प्रसाद जी प्रेम एवं सौन्दर्य के कवि है? विवेचना कीजिए।
प्रसाद ने सौन्दर्य की चेतना का उज्ज्वल वरदान माना है। प्रसाद सौन्दर्य प्रिय थे, मानव और प्रकृति दोनों पर उनकी दृष्टि गई है। मानव के दैहिक सन्दर्य के साथ उन्होंने भाव और कर्म सौन्दर्य का भी चित्रण किया है। वे दैहिक सौन्दर्य को मानसिक उदारता का प्रतिरूप मानते हैं “हृदय की अनुकृति वाह्य उदार, एक लम्बपी काया, उन्मुक्त ।”
श्रद्धा सर्ग में सौन्दर्य वर्णन – कामायनी में लज्जा एवं श्रद्धा दो सर्ग अपनी काव्यात्मकता के लिए प्रसिद्ध है। श्रद्धा सर्ग में श्रद्धा का सौन्दर्य चित्रण हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है। कवि ने हताश मनु के सामने श्रद्धा को जिस रूप में प्रस्तुत किया है उसके पीछे उसका दृष्टिकोण न केवल उसके अवयवों का सौन्दर्य जाल में मनु मन को उलझाना था बल्कि आन्तरिक सौन्दर्य दया, माया, ममता मधुरिम अगाध विश्वास से प्रेरणा ग्रहण करा कर उनको कर्मपथ पर चल कर आनन्द प्राप्त करना था। वह श्रद्धा का आन्तरिक सौन्दर्य एवं कर्म सौन्दर्य ही था, जिससे मनु उलझे नहीं बल्कि उलझे मनु सुलझे हैं। तभी तो प्रसाद जी ने सौन्दर्य को चेतना का उज्ज्वल वरदान माना है।
श्रद्धा का सौन्दर्य मनु में आशा का संचार करता है। जो उसके (श्रद्धा के) आन्तरिक की ओर संकेत करता है-
कौन हो तुम बसन्त के दूत, विरस पतझड़ में अति सुकुमार,
गुणों घन तिमिर में चपलता की रेख, तपन में शीतल मन्द बयार।
नखत की आशा किरण समान, हृदय के कोमल कवि की कान्त,
कल्पना की लघु लहरी दिव्य, रही मानस हलचल शान्त।
पतझड़ में बसन्त के दूत, घन तिमिर में चपला बिजली की रेखा, नक्षत्र की आशा किरण कवि के कोमल हृदय की कान्ति आदि उपमान न केवल श्रद्धा के बाह्य सौन्दर्य की ओर, बल्कि आन्तरिक सौन्दर्य की ओर संकेत करते हैं। श्रद्धा में वे आन्तरिक गुण जो हताश मनु के अन्धकाराच्छन्न मन में नक्षत्र की तरह, प्रकाश कर सके और उनके दिल की तपन को शीतल कर सकें।
(क) अप्रतिम सौन्दर्य वर्णन- निस्सन्देह इस तरह का सौन्दर्य वर्णन जो आन्तरिक सौन्दर्य को उद्घाटित कर सके, हिन्दी साहित्य में बेजोड़ है। श्रद्धा के दैहिक सौन्दर्य भाव सौन्दर्य एवं कर्म सौन्दर्य तीनों का उद्घाटन हुआ है।
1. दैहिक सौन्दर्य – इससे यह नहीं समझना चाहिए कि प्रसाद जो नारी के दैहिक सौन्दर्य वर्णन से आगे हैं। उन्होंने दैहिक सौन्दर्य का वर्णन भी रीतिकालीन चाक्षुष सौन्दर्य एवं द्विवेदीयुगीन रुप वर्णन की शैली से हटकर किया है। दैहिक सौन्दर्य चित्रण में उन्होंने अपनी अद्भुत कल्पना शक्ति का परिचय दिया है। नगण्य उपमानों एवं अप्रस्तुत विधानों के साथ-साथ काल्पनिक उपमानों का भी उन्होंने प्रयोग किया है। घिसे-पिटे उपमानों को बटोरने के वे आदी नहीं थे। उदाहरणार्थ-
और देखा वह सुन्दर दृश्य, नयन का इन्द्रजाल अभिराम,
कुसुम वैभव में लता समान, चन्द्रिका से लिपटा घनश्याम ।
2. भाव-सौन्दर्य- श्रद्धा दैहिक सौन्दर्य की व्यंजना तक कवि सीमित नहीं है। वह उसके भाव सौन्दर्य की ओर बढ़ता है। उसके वाह्य सौन्दर्य में उसके हृदय की अनुकृति ही है-
हृदय की अनुकृति वाह्य उदार एक लम्बी काया उन्मुक्त
मधु पवन क्रीड़ित ज्यों शिशु माल, सुशोभित हो सौरङ्ग संयुक्त ॥
3. कर्म-सौन्दर्य- श्रद्धा के वाह्य सौन्दर्य की ओर ही कवि की दृष्टि नहीं है। वह उसके चरित्र को भी चेत्रित करने में पूर्ण सफल रहा है। श्रद्धा मन की संकल्पनात्मक वृत्ति का बोध कराती है। प्रतीकात्मक रूप श्रद्धा भारतीय नारी की मौलिक वृत्तियों का मूर्त रूप है। वह निराश मन को कमरता होने की प्रेरणा करती है। वह दया, माया, ममता, अगाध विश्वास एवं मधुरिमा की प्रतिमूर्ति हैं-
समर्पण का भाव
समर्पण लो सेवा का सार सफल संसृति का यह पतवार,
आज से यह जीवन उत्सर्ग इसी पद- तल में विगत विकार।
(ख) सौन्दर्य वर्णन की नवीनता- प्रसाद का सौन्दर्य वर्णन सर्वथा नवीन आमलों एवं कल्पना सौन्दर्य का जाल है। प्रसाद जी नव्य उपमानों, सादृश्य विधान एवं बिम्बों के द्वारा सौन्दर्य का आकर्षण चित्र खींचने में पूर्ण सफल है। कहीं भी उन्होंने पुराने उपमानों का प्रयोग नहीं किया। आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने काल्पनिक उपमानों का भी सहारा लिया है। जैसे-
खिला हो ज्यों बिजली का फूल मेघ वन बीच……!
(ग) आन्तरिक सौन्दर्य का उद्घाटन – प्रसाद का सौन्दर्य केवल दैहिक ही नहीं, भाव सौन्दर्य और कर्म – सौन्दर्य का भी बोध कराता है। श्रद्धा का वाह्य सौन्दर्य तो उसके हृदय की अनुकृति मात्र है। श्रद्धा विश्व की करुण कामना मूर्ति है, उसमें स्पर्श का आकर्षण है, वह जड़ में भी स्पूर्ति पैदा कर सकती है। यही उसका आन्तरिक सौन्दर्य हैं-
नित्य यौवन छवि से ही दीप्त विश्व की करुण कामना मूर्ति,
स्पर्श के आकर्षण से पूर्ण, प्रकट करती ज्यों जड़ में स्पूर्ति।
(ङ) अद्भुत सदृश्य विधान – सादृश्य विधान में प्रसाद जी बेजोड़ हैं। सौन्दर्य चित्रण में प्रायः वे सादृश्य विधान का सहारा लेते हैं। ऐसे विधानों से श्रद्धा सर्ग भरा पड़ा है। नीले आवरण में झाँकता श्रद्धा का मुख और उधर परिचय के व्योम में बादलों के झीने आवरण को भेदकर दिखाई देता अरुण रविमण्डल का सादृश्य विधान बेजोड़ है।
(च) काल्पनिक उपमान — प्रसाद ने अप्रतिम सौन्दर्य की अभिव्यंजना काल्पनिक उपमानों के द्वारा भी की है। जैसे-
नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल अधरखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल मेघ वन बीच गुलाबी रंग।
(छ) बिम्बात्मकता – सौन्दर्य चित्रण में प्रसाद जी बिम्बों का सहारालेने में भी बेजोड़ है। श्रद्धा के सौन्दर्य वर्णन के प्रसंग में शरीर के अधखुले अंग को रूपायित करने के लिए कवि ने फूल का बिम्ब लिया है, पर वह फूल भी बिजली का जो मेघ वन में खिला हो । श्रद्धा मुस्कान का बिम्बपरक अंकन प्रसिद्ध है-
अरुण की एक किरन अम्लान, अधिक अलसाई हो अभिराम।
(ज) अलंकार सौन्दर्य – विशेषण विपर्यय एवं मानवीकरण अलंकार तो छायावाद की देन ही है। अलंकारों के संश्लिष्ठ प्रयोग में प्रसाद जी कुशल है। श्रद्धा के रूप में अलंकारों का प्रयोग सर्वथा संश्लिष्ट रूप में किया गया है।
(झ) कल्पना-सौन्दर्य – सम्पूर्ण श्रद्धा सर्ग कवि की कल्पना सौन्दर्य का उदाहरण है। सर्ग की नाटकीयता, संवाद, श्रद्धा का सौन्दर्य चित्रण, कवि के कल्पना प्रमाण है।
(ञ) प्रकृति सौन्दर्य – सर्ग में हिमालय का वर्णन प्रकृति चित्रण का एक अद्भुत नमूना है। हिमालय के वर्णन में उदात्त काव्यात्मकता एवं बिम्बात्मकता है। हिमालय चित्रण में यह विम्बात्मकता देखिये –
दृष्टि जब जाती हिमगिरि ओर, प्रश्न करता मन अधिक अधीर,
धारा की राह सिकुड़न भयभीत आह कैसी है? क्या है पीर?
(4) निष्कर्ष – अन्त में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सौन्दर्य वर्णन की दृष्टि में श्रद्धा सर्ग न केवल सम्पूर्ण कामायनी में, बल्कि सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
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