‘समर शेष है” कविता में व्यक्त ‘दिनकर’ के विचारों की विवेचना कीजिए।
‘समर शेष है’ कविता में दिनकर जी का मानवतावादी स्वर अपनी तेजस्विता के साथ मुखर है। उन्होंने अपनी अनेकानेक कविताओं में शोषक-पूँजीपतियों, जमींदारों एवं मजदूरों की यथार्थ स्थिति का यथातथ्य चित्रण किया है। समाज में व्याप्त भेदभाव, दीनहीन-जर्जरित किसान, उजड़े उखड़े खेत-खलिहान, आर्थिक वैषम्य, अन्याय-अत्याचार शोषण आदि को देखर दिनकर का कविहृदय करुणार्द्र तो होता ही है, उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप उनके अन्तस् में विद्रोह की आग भी भड़क उठती है। भारतवर्ष की आजादी के पहले से अपनी रचनाओं द्वारा पूरी शक्ति के साथ ब्रिटिश तानाशाही एवं साम्राज्यवाद का विरोध करने वाले ‘दिनकर’ निरन्तर क्रान्ति का आह्वान करते रहे। सन् 1947 में ‘अरुणोदय’ शीर्षक कविता लिखकर उन्होंने स्वतन्त्रता स्वाधीनता का उन्मुक्त एवं प्रसन्नभाव से स्वागत किया था। किन्तु, स्वराज्य-प्राप्ति के बाद भी दिनकर जी की मनोकामना पूरी नहीं हुई। उनकी सारी प्रसन्नता, उनका सारा उत्साह ठण्डा-मद्धिम पड़ गया। अपनी परिकल्पना और आशा के अनुरूप देश की आन्तरिक व्यवस्था एवं ‘देश-समाज-व्यक्ति’ की यथोचित प्रगति न देखकर उनकी क्रोधाग्नि भड़कती-भड़कती रही और वे अपनी उसी ओजस्वी वाणी में हुंकारते रहे। वे लोगों में व्याप्त असमानता को, भुखमरी को देखकर क्षुब्ध होते रहे और उनकी कलम व्यवस्था के विरोध-विद्रोह में बरबस अग्निज्वाल बनती रही :
‘ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो।
किसने कहा, युद्ध की वेला गई, शान्ति से बोलो।
कुंकुम लेपूँ किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों में आगे भूखा हिन्दुस्तान।
कवि की दृष्टि में पराधीनता मात्र बाहरी राष्ट्रों के आधिपत्य से ही नहीं आती, अपितु अपने देश में बेईमान-भ्रष्ट, आलसी-कामचोर राजनेता-अधिकारी-कर्मचारी भी अपने कुकृत्य-दुष्कृत्य से सामान्य जनता को दुःखी-परेशान और परवश करके देश को कमजोर और पराधीन करते हैं। देश की धड़कन से प्रेम करने वाले तथा सुख-शान्ति समता-समृद्धि चाहने वाले ‘दिनकर’ को बेईमानी, कामचोरी, घूसखोरी, जातिवाद एवं भ्रष्टाचरण परतन्त्रता के लक्षण लगते हैं।
अपनी इसी भावना के कारण दिनकर जी कभी दिल्ली से समझौता नहीं कर सके और देश में व्याप्त इस असमानता-विषमता के लिए दिल्ली से बारम्बार प्रश्न पूँछते रहे-
‘फूलों की रंगीन लहर पर ओ इतराने वालो।
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवालो !
सकल देश में हालहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रोशनी, शेष भारत में अँधियारा है।
दिनकर जी का स्पष्ट मत है कि समाज में सभी को समान रूप से निःशंक होकर जीने का अधिकार है। किन्तु उसका यह भी मत है कि इस समानता की प्राप्ति के लिए ‘समर शेष है।’ वह समर शेष है, जिसमें ‘शिखरों’ को डूबना और ‘मुकुटों’ को छिन्न-भिन्न होना है, वह समर शेष है, जिनमें ‘विषमता की काली जंजीरों को खण्ड-खण्ड’ होना है और जिससे ‘समता’ आनी है। कवि इस बात को जानता और मानता है कि यह समर बहुत कठिन है, फिर भी उस समर के लिए वह सामान्य-जन को हिम्मत देते हुए ललकारता है :
‘समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो,
पथरीली, ऊँची जमीन है तो उसको तोड़ेंगे
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर।’
दिनकर का कवि ‘जन’ को समर के लिए उकसाता-ललकारता ही नहीं, बल्कि उस समर को जीतने के लिए उत्प्रेरित कटिबद्ध भी करता है और बताता है कि इस दुनिया में जितने भी पाप हैं, उनमें ‘समर हारना’ सबसे बड़ा और घातक पाप है।
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