प्रकृतिवादी दर्शन की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं ? उद्देश्यों, शिक्षण विधियों, पाठ्यक्रम अनुशासन, शिक्षक तथा शिक्षार्थी के प्रत्ययों पर प्रकृतिवाद के प्रभाव की विवेचना कीजिए।
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प्रकृतिवादी शिक्षा की विशेषताएँ (Characteristics of Naturalistic Education)
राबर्ट रस्क का मत है- “प्रकृतिवाद एक अर्वाचीन विचार है, प्राचीन नहीं।” शिक्षा के क्षेत्र में प्रकृतिवादी आन्दोलन का प्रारम्भ बेकन और कमेनियस ने किया। रूसो ने इस आन्दोलन को अपनी चरम सीमा पर पहुँचा दिया। इसके फलस्वरूप शिक्षा के क्षेत्र में कुछ सामान्य सूत्र वाक्य प्राप्त हुए। इन्हीं को कुछ विद्वानों ने प्रकृतिवादी शिक्षा की विशेषताओं के नाम से पुकारा है। संक्षेप में हम प्रकृतिवादी शिक्षा की इन्हीं विशेषताओं की चर्चा यहाँ कर रहे हैं-
(1) पुस्तकीय ज्ञान का विरोध – प्रकृतिवादी शिक्षा का जन्म प्रचलित शिक्षा के विरोध में हुआ था जिसमें पुस्तकीय ज्ञान को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया था। ग्रीक, लैटिन में लिखी हुई पुस्तकों को रट लेना ही शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य था। इस शिक्षा में समय का पर्याप्त अपव्यय होता है और मस्तिष्क पर अनावश्यक जोर डालना पड़ता था। साथ ही बालक की इसमें रुचि भी नहीं होती थी। बरबस उसे यह कार्य सम्पन्न करना पड़ता था। अतः प्रकृतिवाद ने इस पुस्तकीय शिक्षा का विरोध किया और कहा कि केवल भाषाध्ययन में भी बालकों का जीवन न नष्ट करो, मात्र पुस्तकों को रटा देना ही शिक्षा का कार्य नहीं है। बालकों को प्रकृति के अनुसार, के चलना चाहिए और उन्हें अपने आप विकसित होने देना चाहिए। अतएव रॉस महोदय का यह कथन पूर्णतया उचित है- “प्रकृतिवादी एक ऐसा शब्द है जिसका प्रयोग शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्तों में उन्हीं शिक्षा प्रणालियों के लिए कर दिया जाता है जो शिक्षार्थी को शिक्षालयों और पुस्तकों पर आश्रित बनाने के बजाय उसके जीवन को क्रियात्मक रूप से प्रभावित करने का प्रयास करती है।”
(2) प्रकृति की ओर लौटने का सिद्धान्त- प्रकृतिवादी शिक्षा का प्रमुख नारा “प्रकृति – की ओर लौटना है।” प्रकृतिवादियों द्वारा यह नारा लगाने का प्रमुख कारण यह था कि 18वीं शताब्दी की सभी राजनीतिक, शैक्षिक और सामाजिक संस्थाएँ अपने गन्दे वातावरण के कारण बालकों का विकास करने में असमर्थ थीं। इस नारे का तात्पर्य यह है कि बालक को अपने प्राकृतिक वातावरण में ही विकसित होने दो। इस नारे का मुख्य प्रवर्तक रूसो था। उसका यह भी विश्वास था कि बालक के प्राकृतिक विकास के लिए उसे सामाजिक और राजनीतिक बन्धनों से मुक्त करना आवश्यक है। मूलतः बच्चे की प्रकृति की निर्विकारिता पर उसका अडिग विश्वास है।
(3) बालक की प्रधानता- प्राचीन काल में शिक्षा में शिक्षक का प्रधान स्थान था और मध्य काल वह प्रधानता पाठ्य-विषयों को मिल गयी। बालक को बालक न समझकर छोटा प्रौढ़ (Adult) समझा जाता था और उस पर पोथियों का बोझ लाद दिया जाता था, जिसका भार उठाना उसकी शक्ति के बाहर था। प्रकृतिवादी ने उसका विरोध किया और बच्चे के अस्तित्व के प्रति उचित आदर व्यक्त किया। उसने बालक को सम्पूर्ण शिक्षा प्रक्रिया के केन्द्र में रखा और कहा कि बच्चा, बच्चा है, छोटा प्रौढ़ नहीं। इसलिए उसके विकास की अवस्थाओं के अनुरूप शिक्षा योजना का संगठन होना चाहिए। बालक की शिक्षा बालक की प्रवृत्तियों, रुचियों, योग्यताओं एवं क्षमताओं तथा शक्तियों के अनुरूप ही होनी चाहिए। शिक्षा बालक के लिए है, बालक शिक्षा के लिए नहीं। अतः शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यक्रम, शिक्षण प्रणालियों पाठ्य पुस्तकों आदि सभी का समायोजन बालक को ध्यान में रखकर होना चाहिए।
(4) शिक्षा में बाल-मनोविज्ञान- रूसो का कहना है- “प्रत्येक बालक एक पुस्तक है और हमें उसके प्रत्येक पृष्ठ को समझना चाहिए।” इस प्रकार उसने शिक्षा में बाल-प्रकृति के अध्ययन का प्रतिपादन किया। प्रकृतिवादियों ने कहा कि प्रत्येक बालक की मूल प्रवृत्तियों, इच्छाओं, संवेगों, स्थायी भावों, बौद्धिक शक्तियों तथा व्यक्तित्व को समझना चाहिए और उसी हिसाब से उसकी शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। बच्चों की प्रत्येक अवस्था, शैशव, बाल्यावस्था, किशोरावस्था में प्राकृतिक शक्तियों का विकास अलग-अलग रहता है, इसलिए शिक्षक को इसका यथेष्ट ज्ञान नितान्त आवश्यक है। शिक्षा व्यवस्था भी इन बिन्दुओं को दृष्टि में रखकर होनी चाहिए और शिक्षक को इस पहलू के प्रति विशेष जागरूक होना चाहिए।
(5) बालकों के विकास के लिए स्वतन्त्रता आवश्यक- प्रकृतिवादियों का विचार है कि बालकों के सार्वभौमिक विकास के लिए स्वतन्त्रता आवश्यक है। प्रकृतिवादी कमेनियस के इस मत पर विश्वास करते हैं कि प्रकृति ठीक समय पर कार्य करती है। अतएव बालक को अपनी रुचियों के अनुसार विकास के मार्ग पर उन्मुख होने देना चाहिए। बालक जन्म से अच्छा होता है और अच्छा ही रहता । आवश्यकता इस बात की है कि उसे अपने स्वाभाविक विकास के हेतु स्वतन्त्रता प्रदान की जाए।
(6) इन्द्रिय प्रशिक्षण का महत्त्व- रूसो का मत है कि बालकों के ज्ञान का द्वार इन्द्रियों का उचित प्रयोग करके खोलना चाहिए। प्रकृतिवादी इन्द्रियों के प्रशिक्षण को विशेष महत्त्व देते हैं। उसके अनुसार इन्द्रियाँ ज्ञान के द्वार हैं। वही शिक्षा स्थायी होती है जो इन्द्रियों के उचित प्रशिक्षण द्वारा प्राप्त होती है।
(7) सह-शिक्षा पर बल- प्रकृतिवादी बालक-बालिकाओं की सह-शिक्षा के समर्थक हैं। उनकी दृष्टि से सह-शिक्षा से विद्यालय का वातावरण बाल प्रकृति की दृष्टि से अधिक स्वाभाविक और सरल रहता है। साथ ही बच्चों में अनावश्यक कुण्ठाओं, हीन ग्रन्थियों और दूषित मनोवृत्तियों को विकसित होने का अवसर नहीं प्राप्त होता। सह-शिक्षा में बच्चों के दृष्टिकोण से एक स्वाभाविक विशदता और उदारता का समावेश होता है।
प्रकृतिवादी शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Naturalistic Education)
प्रकृतिवादी शिक्षा के उद्देश्यों के सम्बन्ध में एकमत नहीं हैं। यन्त्रवादी प्रकृतिवाद (Mechanical Naturalism) और जीव-विज्ञानवादी प्रकृतिवाद (Biological Naturalism) के समर्थकों ने अलग-अलग शैक्षिक उद्देश्यों का वर्णन किया है। यहाँ प्रकृतिवादी शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों को स्पष्ट किया जा रहा है-
(1) यन्त्रवादी प्रकृतिवादी के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य– यन्त्रवादी प्रकृतिवादी मनुष्य को यन्त्र के समान मानता है और यन्त्र को अच्छा चलाने वाला बनाना उसका उद्देश्य है। इस उद्देश्य के अनुसार मानवीय शरीर रचना पर अधिकाधिक ध्यान दिया जाना चाहिए तथा मानव मस्तिष्क का इस प्रकार विकास करना चाहिए कि वह जटिलतम समस्याओं को सुलझाने में सक्षम बन सके।
(2) जीव-विज्ञानवादी प्रकृतिवाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य- यह प्रकृतिवाद “विकास का सिद्धान्त” (Theory of Evolution) में विश्वास करता है। इसकी आधारभूत मुख्य दो बातें हैं-
- (अ) जीवन के लिए संघर्ष और,
- (ब) समर्थ का अस्तित्व,
यहाँ हम प्रकृतिवादियों द्वारा बतलाये गए शिक्षा के उद्देश्यों की विवेचना संक्षेप में कर रहे हैं-
(1) सहज सम्बद्ध क्रियाओं का निर्माण- पदार्थवादी प्रकृतिवादियों का शिक्षा के क्षेत्र में कोई भी योगदान नहीं है। अतएव उनके द्वारा प्रतिपादित शिक्षा के उद्देश्यों का प्रश्न ही नहीं उठता। यन्त्रवादी प्रकृतिवादियों के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य मानव में ऐसी सम्बद्ध सहज क्रियाओं का निर्माण करना है जो उसके वर्तमान जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध हो। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि इन प्रकृतिवादियों के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य में इस प्रकार के विचारों, क्रियाओं और आदतों का निर्माण करना है जो उसे उचित समय पर उसी प्रकार सहायता प्रदान करें जिस प्रकार कि यन्त्र के पुर्जे करते हैं। शिक्षण का कार्य व्यक्ति में इस प्रकार के व्यवहार में विकास करना है जिससे कि वह मशीन की भाँति कुशलतापूर्वक कार्य करता रहे। शिक्षा के इस उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए रॉस ने लिखा है- “व्यवहारवादी शब्दों में शिक्षा का उद्देश्य सम्बद्ध सहज क्रियाओं की स्थापना करना होना चाहिए जो वर्तमान जीवन के हेतु उपयुक्त क्रिया तथा विचार की आदतें हैं।”
(2) मूल-प्रवृत्तियों का शोधन, मार्गान्तीकरण और समन्वय- कुछ प्रकृतिवादी विचारक सुखवादी उद्देश्य का विरोध करते हैं। इन विचारकों में मैक्डूगल का नाम उल्लेखनीय है। उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को उन उद्देश्यों को प्राप्त करने योग्य बनाना है जो प्रकृति ने उसके सम्मुख रखे हैं और जिनका वैयक्तिक और सामाजिक मूल्य हैं। रॉस ने मैक्डूगल की शिक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है- “शिक्षा का उद्देश्य सहज प्रवृत्तियों, ऊर्जाओं का शोधन, सहज आवेगों का मार्गान्तीकरण, समन्वय और तालमेल करना है।”
(3) जीवन संघर्ष के योग्य बनाना- जीव विज्ञानवादी प्रकृतिवादियों तथा नव-डार्विनवादियों का मत है कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को निरन्तर संघर्ष के योग्य बनाना है। डार्विन का मत है कि संसार में प्रत्येक व्यक्ति को अपने अस्तित्व के लिए निरन्तर संघर्ष करना पड़ता है और संसार में वही विजयी होते हैं जो कि निरन्तर संघर्ष करने के लिए तत्पर रहते हैं। अतएव नव-डार्विनवादियों के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को जीवन संघर्ष के योग्य बनाना है।
(4) वातावरण के अनुकूलन की क्षमता उत्पन्न करना- जीव विज्ञानवादी प्रकृतिवादियों की दूसरी शाखा के विचारक नव-लैमार्कवादी हैं। उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य में अपनी परिस्थितियों और वातावरण के अनुकूल बनाने की क्षमता उत्पन्न करना है।
(5) आत्म-संरक्षण और आत्म-संतोष की प्राप्ति- कुछ प्रकृतिवादी शिक्षा का उद्देश्य बालक में आत्म-संरक्षण और आत्म-संतोष की भावना उत्पन्न करने में सहायता देना मानते हैं। हरबर्ट स्पेन्सर आत्म-संतोष की भावना उत्पन्न करना ही शिक्षा का उद्देश्य मानता है।
(6) प्रजातीय एकता की प्राप्ति- बर्नार्ड शॉ आदि कुछ प्रकृतिवादियों का विचार है कि एक जाति जो संस्कृति एवं सभ्यता अर्जित करती है उसका वंशानुक्रम द्वारा हस्तान्तरण नहीं हो सकता अतएव शिक्षा का उद्देश्य इन प्रजातीय प्राप्तियों की सुरक्षा एवं उनके विकास की गति को तीव्र करना होना चाहिए। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही रॉस ने लिखा है- “जातीय प्राप्तियों के संरक्षण एक सन्तति से दूसरी सन्तति को सौंपने और उन्हें विकसित करने का नाम ही शिक्षा है।”
(7) वैयक्तिकता का स्वतन्त्र विकास- टी० पी० नन, रूसो, पेस्टालॉजी आदि प्रकृतिवादियों के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य बालक में जन्म से निहित शक्तियों का स्वतन्त्र विकास करने में सहायता प्रदान करना है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्रकृतिवादी शिक्षा का मूल उद्देश्य व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास है।
प्रकृतिवादी और शिक्षण विधियाँ (Naturalism and Teaching Method)
प्रकृतिवादियों ने उन समस्त सामूहिक शिक्षण विधियों का विरोध किया जो उस समय प्रचलित थीं और नई शिक्षण विधियों का प्रतिपादन किया। इससे पूर्व कि नई विधियों का उल्लेख किया जाय, इसका उल्लेख कर देना आवश्यक है कि उन्होंने अपनी विधियों में जिन सिद्धान्तों को अपनाया वे निम्न हैं-
(1) करके सीखना- प्रकृतिवादी शिक्षण विधि में “जानने” से “अधिक करने पर बल दिया जाता है क्योंकि बालक करके सीखने में आनन्द का अनुभव करता है।
(2) स्वानुभव द्वारा सीखना- बालक के लिए शैक्षिक अनुभव सुखदायी होते हैं, इसलिए प्रकृतिवादियों ने स्वानुभव द्वारा सीखने पर बल दिया है। स्वानुभव द्वारा सीखने में रुचि का महत्त्व है। यदि शिक्षण सामग्री बालकों की रुचि से सम्बद्ध कर दी जाए तो स्वानुभव द्वारा सीखना लाभप्रद होता है। रूसो कहता है कि, “अपने छात्र को कोई भी मौखिक उपदेश न दो उसे अनुभव द्वारा सीखने दो।”
(3) खेल द्वारा सीखना- खेल केवल साधारण क्रिया ही नहीं बल्कि एक रचनात्मक प्रवृत्ति है। इसलिए प्रकृतिवादियों ने कहा है कि बालकों को खेल द्वारा शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।
प्रकृतिवादियों के उपर्युक्त करके सीखने, स्वानुभव द्वारा सीखने तथा खेल द्वारा सीखने के सिद्धान्त ने निरीक्षण पद्धति, खेल पद्धति, ह्यूरिस्टिक पद्धति, डाल्टन पद्धति, प्रोजेक्ट पद्धति आदि अनेक शिक्षण पद्धतियों को जन्म दिया है। उक्त सभी पद्धतियाँ बालक को स्वतन्त्र वातावरण में रखते हुए आत्म-प्रदर्शन के अवसर प्रदान करती हैं जिससे बालक रचनात्मक कार्यों के द्वारा शिक्षा प्राप्त करता है।
प्रमुख शिक्षण विधियाँ- प्रकृतिवादियों ने जिन नवीन शिक्षण पद्धतियों को अपनाया उनमें प्रमुख हैं- ह्यूरिस्टिक पद्धति, प्रोजेक्ट प्रणाली, डाल्टन प्रणाली, मॉण्टेसरी प्रणाली और निरीक्षण पद्धति ।
प्रकृतिवादी शिक्षा का पाठ्यक्रम (Curriculum of Naturalistic Education)
पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में प्रकृतिवादियों के जो विचार हैं उनका उल्लेख यहाँ संक्षेप में किया जा रहा है-
(1) मूल प्रवृत्तियों, रुचियों एवं क्षमताओं को महत्त्व – प्रकृतिवादी पाठ्यक्रम में उन्हीं क्रियाओं को स्थान देना चाहते हैं जो बालक की प्रकृति अर्थात् मूल प्रवृत्तियों, योग्यताओं, क्षमताओं और स्वाभाविक क्रियाओं के अनुकूल हों।
(2) व्यक्तिगत विभिन्नता का महत्त्व – प्रकृतिवादी पाठ्यक्रम का निर्धारण करते समय व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर विशेष ध्यान देने की बात कहते हैं। उनके अनुसार सभी बालकों को एक प्रकार का पाठ्यक्रम नहीं पढ़ाया जा सकता।
(3) व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित विषयों की प्रधानता – प्रकृतिवादी उन्हीं विषयों के अध्ययन पर विशेष बल देना चाहते हैं जो व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित हों। उनके अनुसार बालक को ऐसे विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए जो उसे “अस्तित्व के लिए संघर्ष करने योग्य बनावे।”
(4) धार्मिक शिक्षा को स्थान नहीं- प्रकृतिवादी धार्मिक शिक्षा के विरोधी हैं वे उसे व्यर्थ मानते हैं। उनके अनुसार कोई भी बालक जबकि वह स्वतन्त्र रहता है धर्म-पालन की बात नहीं सोचता और न बालकों में ऐसे चिन्ह पाये जाते हैं कि जो यह स्पष्ट करें कि पूजा-पाठ की भावना बालकों में स्वभाव से होती हो।
(5) यौन शिक्षा का महत्त्व – ए० एस० नील नामक प्रसिद्ध प्रकृतिवादी ने यौन शिक्षा को अत्यधिक महत्त्व प्रदान किया है। उनके अनुसार बालक को यह शिक्षा अवश्य प्रदान की जानी चाहिए।
प्रकृतिवाद और अनुशासन (Discipline and Naturalism)
प्रकृतिवादी शिक्षा में स्वाभाविक परिणामों द्वारा अनुशासन के सिद्धान्त में विश्वास करते हैं। वे बालक को किसी प्रकार के शारीरिक दण्ड देने या डाँटने-फटकारने के पक्ष में नहीं हैं। उनका मत है कि बालक को अपनी क्रियाओं के परिणामों से अनुशासित होने देना चाहिए, वही अनुशासन सच्चा अनुशासन है। प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करने वालों को प्रकृति कभी क्षमा नहीं करती, वरन् निश्चित रूप से दण्डित करती है। अतीत में बालकों पर किसी प्रकार का कठोर नियन्त्रण नहीं रखना चाहिए और उन्हें प्रकृति के भरोसे छोड़ देना चाहिए। वह उचित समय पर उचित दण्ड-व्यवस्था कर देगी। उदाहरण के लिए यदि बालक सर्दी के दिनों में गर्म कपड़े नहीं पहनता और नंगा घूमना चाहता है तो उसे ऐसा करने दिया जाय। बालक बीमार पड़कर स्वयं सीख जायेगा कि जाड़े के दिनों में गर्म कपड़े पहनने की आवश्यकता है। इसी प्रकार बालक यदि खुला ब्लेड लिए है तो उसकी अंगुली कट जायेगी और उसे प्राकृतिक दण्ड प्राप्त होगा। फलस्वरूप बालक फिर खुले ब्लेड को हाथ में लेने से डरेगा। इस तरह बालक प्रकृति द्वारा अनुशासित हो जायेगा। अध्यापक या अभिभावक को अनुशासन की दिशा में व्यर्थ अधिक परेशान होने की आवश्यकता नहीं है, उसकी व्यवस्था करना प्रकृति का कार्य है।
इस प्रकार प्रकृतिवाद “मुक्त्यात्मक अनुशासन” का समर्थक है। उसके अनुसार बालक पर किसी प्रकार का कृत्रिम दबाव नहीं डाला जाना चाहिए। ऐसा करने से उसकी सामाजिक प्रवृत्तियों का दमन होता है और उसके व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता। बालक में प्राकृतिक परिणामों द्वारा स्वयं ही अनुशासन की भावना आती है। रूसो ने लिखा है- “अनुशासन सदैव बालकों की गलतियों के प्राकृतिक परिणामों द्वारा स्थापित होना चाहिए।”
प्रकृतिवादी शिक्षक एवं शिक्षार्थी (Naturalistic Teacher and Student)
प्रकृतिवादी शिक्षक को शिक्षा प्रणाली का एक गौण अङ्ग मानते हैं। वे प्रकृति को ही सबसे बड़े शिक्षक के रूप में देखते हैं। प्रकृतिवादियों के अनुसार एक अध्यापक का कर्तव्य उचित वातावरण तथा ऐसी परिस्थितियों के निर्माण तक ही सीमित है, जिसमें बालक स्वयं अपने अनुभव के आधार पर ज्ञान अर्जित कर सके और शिक्षा ग्रहण कर सके। अध्यापक को बालक के ऊपर किसी भी प्रकार से अपनी विचारधारा को नहीं थोपना है और न उसे अपने दृष्टिकोण से प्रभावित ही करना है।
बालक को स्वयं ही सब करना है और अध्यापक को किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करने की स्वतन्त्रता नहीं है। रॉस ने प्रकृतिवादियों के विचारों को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “यदि शिक्षक का कोई स्थान है तो वह पर्दे के पीछे है। वह बालक के विकास का निरीक्षण करने वाला है न कि उसकी सूचनाएँ, विचार, आदर्श और इच्छाशक्ति देने वाला है या उसका चरित्र बनाने वाला है। यह बातें बालक को स्वयं ही कर लेना है, वह किसी शिक्षक की अपेक्षा यह अच्छी तरह जानता है कि उसे क्या, कब और कैसे सीखना है। उसकी शिक्षा उसकी रुचियों और प्रेरणाओं के साथ विकास है न कि उसके लिए शिक्षक के द्वारा किये गये कृत्रिम प्रयास ।’
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