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भारतीय संविधान के स्रोत (Sources of the Indian Constitution)
संविधान निर्माता अनेक स्थानों से संविधान निर्माण के लिए विषय-वस्तु का संकलन करते हैं। संविधान सभा द्वारा निर्मित लिखित दस्तावेज ही संविधान नहीं होता। संविधान की विचारधारा, मान्यताएँ एवं दर्शन को कहीं न कहीं से प्रेरणा अवश्य मिलती है। संविधान निर्मित शासनतंत्र का आधार भी किसी न किसी अन्य तंत्र से स्फूर्ति ग्रहण करता है। यह बात सच है कि ब्रिटिश हूकूमत समाप्त होने के बाद 26 जनवरी, 1950 में भारत का जो नया संविधान लागू किया गया वह विभिन्न देशी-विदेशी प्रभावों से युक्त है। नवीन संवैधानिक ढाँचा ब्रिटिशकालीन शासन-व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण विरासत थी। अनेक विरासतों ने देश के नवीन संविधान निर्माण को दिशा दी थी। विदेशी संविधानों की अनेक अच्छी बातें संविधान निर्माताओं ने ग्रहण कर लीं तथा एक सुन्दरतम संवैधानिक आलेख का निर्माण किया ।
भारतीय संविधान के मुख्य स्रोत इस प्रकार हैं-
सन् 1935 का भारत सरकार अधिनियम (Government of India Act of 1935)
भारत के गणतंत्रीय संविधान पर सन् 1935 के भारत सरकार अधिनियम का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। इस अधिनियम की 200 धाराएँ उन्हीं शब्दों में या कुछ संशोधनों के साथ नये संविधान में ग्रहण कर ली गई हैं। 1935 ई. के अधिनियम से भारतीय संविधान में निम्नलिखित प्रमुख बातें ग्रहण की गयी हैं-
(1) नये संविधान के अनुच्छेद 256 में कहा गया है कि, “प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति इस प्रकार प्रयुक्त होगी, जिससे संविधान द्वारा बनाये गये कानूनों का पालन हो तथा संघ की कार्यपालिका शक्ति को इस सम्बन्ध में राज्यों को उचित निर्देश देने का अधिकार हो ।” सन् 1935 के अधिनियम का 126वाँ अनुच्छेद अथवा धारा भी इन्हीं शब्दों में थी।
(2) नये संविधान के अनुच्छेद 356 में राज्यों में संवैधानिक तंत्र से उत्पन्न संकट की व्यवस्था है जिसमें राष्ट्रपति को आपातकालीन अधिकारों का प्रयोग करने की व्यवस्था है। सन् 1935 के अधिनियम में धारा 92 भी इसी प्रकार की थी।
(3) संविधान के अनुच्छेद 353 और 362 जिनका सम्बन्ध राष्ट्रपति की आपातकालीन घोषणा से है वे सन् 1935 के अधिनियम के 102वें अनुच्छेद से मिलते हैं।
एम. पी. शर्मा के अनुसार, “देश की प्रशासनिक व्यवस्था का वर्तमान समस्त ढाँचा संविधान के अन्तर्गत ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया है। “
(4) दोनों संविधानों में और अनेक बातों में भी समानता है। दोनों ही संविधानों में संघीय शासन की स्थापना की गई। संघ सूची, राज्य और समवर्ती सूची के अन्तर्गत केन्द्र और राज्यों में शक्तियों का विभाजन किया गया। दोनों में ही केन्द्र और राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों का उल्लेख है।
सन् 1935 के अधिनियम तथा स्वतंत्र भारत के संविधान के मध्य समानताओं के सम्बन्ध में डॉ. पंजाबराव देशमुख का कथन है कि “वर्तमान संविधान आवश्यक रूप से 1935 का भारतीय अधिनियम ही है जिसमें केवल वयस्क मताधिकार को और जोड़ दिया गया है। “
परन्तु यह समझना भूल होगी कि संविधान निर्माताओं ने सन् 1935 के संविधान का पूर्णतया अनुकरण किया है। दोनों में पर्याप्त विभिन्नताएँ विद्यमान हैं। उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान में, उन सब बातों को छोड़ दिया गया जिनका सम्बन्ध निरंकुश शासन से था और जो प्रजातंत्र के शासन के विरुद्ध थीं। सन् 1935 के अधिनियम में मौलिक अधिकारों का समावेश नहीं था। भारत के संविधान में वयस्क मताधिकार के सिद्धान्त को अपनाया गया है। भारत के संविधान में न्यायपालिका पर्याप्त सशक्त है जबकि 1935 के अधिनियम में ऐसी व्यवस्था नहीं थी। भारत के संविधान ने मन्त्रिपरिषद् को शासन की वास्तविक सत्ता प्रदान की है, जबकि सन् 1935 के अधिनियम में यह व्यवस्था नहीं थी।
विश्व के अन्य संविधानों का प्रभाव (Impact of Other Constitutions of the World)
यह बात तो निर्विवाद रूप में स्वीकार करनी ही पड़ेगी कि हमारे संविधान पर विदेशी विचारधाराओं एवं शासन-विधानों की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है। ये निम्न हैं-
(1) ब्रिटिश संविधान- सर्वप्रथम ब्रिटिश संविधान ने हमारे संवैधानिक कलेवर का निर्माण किया है। हमने ब्रिटिश आदर्श की संसदीय शासन प्रणाली अपनायी है, जिसके अन्तर्गत मन्त्रिमण्डल सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है तथा राष्ट्रपति ब्रिटिश सम्राट की भाँति औपचारिक प्रधान ही है। ब्रिटिश संसद की भाँति हमारी लोकसभा देश की राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बना दी गयी है।
(2) अमेरिकी संविधान— संघात्मक शासन व्यवस्था, मौलिक अधिकारों का अध्याय, स्वतंत्र निष्पक्ष सर्वोच्च न्यायालय एवं न्यायिक पुनर्निरीक्षण का सिद्धान्त असंदिग्ध रूप से अमेरिकी संवैधानिक आदर्श पर ही अपनाये गये हैं।
(3) फ्रांसीसी संविधान- फ्रांसीसी संविधान की मिसाल पर हमारे नये स्वतंत्र लोकतंत्र को गणतंत्र बनाया गया।
(4) कनाडा का संविधान- संविधान के इस अंश का निर्माण कनाडा के संघ की प्रेरणा पर आधारित है।
(5) आस्ट्रेलिया का संविधान- समवर्ती सूची आस्ट्रेलिया के संविधान की देन कही जा सकती है। आयरलैण्ड के संविधान से ही हमारे संविधान निर्माताओं ने राज्य-नीति के निर्देशक सिद्धान्तों की प्रेरणा ली है।
(6) दक्षिण अफ्रीका का संविधान- संशोधन की प्रणाली (धारा 368) दक्षिण अफ्रीकी संविधान से ली गयी है।
(7) जर्मनी का वाइमर संविधान- राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ (धारा 352, 356 व 360) जर्मनी के वाइमर संविधान से ग्रहण की गयी हैं।
भारतीय संविधान के अन्य स्रोत (Other Sources of Indian Constitution)
(1) संविधान सभा के वाद-विवाद – भारतीय संविधान को समझने के लिए संविधान सभा की ‘डिबेट्स’ का गम्भीर पारायण अनिवार्य है। संविधान सभा के वाद-विवाद प्रतिवेदन के अध्ययन से संविधान निर्माताओं के ध्येयों एवं इच्छाओं का बोध होता है। संविधान सभा की कार्यवाही एवं वाद-विवाद काफी विस्तृत हैं और उनके सूक्ष्म अध्ययन से संविधान में प्रयुक्त शब्दावली का स्पष्ट भाव निकाला जा सकता है।
(2) संविधियाँ, अध्यादेश नियम विनियम, आदेश आदि- संविधान के मूल प्रलेख के अतिरिक्त संविधियाँ, अध्यादेश, नियम-विनियम, आदेश आदि भी हमारे संविधान के कानूनी तत्व हैं।
इन अधिनियमों में भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1959; जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1957; राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम, 1952; अस्पृश्यता दण्ड सम्बन्धी अधिनियम, 1955 प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त संसद को अपने कार्य संचालन एवं कार्य प्रणाली हेतु नियम बनाने की भी शक्ति प्राप्त है।
(3) संवैधानिक संशोधन- सन् 1950 से अब तक भारतीय संविधान में 80 से अधिक संशोधन हो चुके हैं और वे सभी भारतीय संविधान के अभिन्न स्रोत हैं। इन संवैधानिक संशोधनों से संविधान की बुनियादी धारणा और स्वरूप में अन्तर आया है। इन संविधान संशोधनों द्वारा हमारा संविधान आर्थिक और सामाजिक न्याय का महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गया है
(4) न्यायिक निर्णय– भारतीय संविधान का एक प्रमुख स्रोत वे न्यायिक निर्णय हैं जो न्यायाधीशों ने समय-समय पर दिये हैं। न्यायाधीश संवैधानिक कानून की व्याख्या करते हैं। और उनके निर्णय तब तक प्रभावी रहते हैं जब तक कि न्यायपालिका स्वयं के द्वारा इस सम्बन्ध में कोई अन्य निर्णय न दे दे।
(5) प्रथाएँ एवं अभिसमय- संविधान के अलिखित भाग के रूप में प्रथाओं, अभिसमयों या परम्पराओं का विशिष्ट महत्व होता है। यद्यपि भारतीय संविधान लिखित है। तथापि इसमें अनेक परम्पराएँ विकसित हो गयी हैं।
(6) संविधान सम्बन्धी ग्रन्थ- भारतीय संविधान का एक अन्य महत्वपूर्ण स्रोत भारतीय संविधान कानून पर लिखी गयी टीकाएँ और ग्रन्थ हैं। इन टीकाओं और ग्रन्थों में डी. डी. बसु द्वारा लिखित ‘कमेण्ट्री आन दि कॉन्स्टीट्यूशन ऑफ इण्डिया’, ग्लेडहिल की ‘दि रिपब्लिक ऑफ इण्डिया’, एलेक्जेड्रोविच की ‘कॉन्स्टीट्यूशनल डेवलपमेण्ट इन इण्डिया’, जैनिंग्स की ‘सम करेक्टरस्टिक्स ऑफ दि कॉन्स्टीट्यूशन ऑफ इण्डिया’, कौल एवं शकधर की ‘प्रेक्टिस एण्ड प्रोसीजर ऑफ पार्लियामेण्ट’ इत्यादि प्रमुख हैं।
(7) पुराने संवैधानिक कानून- हमारे संविधान पर संवैधानिक कानूनों, जैसे सन् 1858, 1892, 1919 तथा सन् 1935 का अत्यधिक प्रभाव है। संविधान में अनेक बातें इन संवैधानिक अधिनियमों से ली गयी हैं।
निष्कर्ष- भारत के नये संविधान में विश्व के विभिन्न संविधानों से जो महत्वपूर्ण बातें ग्रहण की गयी हैं, उनके कारण उसे नकलमात्र या ‘उधार का थैला’ (A bag of borrowing) कहा जाता है। विभिन्न देशों के संविधान की नकल से भारतीय संविधान में न केवल मौलिकता का अभाव है वरन् यह अस्पष्ट व जटिल भी हो गया है। इसे ‘वकीलों का स्वर्ग’ (Lawyer’s Paradise) भी कहा गया है क्योंकि इसमें इतनी जटिल धाराएँ हैं कि मुकदमेबाजी की बहुत अधिक गुंजाइश है।
यद्यपि भारत के नये संविधान के निर्माण में अनेक संविधानों की सहायता ली गई है फिर भी उपर्युक्त आलोचनाएँ तर्कसंगत व न्यायसंगत नहीं हैं। आज के युग में मौलिकता की माँग करना बेहूदगी है। अनेक संविधानों के निर्माण हो जाने से उनके उचित और सफल उपबन्धों को अपनाया ही जाता है। आज किसी भी देश के संविधान पर उसका एकाधिकार नहीं है फिर भी संविधान के निर्माताओं ने किसी संविधान की आँख मींचकर नकल नहीं की है। केवल उन्हीं उपबन्धों को दूसरे संविधान से लिया गया है जो भारतीय परिस्थितियों में सफल हो सकते हैं।
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