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विविधता से आप क्या समझते हैं ? इसके प्रमुख प्रकार

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विविधता से आप क्या समझते हैं ? इसके प्रमुख प्रकार

विविधता से आप क्या समझते हैं ? इसकी प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए। अथवा विविधता क्या है ? इसके प्रमुख प्रकारों का वर्णन कीजिए। 

विविधता (Diversity)

भारतीय समाज विभिन्नताओं (Diversities) की भूमि है। भारत विभिन्नताओं का देश है। कश्मीर से कन्याकुमारी तथा कटक से अटक तक के विस्तृत भाग में विभिन्न प्रकार की विभिन्नताओं के दर्शन होते हैं। भारत में अनेक प्रजातियों के लोग एक साथ रहते हैं। यद्यपि उनकी संस्कृति एक-दूसरे से बहुत भिन्न है। भारत में सहस्रों जातियाँ एवं उप-जातियाँ पाई जाती है। इनमें उतार-चढ़ाव की एक प्रणाली अथवा ऊँच-नीच का एक स्तरीकरण (Stratification) पाया जाता है। देश में विभिन्न प्रकार के भाषा-भाषी लोग हैं। भारत अनेक धर्मों की जन्मस्थली है। यहाँ कोई हिन्दू है, तो कोई ईसाई, कोई बौद्ध है तो कोई सिख, कोई मुसलमान है, तो कोई पारसी, कोई जैन है तो कोई कुछ अन्य। भारत भौगोलिक दृष्टि से भी कई क्षेत्रों में विभाजित है, अतः यहाँ जलवायु सम्बन्धी विभिन्नताएँ भी काफी पाई जाती हैं। भारत में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में लोगों के खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा, आदि में भी विभिन्नता के दर्शन होते हैं।

विविधता के प्रकार (Types of Diversity)

विविधता के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित है-

(1) भाषायी विभिन्नताएँ (Language Diversities)- भारत एक बहुभाषायी देश है। भारत में प्रायः लगभग विभिन्न भाषाएँ एवं बोलियाँ पाई जाती हैं। यहाँ के प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र व उपक्षेत्र की अपनी एक भाषा या बोली है। यहाँ जितनी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनके आधार पर उन्हें निम्नलिखित चार भाषायी परिवारों में बाँटा गया है-

(i) इण्डो-आर्यन भाषा परिवार- इसमें हिन्दी, उर्दू, बंगला, सिन्ध, पंजाबी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, बिहारी, असमिया, उड़िया आदि भाषाएँ आती हैं।

(ii) द्रविड़ परिवार- इसके अन्तर्गत कन्नड़, तेलुगू, तमिल, मलयालम, गोण्डी आदि भाषाएँ आती हैं।

(iii) आस्ट्रिक भाषा परिवार- इसके अन्तर्गत संथाली, मुण्डारी, खरिया, हो, खासी, बिरहोर, कीटका, कोरकू, भूमिज, जुआंग आदि भाशाओं का समावेश होता है।

(iv) चीनी-तिब्बती परिवार- इसमें मणिपुरी, नेवाड़ी, नागा, लेपचा आदि भाषाओं का समावेश होता है। भारत के संविधान में 18 प्रमुख भाषाओं को मान्यता दी गयी है; यथा- (1) हिन्दी, (2) उर्दू, (3) संस्कृत, (4) गुजराती, (5) बंगाली, (6) कन्नड़, (7) कश्मीरी, (8) असमिया, (9) मलयालम, (10) मराठी (11) उड़िया, (12) पंजाबी, (13) सिन्धी, (14) तमिल, (15) तेलुगू, (16) मणिपुरी, (17) कोंकणी तथा (18) नेपाली। इन भाषाओं में से प्रत्येक की अपनी एक लिपि है। इनमें हिन्दी का स्थान प्रमुख है जिसे देश की लगभग 30 प्रतिशत जनता बोलती है। विभिन्न भाषाओं के बोलने वालों के मध्य परस्पर अन्तर्क्रिया होने के कारण भाषाएँ समृद्ध होती रहती हैं किन्तु इस भाषायी विभिन्नता ने भारत में भाषा की समस्या अर्थात् भाषावाद ( Languism) को जन्म दिया जिससे यहाँ एक क्षेत्र व दूसरे क्षेत्र के लोगों में पर्याप्त तनाव पाया जाता है तथा इससे राष्ट्र की एकता में बाधा पहुँचती है।

(2) सांस्कृतिक विभिन्नताएँ (Cultural Diversities)- भारत में सांस्कृतिक दृष्टि से अनेक भिन्नताएँ पाई जाती हैं। ये भिन्नताएँ वेश-भूषा, खान-पान, कला, प्रथाओं आदि क्षेत्रों में देखी जाती हैं। वेश-भूषा की दृष्टि से उत्तर एवं दक्षिण के लोगों में, ग्रामीण एवं नगरीय लोगों में, हिन्दू एवं मुसलमानों में तथा परम्परावादी एवं आधुनिक कहे जाने वाले लोगों में बहुत अन्तर है। पंजाब में सलवार एवं कुर्ता, राजस्थान में धोती-कुर्ता एवं साफा, दक्षिण में लुंगी एवं कुर्ता का विशेष प्रचलन है। इसी प्रकार स्त्रियों की वेश-भूषा में पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है। खान-पान की दृष्टि से भी विभिन्न भागों में पर्याप्त अन्तर है। पंजाब में गेहूँ, राजस्थान में ज्वार, बाजरा एवं मक्का, बंगाल में चावल एवं मछली प्रमुख भोजन है। कुछ जातियाँ एवं धार्मिक समूह शाकाहारी हैं तो कुछ मांसाहारी। वर्तमान सभ्यता में तो एक ही जाति एवं धार्मिक समूह के लोगों में खान-पान सम्बन्धी पर्याप्त अन्तर आ गये हैं। बहुत से लोग तो अब खान-पान सम्बन्धी किसी निषेध में विश्वास नहीं करते हैं। देश के विभिन्न भागों में विशिष्ट प्रकार के खाद्य पदार्थों के उत्पन्न होने से भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में खान-पान के पृथक्-पृथक् तरीके पाए जाते हैं। कला की दृष्टि से भी देश में पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है। कहीं एक कला-शैली प्रचलित है तो कहीं दूसरी। भारत के मन्दिरों, मस्जिदों, चर्चों, गुरुद्वारों, स्तूपों आदि में कला की विविधता सरलतापूर्वक देखी जा सकती है। यही बात संगीत एवं नृत्य के क्षेत्र में भी सत्य है।

(3) क्षेत्रीय विभिन्नताएँ (Regional Diversities)- भारत एक विशाल देश है जिसे अनेक क्षेत्रों तथा उपक्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है। इसके परिणामस्वरूप भारत व उसके किसी क्षेत्र में समान आधार पर सामाजिक व्यवस्था का पनपना सम्भव नहीं हो पाता है। यहाँ उत्तर एवं दक्षिण तथा पूर्व एवं पश्चिम के बीच हजारों मील का फासला है। यहाँ क्षेत्रीय विभिन्नताएँ इतनी अधिक हैं कि कहीं-कहीं कई समूह वर्तमान समय में भी आदिम व्यवस्था में कठोर एवं अभावमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं तथा कहीं-कहीं आधुनिक अवस्था में विलासितामय जीवन। कहीं-कहीं पशु-पालन एवं कृषि के माध्यम से अपनी आजीविका कमा रहे तो कहीं-कहीं बड़े-बड़े उद्योग-धन्धों की सहायता से इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत को विविधता प्रदान करने में क्षेत्रीय विभिन्नताओं का पर्याप्त योगदान है।

(4) धार्मिक विभिन्नताएँ (Religious Diversities)-j n प्राचीन काल से भारत विभिन्न धर्मों की पुण्य भूमि रहा है। संसार में कदाचित ही ऐसा कोई देश होगा जिसमें धर्मों की इतनी अधिक विभिन्नता व बहुलता पाई जाती हो। यहाँ मुख्य रूप से 6 धर्मों की प्रधानता है; यथा- (1) हिन्दू, (2) इस्लाम, (3) ईसाई, (4) सिख, (5) बौद्ध तथा (6) जैन । इनके अतिरिक्त यहाँ पर पारसी, यहूदी तथा जनजातीय धर्मों के मानने वाले लोग रहते हैं। मुख् धर्मों में भी अनेक उपधर्म व मत-मतान्तर पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ- हिन्दू धर्म में वैष्णव, शैव, शाक्त, आर्य समाज, ब्रह्म समाज आदि । इस्लाम धर्म में शिया एवं सुन्नी, ईसाई धर्म में कैथोलिक एवं प्रोटेस्टेण्ट, सिख धर्म एवं अकाली एवं गैर-अकाली, बौद्ध धर्म में हीनयान एवं महायान, जैन धर्म में श्वेताम्बर एवं दिगंबर, आदि प्रमुख सम्प्रदाय हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक सम्प्रदाय की भी कई शाखाएँ एवं उप-शाखाएँ हैं। यहाँ हिन्दू, बौद्ध, सिख एवं जैन धर्मों की जन्म स्थली भारत ही है। यहाँ इस्लाम, ईसाई, पारसी एवं यहूदी धर्म विदेशों से भारत में आये हैं।

हिन्दू एवं इस्लाम धर्म के अनुयायी उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक हैं। ईसाई धर्म के सर्वाधिक अनुयायी केरल में, सिख धर्म के पंजाब में, बौद्ध एवं जैन धर्म के महाराष्ट्र में तथा पारसी धर्म के गुम्बई में हैं। एक धर्मनिरपेक्ष देश (Secular Country) होने के कारण यहाँ सभी धर्मों के फलने-फूलने तथा प्रचार-प्रसार करने की स्वतन्त्रता है।

(5) नृजातिकीय विभिन्नताएँ (Ethnological Diversities)- नृजातिकीय का रंग एवं संस्कृति के आधार पर विश्लेषण किया जा सकता है। नृजातिकी समूह किसी समाज की जनसंख्या का वह भाग या समूह है जो कि परिवार की उत्पत्ति, भाषा, मनोरंजन, प्रथा, धर्म पद्धति के आधार पर अपने को अन्य समूहों से पृथक् समझता है। एक समान ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, प्रजाति, वेश-भूषा, खान-पान, कला सामाजिक समूह भी एक नृजातीय समूह है, जिसकी अनुभूति उस समूह तथा अन्य समूह के सदस्यों को रहती है। समाज सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक हितों की रक्षा एवं अभिव्यक्ति पाने वाले समूह को भी नृजातिकीय या सजातीय समूह कहते हैं। हमारा देश भारत एक ‘बहु-नृजातिकी’ समूहों वाला देश है। एक नृजातिकीय के लोगों में जहाँ एक ओर परस्पर प्रेम, सहयोग, सहानुभूति तथा संगठन पाया जाता है, वहाँ वे दूसरी नृजातिकी के लोगों से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए अपनी वेश-भूषा, भाषा, प्रथाओं, रीति-रिवाजों तथा उपासना पद्धति की विशेषताओं को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। इस प्रकृति को नृजातिकी केन्द्रित प्रकृति (Ethno-centrism) कहते हैं। शक्तिशाली नृजातिकी समूह दुर्बल नृजातिकी समूह का शोषण करते हैं और उसके साथ भेदभाव बरतते हैं। इससे समाज में संघर्ष, तनाव एवं असमानता उत्पन्न होती है। धर्म, भाषा तथा सांस्कृतिक विभेद सजातीय समस्या के प्रमुख कारण हैं। हमारे देश में धर्म, भाषा, सम्प्रदाय, क्षेत्रीयता की भावना के परिणामस्वरूप समय-समय पर अनेक तनाव व संघर्ष होते हैं।

(6) जनसंख्यात्मक विभिन्नताएँ (Demographic Diversities)- जनसंख्या की दृष्टि से विश्व में भारत का दूसरा स्थान तथा क्षेत्रफल की दृष्टि से सातवाँ स्थान है। संख्यात्मक एवं गुणात्मक दोनों ही दृष्टि से यहाँ की जनसंख्या में परिवर्तन होते रहे हैं। सन् 1901 में भारत की जनसंख्या केवल 23 करोड़ थी जो सन् 2001 में बढ़कर 102.7 करोड़ तक पहुँच गयी। यहाँ की जनसंख्या में स्त्री एवं पुरुषों के अनुपात में पृथक्-पृथक् क्षेत्रों में भिन्नता देखने को मिलती है। देश की कुल जनसंख्या में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों का अनुपात कम है। इस समय 1,000 पुरुषों में 927 स्त्रियाँ हैं। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 62.37 करोड़ पुरुष एवं 58.64 करोड़ स्त्रियाँ हैं। सन् 2009 के अनुसार प्रति हजार जन्म-दर (Birth-Rate) 21.5 तथा मृत्यु दर (Death-Rate) 7.3 होने का अनुमान था। जनसंख्या के घनत्व (Density of Population) की दृष्टि से भी यहाँ पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है। वर्तमान समय में देश में जनसंख्या का घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है।

(7) भौगोलिक विभिन्नताएँ (Geographical Diversities)- भौगोलिक दृष्टि से भारत को पाँच वृहत् भागों में विभाजित किया जाता है; यथा- (i) उत्तर का पर्वतीय प्रदेश, (ii) उत्तरी भाग का बड़ा मैदान, (iii) राजस्थान का मरुस्थल, (iv) दक्षिण का पठारी प्रदेश तथा (v) समुद्रतटीय मैदान। इन विभिन्न प्राकृतिक क्षेत्रों में जलवायु की दृष्टि से पर्याप्त विभिन्नता देखने को मिलती है। मैदानी प्रदेशों में ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ तापमान में परिवर्तन होता रहता है। समुद्रतटीय क्षेत्रों में वर्ष भर करीब एक-सा मौसम रहता है। जहाँ मैदानी एवं रेगिस्तानी प्रदेशों में गर्मी वर्ष में काफी समय तक चलती है, वहाँ पहाड़ी क्षेत्रों में सर्दी। कई प्रदेशों में मुश्किल से वर्ष में तीन-चार इंच वर्षा होती है तो कई प्रदेशों में वर्षा इतनी अधिक होती है कि वहाँ जीवन कठिन हो जाता है। जलवायु सम्बन्धी इस प्रकार की भिन्नता के कारण ही भारत में कई प्रकार की फसलें एवं वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं। इस भिन्नता के फलस्वरूप यहाँ के लोगों के खान-पान, रहन-सहन तथा वेश-भूषा में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। इस प्रकार भौगोलिक या जलवायु की दृष्टि से भारत में पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है।

(8) प्रजातीय विभिन्नताएँ (Racial Diversities)- स्वर्ण चिड़िया के नाम से विख्यात भारत उप-महाद्वीप प्रागैतिहासिक युग (Prehistoric Age) से ही एक उपजाऊ धनधान्य तथा सम्पन्न देश रहा है। ऐसी अनुकूल परिस्थितियाँ पाकर बहुत से धन-लोपुप आक्रामक समूह लूटपाट कर लौट गए तथा बहुत से यहीं बस गए। इस प्रकार भारत में धीरे-धीरे प्रजातियों का जमघट लग गया। इसीलिए भारत को प्रजातियों का अजायबघर (Museum of Races) व प्रजातियों का द्रविण-पात्र (Melting Pot of Races) कहा जाता है। प्रजातीय तत्त्वों के आधार पर रिजले (Risley) ने भारत में 7 प्रजातियों का अस्तित्त्व बताया है; यथा- (1) तुर्की, द्रविड़ियन, (2) मंगोलायड, (3) मंगोलो-द्रविड़ियन, (4) आर्यो-द्रविड़ियन, (5) सीको-द्रविड़ियन, (6) इण्डो-आर्यन तथा (7) तुर्की-ईरानियन। इन प्रजातियों के अस्तित्त्व के आधार पर कहा जा सकता है कि देश को विविधता प्रदान करने में प्रजातीय विभिन्नताओं का भी पर्याप्त योगदान है।

(9) जातीय विभिन्नताएँ (Caste Diversities)- वैदिक काल में भारत में ‘वर्ण व्यवस्था’ का प्रचलन था जो कि एक मुक्त व्यवस्था (Open System) थी तथा जिसके अन्तर्गत 4 वर्ण पाए जाते थे; यथा- (1) ब्राह्मण, (2) क्षत्रिय, (3) वैश्य एवं (4) शूद्र। किन्तु कालान्तर में अनेक कारणों से यह व्यवस्था जाति व्यवस्था (Caste System) में परिणित हो गयी जो एक अमुक्त अवस्था (Closed System) है तथा जिसमें 4 वर्णों के नाम 4 जातियों के नाम से पुकारा जाने लगा। धीरे-धीरे इन जातियों के अन्तर्गत अनेक उपजातियाँ बन गयीं जिनकी आज संख्या तीन हजार तक हो चुकी है। कुछ जातियाँ ऐसी भी हैं जो देश के एक क्षेत्र विशेष तक ही सीमित हैं। जैसे- परिहार एवं कुनबी गुजरात में मराठा, मदर एवं मंग महाराष्ट्र में, कामा एवं रेड्डी आन्ध्र में तथा इजावाद केरल में ही पायी जाती है। इस प्रकार सम्पूर्ण भारतीय समाज विभिन्न जातीय खण्डों में विभाजित है जो जातीय विभिन्नता का द्योतक है।

(10) जनजातीय विभिन्नताएँ (Tribe Diversities)- भारत में लगभग 560 जनजातियाँ पाई जाती हैं जिनकी सन् 2001 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या 8.43 करोड़ है। जनजातियों का रहन-सहन, खान-पान, प्रथाएँ, परम्पराएँ, नातेदारी व्यवस्था, आदि भिन्न-भिन्न हैं। कुछ जनजातियाँ अपने विकास की आदिम अवस्था में आज भी हैं तो कुछ पर्याप्त रूप से सभ्य हो चुकी हैं तथा वे आधुनिक ढंग का जीवन व्यतीत कर रही हैं। जनसंख्या की दृष्टि से मध्य प्रदेश में सबसे अधिक जनजातीय लोग निवास करते हैं, उसके बाद क्रमशः उड़ीसा, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, आन्ध्र तथा असम राज्य आते हैं। पलियान एवं कदार जनजातियाँ शिकार तथा फल-फूल एकत्रित कर अपना जीवनयापन कर रही हैं, तो नीलगिरी की पहाड़ी पर रहने वाली टोडा जनजाति एवं हिमालय की गूजर जनजाति पशु-पालन कर अपना जीवन-यापन करती हैं। उत्तर-पूर्वी तथा मध्य भारत की जनजातियाँ कृषि पर निर्भर हैं। इस प्रकार जनजातीय दृष्टि से भारत में पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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