अध्यापक शिक्षा के दो आयामों सेवापूर्व एवं सेवारत अध्यापक शिक्षा का वर्णन कीजिए।
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अध्यापक शिक्षा के आयाम एवं सेवारत अध्यापक शिक्षा
अध्यापक शिक्षा के आयाम एवं सेवारत अध्यापक शिक्षा – वास्तव में अध्यापक शिक्षा व्यवस्था की धुरी है। शिक्षा उद्देश्यों की प्राप्ति में उसकी प्रमुख भूमिका रही है। शिक्षक समाज का वह अग्रदूत है जिसका उत्तरदायित्व है कि वह सरकारी नीतियों व सामाजिक जनमत तैयार करें। उदयोन्मुख भारतीय समाज में शिक्षक की भूमिका बदल गई है अब वह नये समाज के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने वाला अग्रदूत है। शिक्षक ही समाज में नई चेतना का शंख फूंक सकता है और समाज में व्याप्त संकीर्णताओं, अंधविश्वासों, रूढियों तथा विघटनकारी शक्तियों का निर्मूलन कर नये समाज का निर्माण कर सकता है।
शिक्षक शिक्षा जगत का महत्वपूर्ण आधार स्तम्भ होता है एक कहावत है, शिक्षक जन्मजात होते है, बनाये नहीं जाते। प्रशिक्षण में शिक्षक इस कौशल हेतु गुणात्मकता का विकास करता है। शिक्षा में गुणात्मक एवं स्तरीय विकास का उत्तरदायित्व शिक्षक के कंधों पर ही सर्वाधिक होता है।
अतः एक शिक्षक की शिक्षा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। शिक्षक के प्रशिक्षण के स्थान पर अध्यापक शिक्षा शब्द के प्रयोग के साथ ही इसे (अध्यापक शिक्षा) दो आयामों में पृथ्वकीकृत रूप में स्वीकृत किया जा चुका है, जो निम्नाकिंत है-
अध्यापक शिक्षा-
- सेवापूर्व अध्यापक शिक्षा
- सेवारत अध्यापक शिक्षा
सेवापूर्व अध्यापक शिक्षा
सेवापूर्व अध्यापक शिक्षा मात्र एक प्रारंभिक प्रक्रिया है जिसका लक्ष्य पूर्ण परिपक्व अध्यापक तैयार करना नहीं है। बल्कि एक मुक्तपुच्छ प्रारूप है जो आत्म-निर्देशित अधिगम कौशल को विकसित करता है। इसे एक शिक्षक के लिए औपचारिक तौर पर ग्रहण करना आवश्यक होता है। अध्यापक को शिक्षित प्रशिक्षित करने के लिए प्राय: अनेकानेक विषयगत ज्ञान एवं अनुभवों को व्यवहृत करना होता है। दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान, शैक्षिक तकनीकी, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास एवं संस्कृत आदि विषयों के समुचित ज्ञान के अभाव में अध्यापक शिक्षा के क्षेत्र में दक्षता की प्राप्ति में कठिनाई का आना इसकी अन्तर्विषयक प्रकृति के कारण स्वाभाविक ही है। साथ ही सेवापूर्व अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम के माध्यम से समाजोपयोगी एवं कुशल अध्यापक को तैयार करने के लिए प्रयास किया जाता है। उन्हें अनौपचारिक और वैकल्पिक विधाओं के बारें में भी जानकारी प्रदान करना अनाप्रेक्षित नहीं माना जा सकता है। एक ओर जहाँ सेवापूर्व अध्यापक शिक्षा के माध्यम से भारतीय संस्कृति और मूल्यों के प्रति सचेतनता को विकसित किया जाना जरूरी माना जाता है, वहीं दूसरी ओर भावी अध्यापक अध्यापिकाओं में शिक्षण दक्षता और प्रतिबद्धता के विकास को भी अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
सेवारत अध्यापक शिक्षा
सेवारत अध्यापक शिक्षा से तात्पर्य है अध्यापक को सेवाकाल के अन्तर्गत दिया। जाने वाला प्रशिक्षण सेवारत अध्यापक शिक्षा की व्याख्या अध्यापकों के शिक्षण पेशें में प्रवेश करने के बाद उनके निरन्तर विकास के लिये उचित अनुदेशन को सुनिश्चित करने के रूप में की जा सकती है।
अध्यापक शिक्षा स्तर
अध्यापक शिक्षा को कई स्तरों पर वर्गीकृत किया गया है जिसमें एन.टी.टी., एस.टी.सी., बी.एड. है। प्रारम्भिक स्तर को परिषद् के द्वारा प्राथमिक और उच्च प्राथमिक ( 1 से 5 तथा 6 से 8) को सम्मिलित करते हुए संरचित किया गया और इन दोनों ही स्तरों के लिए प्रस्तावित विशिष्ट उद्देश्य पाठ्यक्रम आदि को प्रारम्भिक स्तर के लिए उपयोगी माना गया। 14-15 वर्ष तक के आयु वर्ग के बच्चों को इस स्तर में रखा गया। अतः प्राथमिक स्तर के लिए निर्दिष्ट विशिष्ट उद्देश्य पाठ्यक्रम आदि के साथ माध्यमिक स्तर के संदर्भ में भी चर्चा करना अधिक उपयुक्त हो सकता है। प्रस्तावित शोध में शोधार्थी का उद्देश्य माध्यमिक स्तरीय शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम से है।
माध्यमिक स्तरीय अध्यापक शिक्षा
यह प्राथमिक का परवर्ती स्तर है प्रायः इस स्तर की अध्यापक शिक्षा के निमित्त बी.एड. की उपाधि दी जाती है इस स्तर के लिए जिन विशिष्ट उद्देश्यों का निर्धारण किया गया है वे निम्नलिखित है-
- भावी अध्यापक/अध्यापिकाओं में माध्यमिक शिक्षा की प्रकृति, उद्देश्य और दर्शन को समझने की क्षमता का विकास करना।
- छात्र मनोविज्ञान अवबोध का उनमें विकास करना।
- समाजीकरण प्रक्रिया अवबोध विकसित करना।
- मार्गदर्शन और परामर्श देने के कौशल को उनमें विकसित करना।
- शैक्षिक प्रणाली तथा कक्षाकक्ष परिस्थितियों को प्रभावित करने वाले कारक और शक्तियों से उन्हें परिचित कराना।
चयनात्मक पाठ्ययक्रम
- पूर्व विद्यालयीकरण शिक्षा
- प्रारम्भिक शिक्षा
- शैक्षिक तकनीकी
- व्यावसायिक शिक्षा
- प्रौढ शिक्षा
- अनौपचारिक शिक्षा
उच्च माध्यमिक स्तरीय अध्यापक शिक्षा – यह स्पष्ट किया गया कि चूंकि इस – स्तर पर छात्रों में शारीरिक मानसिक परिपक्वता वृद्धि है। उनमें अमूर्त चिन्तन तर्क विचार लक्ष्य निर्धारण आत्म चेतना और पहचान व्यक्तिगत चयन, साथी चेतना, संदर्भ समूह परिवर्तन के प्रति जागरूकता नैतिक विचार परम्परागत विचारों के प्रति चुनौतीपूर्ण व्यवहार आत्म प्रदर्शन आदि में विशेष रूपान्तरण होता है। अतः इस स्तर के लिए शैक्षिक और व्यावसायिक दो प्रकार के पाठ्यक्रम की उपयोगिता को व्यावहारिक माना गया।
अध्यापक शिक्षा से संबंधित विभिन्न सुझाव व नीतियाँ
विश्वविद्यालय आयोग (1948-49) के सुझाव
- प्रशिक्षण महाविद्यालयों में सुधार किया जाये।
- व्यवहारिक प्रशिक्षण पर बल दिया जाये।
- शिक्षण अभ्यास के लिए अच्छे विद्यालयों का चयन किया जाये।
- सैद्धान्तिक पाठयक्रम को लचीला बनाया जाये।
- यह स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप हो।
माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) के सुझाव –
- स्नातक व अपर स्नातक के लिए अलग अलग शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम हो ।
- एक या दो पाठ्येत्तर क्रियाओं में शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाये।
- रिफ्रेशर कोर्स, अल्पकालीन कोर्स, वर्क शॉप, कॉन्फ्रेंस आदि आयोजित हो।
शिक्षा आयोग (1964-66) के सुझाव-
- प्रशिक्षण विद्यालयों में पाठ्यक्रम तथा विषय सामग्री को संशोधित किया जाये। –
- उन्नत शिक्षण विधियों तथा मूल्याकंन विधियों का प्रयोग किया जाये।
- इन्टर्नशिप कार्यक्रम शिक्षणाभ्यास के लिए आरम्भ किये जाये।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) के सुझाव-
- अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए प्रस्ताव दिया गया।
- प्राथमिक शिक्षा में पूर्व सेवा व सेवारत प्रशिक्षण के लिए जिला शिक्षा व
- प्रशिक्षण संस्थान के रूप में पुनर्गठन पर जोर दिया गया।
- शिक्षण में गुणवत्ता सुधारार्थ सेवाकालीन प्रशिक्षण योजना पर बल दिया गया।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 का कार्यान्वयन
- प्रशिक्षण कार्यक्रम दक्षता आधारित होना चाहिए।
- सिद्धान्त व अभ्यास स्थिति मूलक हो।
- प्रशिक्षण कार्यक्रम भावनात्मक हो जिससे शिक्षण व्यवसाय के प्रति जागरूकता हो या मूल्य विकसित हो शिक्षको के भावी विकास के लिए रिफ्रेशर कोर्स आयोजित किये जाये।
शिक्षा नीति 1986 इसके बाद 1992 में राष्ट्रीय नीति में संशोधन किये गये जिसके अनुसार बी. एड. प्रशिक्षण कार्यक्रम में माध्यमिक, प्रारम्भिक तथा नर्सरी स्तर पर प्रशिक्षण हेतु विशेषज्ञता प्राप्त करने का प्रावधान होना चाहिए।
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