अध्यापक शिक्षा में गुणवत्ता पर लेख लिखिये।
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अध्यापक शिक्षा की गुणवत्ता का प्रबन्धन
अध्यापक शिक्षा की गुणवत्ता के प्रबन्धन के प्रत्यय को समझने के लिये कुछ बुनियादी प्रश्नों को उठाया गया है। समस्त शिक्षा की गुणवत्ता के प्रबन्धन के लिये मुख्योपाध्याय ने इन्हीं प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास किया।
1. अध्यापक शिक्षा की गुणवत्ता का क्या अर्थ है।
- (अ) शैक्षिकता का वर्गीकरण
- (ब) ज्ञान सूचनायें तथा शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने में वास्तविकता
2. अध्यापक शिक्षा गुणवत्ता की क्यों आवश्यकता है?
- (अ) अध्यापक शिक्षा के प्रबन्धन में निहित कारणों को ज्ञात करना ।
- (ब) अध्यापक शिक्षा के पक्षों का अवलोकन करना
3. अध्यापक शिक्षा की गुणवत्ता प्रबन्धन में कौन-कौन सी बाधायें हैं?
- (अ) अध्यापक शिक्षा संस्थाओं का वातावरण
- (ब) अध्यापक शिक्षा संस्थाओं का लक्ष्य
- (स) अध्यापक शिक्षा सम्बन्धी कार्यक्रम तथा नीतियाँ
4. अध्यापक शिक्षा प्रबन्धन में गुणवत्ता को कैसे ला सकते हैं?
- (अ) नियोजन करके प्रक्रिया के प्रारूप को विकसित करना।
- (ब) प्रक्रियाओं के प्रारूप का क्रियान्वयन करना, लागू करना।
- (स) कार्यक्रमों की प्रभावशीलता (निष्पादन) का मूल्यांकन करना।
5. अध्यापक शिक्षा प्रबन्धन में गुणवत्ता की भविष्य में कोई आशा प्रतीत होती है?
- (अ) प्रध्यापकों की भूमिका एवं चिन्तन
- (ब) संस्थाओं की कार्य क्षमता
- (स) उपरोक्त दोनों का समन्वय
अध्यापक शिक्षा की गुणवत्ता हेतु सुझाव
अध्यापक शिक्षा का पाठ्यक्रम सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक दोनों ही प्रकार का है, जिनका सम्बन्ध कक्षा- शिक्षण से है। कक्षा शिक्षण की गुणवत्ता से ही अध्यापक शिक्षा में गुणवत्ता लाई जा सकती है। इन व्यावहारिक सुझावों को सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक दोनों रूपों में दिया गया है।
सैद्धान्तिक सुझाव
अध्यापक शिक्षा की गुणवत्ता में सैद्धान्तिक सुझावों को निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया गया है-
1. अध्यापक-प्रध्यापक वर्षों पढ़ाता रहता है शिक्षण में सुधार हेतु छात्राध्यापकों को सुझाव देता रहता है, परन्तु कक्षा- शिक्षण की प्रक्रिया पर अपने अनुभव के आधार पर चिन्तन नहीं करता है। यदि अध्यापक-प्रध्यापक कक्षा– शिक्षण के प्रति संवेदनशील हो और उस पर चिन्तन करके तब उसे समस्यायें और शिक्षण की कठिनाइयों की अनुभूति होने लगेगी और उनका समाधान भी कर सकेगा। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् के सुझावों की आवश्यकता नहीं होगी।
2. अध्यापक-प्रध्यापक विचार गोष्ठियों, सम्मेलनों, तथा अभिविन्यास पाठ्यक्रमों में भाग लेते रहते हैं, जिनमें गुणवत्ता की चर्चा की जाती है, परन्तु सभी चर्चा कक्षा शिक्षण से बाहर तक ही सीमित रहती है। इन गोष्ठियों में प्रध्यापक सुनते रहते हैं उन्हें अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति का अवसर नहीं दिया जाता है। विषय विशेषज्ञ ही अपनी प्रस्तुतीकरण करते रहते हैं। जिस प्रकरण पर चर्चा होनी है पहले प्रध्यापकों को अवसर दिया जाये, तत्पश्चात् विषय विशेषज्ञों को उनकी शंकाओं एवं प्रश्नों का उत्तर देकर प्रकरण पर चर्चा को आगे बढ़ाना चाहिए।
अध्यापक शिक्षा की गुणवत्ता ऊपर से नहीं लाई जा सकती है। गुणवत्ता को लाने का मूल आधार कक्षा- शिक्षण है। प्राध्यापक ही ला सकता है जिसका शिक्षण से सीधा सम्बन्ध हो ।
3. अध्यापक शिक्षा में ‘अधिगम’ तथा ‘छात्र’ पर अधिक चर्चा की जाती है, जबकि शिक्षण के दोनों आश्रित पक्ष है। अधिगम शिक्षण का परिणाम है। अधिगम शिक्षण पर आधारित होता है। छात्र का विकास एवं सुधार अध्यापक द्वारा किया जाता है। इसलिये अध्यापक शिक्षा के पाठ्यक्रम में अध्यापक, शिक्षण, अनुदेशन तथा प्रशिक्षण का अधिक महत्व दिया जाये। छात्रध्यापकों को इन प्रत्ययों का सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक ज्ञान दिया जाना चाहिए। अधिगम से शिक्षण में गुणवत्ता नहीं लाई जा सकती है।
4. अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम में उन्हीं पाठ्यक्रमों को सम्मिलित किया जाये, जिनका कक्षा-शिक्षण से सीधा सम्बन्ध हो और सेवाकाल में उनका उपयोग भी हो।
व्यावहारिक सुझाव
अध्यापक शिक्षा की गुणवत्ता में व्यवहारिक सुझावों को निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया गया है-
1. गुणवत्ता के सन्दर्भ में सैद्धान्तिक सुझावों की भी व्यावहारिकता होनी चाहिए। अध्यापक शिक्षा में गुणवत्ता के लिये कार्यक्रमों में सुधार अनुभवों तथा परिस्थितियों के आधार पर करना होगा। अध्यापक-प्रध्यापक को अपनी परिस्थिति के अनुरूप ही परिवर्तन तथा सुधार करना होगा जो उसके अधिकार क्षेत्र में है और उसके चिन्तन पर आधारित है। अनेक प्रकार के सुधार किये जा सकते हैं, परन्तु अधिकांश उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं हैं। जैसे छात्र- शिक्षण के अभ्यास हेतु एक आदर्श विद्यालय होना चाहिए। कुछ संस्थाओं में यह सुविधा उपलब्ध है। परन्तु जिन संस्थाओं में नहीं है यह प्रध्यापक के अधिकार क्षेत्र में नहीं हैं। इसलिये प्रध्यापक को यह कहना है कि छात्र शिक्षण को प्रभावशाली बनाने की परिस्थिति ही नहीं है। अपनी परिस्थितियों में ही छात्र शिक्षण को प्रभावशाली बनाने का प्रयास करना होगा। अनुकरणीय प्रशिक्षण का अभ्यास नियमित रूप से करना चाहिए और विषय प्रध्यापक का कक्षा में उपस्थित रहकर सुझाव देना तथा स्वयं प्रदर्शन भी करना चाहिए। यदि प्रध्यापक चाहेगा तब अपनी समस्या का समाधान कर लेगा।
2. अध्यापक शिक्षा में जिन अभ्यार्थियों को प्रवेश दिया जाता है। उसके लिये राज्य सरकार का आदेश तथा राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् के मानकों का अनुसरण किया जाता है। उनका आधार शैक्षिक कम है राजनैतिक अधिक है इसलिये उसको वैधता नहीं है। परन्तु जिन अभ्यार्थियों का आंबटन महाविद्यालय में किया गया इन्ही को प्रभावशाली ढंग से प्रशिक्षण देना है।
कोठारी आयोग के अनुसार
भारत के भविष्य को कक्षाओं में निर्मित किया जा रहा है। अब हम यह समझते हैं कि यह केवल प्रभावशाली व्याख्यान नहीं है। आज का संसार जोकि विज्ञान तथा तकनीक पर आधरित है यहाँ केवल शिक्षा ही लोगों में उन्नति तथा कल्याण के लिये कार्य कर सकती है। “ शिक्षा के स्तर को जो बातें प्रभावित करती हैं तथा इसका जो योगदान राष्ट्र के विकास में है, उसमें सबसे महत्वपूर्ण बात शिक्षक के गुण योग्यता तथा चरित्र है। भारत में माध्यमिक शिक्षकों की शिक्षा एक शतक से भी अधिक पुरानी है। इस काल में शिक्षा के विचार में स्वाभाविक रूप में अधिक परिवर्तन आया है। अगर हम आरम्भ के प्रयासों को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि पहले की शिक्षा का क्षेत्र सीमित था तथा कक्षा प्रबन्धन, श्यामपट कार्य जैसी पद्धति से चलता था। वर्तमान शताब्दी विशेषकर स्वतन्त्रता के बाद अध्यापकों की शिक्षा में अधिक परिवर्तन आया है। हमारे कार्यक्रमों में शिक्षा मनोविज्ञान का अब पूर्ण प्रभाव है। शिक्षक के कार्य कक्षा के अन्दर तथा कक्षा के बाहर सभी पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। द्वितीय शिक्षा के प्रसार तथा बच्चों की चिन्ता के कारण गुणात्मक सुधार जरूरी हो गया है। भारत में जनता के होने के कारण शिक्षकों की तैयारी में नये आयाम जुड़ गये हैं। हम बहुभाषीय तथा बहुधर्मी समाज में रहते हैं। इस विद्यालयों में धर्म को शिक्षा से दूर रखना अनिवार्य हो जाता है और किसी भी अवस्था में सभी बच्चों के लिये धार्मिक शिक्षा को अनिवार्य न किया जाय। दूसरी ओर जनता के इस संकीर्ण मानसिकता से लड़ते हुये हमें राष्ट्रीय शक्तियों को बलशाली बनाना होगा, जिससे कि हम एक धर्मनिरपेक्ष जनतन्त्र का निमार्ण कर सकें, जिसमें व्यक्ति का गुण ही उसके प्रगति एंव विकास का आधार बन सके।
इन कारणों से अध्यापक शिक्षण कार्यक्रम को सुदृढ़ करना आवश्यक हो जाता है विशेषकर दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र तथा शिक्षा की समस्याओं के क्षेत्र में ।
अनेक संस्थायें अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम को पूर्ण करने में लगी हैं। भारतीय अध्यापक शिक्षा संघ, इसकी मूल संस्थायें तथा प्रमुख विश्वविद्यालय इस क्षेत्र में मुख्य रूप से काम कर रहें हैं। शिक्षा आयोग की कार्यसमिति भी इस काम में लगी हुई है। फिर भी अधिकांशत का यह मानना है कि यह कार्यक्रम अपना कार्य पूरी तरह से नहीं कर पा रहा है। इसलिये राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एंव प्रशिक्षण परिषद् के अध्यापक- शिक्षा संघ ने विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों के साथ मिलकर इस कार्य को करने के कोशिश की है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एंव प्रशिक्षण परिषद् का यह विश्वास है कि यह उचित समय है जबकि विश्वविद्यालयों तथा प्रशिक्षण महाविद्यालय के कार्यक्रम शोध द्वारा एकत्रित तथ्यों पर नहीं गया है तथा इसका समाधान भी स्पष्ट नहीं है। अध्यापक शिक्षा के चयन प्रक्रिया और मूल्यांकन के सभी तथ्यों को सुधारा जाय।
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