को साकार बनाती है।

(iv) दर्शन को समाधान हेतु समस्या देना- शिक्षा का कार्य देश के दर्शन का पुनर्निर्माण तथा मूल्यों की पुनर्परिभाषा करना है जिससे कि वे हमारे बदलते जीवन और विचार की व्याख्या कर सकें। शिक्षा के द्वारा परिवर्तन होता है अतएव समस्याएँ उत्पन्न होती हैं और इनका समाधान दर्शन करता है। अतएव दर्शन को शिक्षा के द्वारा चिन्तन की सामग्री मिलती है।

(v) दर्शन को गतिशील बनाना- चूँकि शिक्षा के द्वारा चिन्तन की सामग्री मिलती है और दर्शन उस पर चिन्तन-मनन करता है, उनका समाधान ढूँढ़ता है अतएव शिक्षा दर्शन को गतिशील बनाती है (Education makes philosophy dynamic ) । शिक्षा के द्वारा दर्शन प्रगति करता है (Philosophy is made progressive by education) । शिक्षा का ही यह परिणाम था कि विश्व में विभिन्न दर्शन बने और उनका विकास हुआ।

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Anjali Yadav

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