अनुसूचित जातियाँ क्या हैं ? इनकी असमानता के क्या कारण हैं ? इनकी असमानता को दूर करने के उपायों का वर्णन कीजिए।
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अनुसूचित जातियाँ ( Scheduled Castes)
‘अनुसूचित जाति’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सन् 1935 में साइमन कमीशन द्वारा किया गया था। इस शब्द का प्रयोग अस्पृश्य लोगों के लिए किया गया। अम्बेडकर के अनुसार प्राचीन भारत में इन्हें ‘भग्न पुरुष’ (Broken Men) या ‘बाह्य जाति’ (Out Castes) माना जाता था। अंग्रेजों द्वारा उन्हें दलित वर्ग (Depressed Class) कहा जाता था। सन् 1931 की जनगणना में उन्हें ‘बाहरी जाति’ (Exterior Caste) के रूप में सम्बोधित किया गया। महात्मा गांधी ने उन्हें ‘हरिजन’ के नाम से पुकारा स्पष्ट है कि ब्रिटिश काल में अछूतों या अस्पृश्यों को दलित वर्ग (Depressed Class) के नाम से पुकारा गया। अस्पृश्य जातियों के नामकरण के सम्बन्ध में शुरू से काफी विवाद बना रहा है। इन्हें अछूत, दलित, बाहरी जातियाँ, हरिजन एवं अनुसूचित जाति आदि नामों से सम्बोधित किया जाता रहा है। इनकी आर्थिक स्थिति के अत्यन्त दयनीय होने के कारण इनके लिये ‘अछूत’ शब्द के स्थान पर दलित वर्ग शब्द का प्रयोग किया गया। आर्य समाज की मान्यता थी कि यह वर्ग अछूत न होकर दलित है, क्योंकि समाज ने इन्हें दबाकर और सब प्रकार के अधिकारों से वंचित रखा है। इनकी निम्न दशा के लिए ये स्वयं उत्तरदायी नहीं हैं, वरन् समाज उत्तरदायी है। सन् 1931 जनगणना के पूर्व तक इनके लिये ‘दलित’ शब्द का ही प्रयोग किया जाता था। इस जनगणना अधीक्षक ने ‘दलित’ शब्द के स्थान पर ‘बाहरी जातियाँ’ शब्द का प्रयोग किया। इस शब्द के प्रयोग का कारण यह था कि इन जातियों का भारतीय सामाजिक संरचना में कोई स्थान नहीं था। सन् 1935 के विधान में इन लोगों को कुछ विशेष सुविधाएँ प्रदान करने की दृष्टि से एक अनुसूची तैयार की गई जिसमें विभिन्न अस्पृश्य जातियों को सम्मिलित किया गया। इस अनुसूची के आधार पर वैधानिक दृष्टिकोण से इन जातियों के लिए ‘अनुसूचित जाति’ शब्द प्रयोग किया। इनके लिये तैयार की गई सूची में जिन अस्पृश्य जातियों को रखा गया, उन्हें अनुसूचित जातियाँ कहा गया है इन्हीं • लोगों को ‘दलित’ माना जाता रहा है। अनुसूचित जातियों की सूची में कुछ प्रमुख जातियाँ निम्नलिखित हैं – चुहड़ा, भंगी, चमार, डोम, पासी, रैगर, मोची, राजबंसी, दोसड़, शानन, धियान, पेरेयाँ तथा कोरी ।
अनुसूचित जातियों की असमानता के कारण (Causes of Scheduled Caste Inequality)
भारत में अनुसूचित जातियों की प्रमुख समस्या यह है कि इनको प्राचीन काल से ही अस्पृश्य माना गया है। अस्पृश्य माने जाने के कारण समाज के विभिन्न क्षेत्रों में इन्हें मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया तथा इनके ऊपर अनेक प्रकार की निर्योग्यतायें लादी गईं। अतः इनकी सभी समस्याएँ अस्पृश्यता की समस्या से जुड़ी हैं। संक्षेप में दलितों (अनुसूचित जातियों) की प्रमुख समस्याएँ या निर्योग्यताएँ निम्नलिखित हैं-
[ I ] सामाजिक निर्योग्यताएँ (Social Disabilities)-
अस्पृश्यों की सामाजिक निर्योग्यताओं का उल्लेख करते हुए श्री पाणिकर का कथन है कि “जाति प्रथा जब अपनी यौवनावस्था में थी, तब इस पंचम वर्ण की दशा कई प्रकार से दासता से भी बुरी थी। दास केवल एक व्यक्ति के ही अधीन होता था लेकिन अछूतों के परिवार पर तो गाँव भर की दॉंसता का भार होता था।” सामाजिक क्षेत्र में अस्पृश्य वर्ग की कुछ प्रमुख समस्याएँ इस प्रकार हैं-
1. सामाजिक सम्पर्क पर प्रतिबन्ध- अस्पृश्य जातियों को न केवल समाज में निम्नतम स्थिति प्राप्त होती है बल्कि उस पर वे सभी नियन्त्रण लगा दिये गये जिससे वे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से सवणों से किसी भी प्रकार का सम्पर्क स्थापित न कर सकें। अछूतों की छाया को भी अपवित्र मान लिया गया और सार्वजनिक स्थानों तथा मार्गों का उपयोग करने से उन्हें वंचित कर दिया गया।
2. सार्वजनिक वस्तुओं के उपयोग की निर्योग्यता- अछूतों को ऐसी सभी वस्तुओं का . उपयोग करने से वंचित रखा गया है जिनका उपयोग सवर्णों द्वारा किया जाता है। उन्हें पीतल तथा कांसे के बर्तनों सोने के आभूषणों और रेशम के वस्त्रों तक का उपयोग करने से वंचित कर दिया गया। अछूतों के लिए बाल बनवाने अथवा सफेद कपड़े पहनने पर भी प्रतिबन्ध लगा दिए गये जिससे सवर्ण जातियों की सेवा वाले नाई, धोबी उनके सम्पर्क से बचे रहें।
3. आवास सम्बन्धी प्रतिबन्ध- मनुस्मृति में यह व्यवस्था दी गयी कि “चाण्डालों और में श्वपाकों का निवास स्थान गाँव के बाहर होगा, वे अपवित्र होंगे और कुत्ते व खच्चर ही उनका धन होगा।” इसी भावना के अनुरूप अछूतों के लिए मुख्य बस्ती से दूर किसी निर्जन स्थान पर रहने तथा दिन में सार्वजनिक सड़कों तक न आने के निर्देश दिए गये। मैक्स और ट्रावनकोर में इस निर्योग्यता का कटुतम रूप विद्यमान रहा है।
4. अछूतों के अन्दर भी संस्तरण- अछूतों की सबसे बड़ी समस्या तो यह थी कि सभी अछूतों को भी समान सामाजिक स्तर प्राप्त नहीं था। पाणिक्कर का कथन है कि “विचित्र बात यह है कि स्वयं अछूतों के भीतर ही एक पृथक जाति के समान संगठन था। सवर्ण हिन्दू के समान उनमें भी बहुत उच्च और निम्न स्थिति उपजातियों का संस्तरण था जो एक-दूसरे से श्रेष्ठ होने का दावा करती थी।” इस प्रकार स्पष्ट होता है कि एक पृथक समुदाय के रूप में अछूत वर्ग पर कठोर सामाजिक निर्योग्यतायें लाद दी गयी थीं।
[II] आर्थिक निर्योग्यताएँ (Economic Disabilities)
अस्पृश्य जातियों की आर्थिक स्थिति को इतना दयनीय बना दिया गया कि कठिन परिश्रम के पश्चात् भी उन्हें सवर्ण जाति के लोगों के पुराने वस्त्रों, जूटे अन्न और त्याज्य सामग्री पर ही निर्भर रहना पड़ता था। उन्हें चिकित्सा आदि सुविधाओं से भी वंचित रखा गया। अछूतों आर्थिक निर्योग्यतायें निम्नांकित क्षेत्रों में स्पष्ट की जा सकती हैं-
1. व्यावसायिक निर्योग्यताएँ अछूतों के लिए केवल वे व्यवसाय ही छोड़ दिये गये जो निकृष्टतम और सभी के द्वारा त्याज्य थे। इतना ही नहीं, धार्मिक रूप से उन्हें यह विश्वास दिलाया गया कि जो अछूत अपने परम्परागत व्यवसाय को छोड़कर अन्य कोई कार्य करेगा, उसे आगामी जन्म में इससे भी निम्न योनि प्राप्त होगी। इसी विश्वास ने अछूतों की आर्थिक स्थिति को निम्न बनाये रखा।
2. सम्पत्ति सम्बन्धी निर्योग्यताएँ- अछूतों को धन-संचय और भूमि अधिकार से पूर्णतया वंचित कर दिया गया। मनुस्मृति में यह व्यवस्था की गयी कि “अस्पृश्य व्यक्ति को धन का संचय कदापि नहीं करना चाहिए, चाहे वह ऐसा करने में समर्थ ही क्यों न हो, क्योंकि धन संचित करके रखने वाला शुद्र ब्राह्मणों को पीड़ा पहुंचाता है।” इस आधार पर अछूतों का कार्य एक दास के रूप में अपने स्वामी की सेवा करना हो गया, इसके बदले में चाहे उसे कितना ही कम प्रतिफल क्यों न दिया जाय। आचार्य विनोबा भावे अछूतों की इस सम्पत्ति सम्बन्धी निर्योग्यता से इतने द्रवित हो उठे थे कि वे तेलंगाना में भूमिहीन अछूतों की समस्या का समाधान करने के लिए ही अपने ‘भूदान’ आन्दोलन आरम्भ किया।
3. आर्थिक शोषण-अस्पृश्यों की आर्थिक निर्योग्यता का इससे अधिक विषम रूप और क्या हो सकता है कि उनके द्वारा की जाने वाली सबसे महत्त्वपूर्ण सेवाओं के बदले उनको मिलने वाला प्रतिफल इतना विषम रूप सम्भवतः कभी भी देखने को नहीं मिलेगा। लज्जाजनक बात तो यह है कि हममें से आज भी कुछ व्यक्ति इस व्यवस्था को दैविक और अलौकिक मानकर ईश्वरीय महानता का अपमान करते हैं।
[III ] धार्मिक निर्योग्यताएँ (Religious Disabilities)
अस्पृश्यता का सम्बन्ध अपवित्रता की धारणा से जोड़कर अछूतों के लिए सभी प्रकार के धार्मिक आचरण वर्जित कर दिये गये थे। अछूतों की कुछ प्रमुख धार्मिक निर्योग्यतायें इस प्रकार हैं-
1. मन्दिरों में प्रवेश पर प्रतिबन्ध- अछूतों पर मन्दिरों और पवित्र स्थानों में जाने और स्वयं अपने ही घर में देवी-देवताओं का पूजन करने पर कठोर प्रतिबन्ध लगाये गये हैं। इतना ही नहीं अछूतों के लिए स्वयं भी पवित्र धर्मग्रन्थों का सुनना अथवा किसी पवित्र विधान का पालन करना वर्जित कर दिया गया। उन्हें सार्वजनिक श्मशान घाट में अपने सम्बन्धियों के शव जलाने की भी अनुमति नहीं दी गयी।
2. धार्मिक सुविधाओं पर प्रतिबन्ध- अछूतों को धार्मिक जीवन से अलग रखने के लिए न केवल अछूतों पर उपर्युक्त प्रतिबन्ध लगाये गये बल्कि अन्य नये वर्णों को भी ऐसे निर्देश दिए गये जिससे वे अस्पृश्य व्यक्तियों को कोई धार्मिक सुविधा न दे सके। मनुस्मृति में यह व्यवस्था थी कि, “अछूत को न देवताओं का प्रसाद मिले, न उनके सामने पवित्र विधान की व्याख्या की जाये और न ही उस पर तपस्या करने या प्रायश्चित करने का भार डाला जाये।”
3. धार्मिक संस्कारों से वंचित- धर्मशास्त्रों में जिन 16 प्रमुख संस्कारों की चर्चा की गयी है अछूतो को उन संस्कारों को पूरा करने से भी वंचित रखा गया है। संस्कार के वास्तव में शुद्धीकरण की प्रक्रिया से है। इसलिए यह विश्वास किया गया कि अस्पृश्य जातियाँ क्योंकि जन्म से ही अपवित्र है, इस कारण उन्हें शुद्ध करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इसी आधार पर अस्पृश्यों को विद्यारम्भ, उपनयन तथा चूडाकर्म जैसे प्रमुख संस्कारों से वंचित कर दिया गया।
[IV ] राजनीतिक निर्योग्यताएँ (Political Disabilities)
राजनीतिक क्षेत्र में अस्पृश्यों को समस्त अधिकारों से वंचित रखा गया। इसका कारण वे हिन्दू स्मृतियों तथा धर्मशास्त्र हैं जिन्होंने निर्भयतापूर्वक अछूत कही जाने वाली जातियों को इस अधिकार से वंचित कर दिया। इससे अधिक विभेदकारी नीति और क्या हो सकती है कि न्याय के लिए मनुस्मृति में जहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य के लिए क्रमशः सत्य, शास्त्र एवं गऊ के नाम पर शपथ लेने का विधान रखा गया वहीं अछूतों के लिए न्याय देने के पूर्व ही केवल शपथ के रूप में आठ अंगुल लम्बा-चौड़ा गरम लोहा साथ में लेकर सात पग चलने का विधान रखा गया। ऐसी सभी व्यवस्थाओं के फलस्वरूप अस्पृश्य जातियों को शासन के कार्य में हस्तक्षेप करने, किसी प्रकार का सुझाव देने, सार्वजनिक सेवाओं के लिए नौकरी पाने अथवा राजनैतिक सुरक्षा पाने का अधिकार नहीं दिया गया। दण्ड नीति राजनीति का प्रमुख अंग है। शूद्रों और अछूतों के लिए सामान्य अपराध के लिए भी इतने कठोर दण्ड की व्यवस्था की जाती थी कि के वे कभी अपने अधिकारों की माँग करने का साहस ही नहीं कर सकते थे। मनु की व्यवस्था के आधार पर यह नियम बना दिया गया कि “निम्न वर्ण का मनुष्य (अर्थात् शूद्र अथवा अछूत) अपने जिस अंग से भी उच्च वर्णों के व्यक्ति को चोट पहुँचायेगा, वह अंग ही काट दिया जायेगा।” इस कथन से अछूतों का राजनीतिक शोषण और उनके दण्ड की कठोरता का रूप स्पष्ट हो जाता है।
अनुसूचित जातियों की असमानता दूर करने के उपाय (Measures to remove Inequality of Scheduled Castes)
अनुसूचित जातियों की असमानता दूर करने के प्रमुख उपाय निम्न हैं-
1. सुधार आन्दोलन या गैर-सरकारी प्रयास- समाज सुधारकों द्वारा प्राचीन काल से ही अस्पृश्यता निवारण के प्रयास किये जाते रहे हैं। उदाहरणार्थ, बौद्ध काल में अस्पृश्यता एवं जातीय भेदभाव मिटाने के लिए आन्दोलन प्रारम्भ हुए। स्वयं महात्मा बुद्ध ने किसी जातीय भेदभाव के बिना सबको बराबर स्थान दिया तथा आप जन्म के स्थान पर कर्म को जाति का आधार मानते थे। श्री रामानुज ने भी महात्मा बुद्ध के विचारों का समर्थन करते हुए अछूत जाति के नर-नारियों को धार्मिक स्थलों व मन्दिरों में जाने का समर्थन किया। कबीर, सेन, चैतन्य, नानक, नामदेव, तुकाराम, रैदास, आदि महात्माओं के प्रयासों द्वारा अछूत लोग त्यौहार हिन्दुओं के साथ मिलकर मनाने लगे।
2. सरकारी प्रयास- सुधार आन्दोलनों या गैर-सरकारी प्रयासों के साथ-साथ सरकार ने भी समय-समय पर इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास किये हैं। अंग्रेजी शासन ने इस दिशा में कोई विशेष प्रयास नहीं किया। कांग्रेस तथा महात्मा गांधी हरिजनों के उद्धार के लिए काफी प्रयत्नशील रहे हैं। सन् 1920 में कांग्रेस ने अस्पृश्यता निवारण को अपने प्रोग्राम का महत्त्वपूर्ण अंग बनाया और सन् 1930 में अंग्रेजी सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र में इन्हें सार्वजनिक स्कूलों में शिक्षा तथा सरकारी नौकरी के लिए विशेष प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की। सन् 1933 में हरिजनोद्धार की पूर्ण जिम्मेदारी कांग्रेस न ले ली तथा सन् 1935 में अनुसूचित जातियों को कुछ विशेष प्रकार की सुविधाएँ दीं।
3. अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम 1955 द्वारा- भारतीय सरकार ने अस्पृश्यता निवारण के लिए संवैधानिक अनुच्छेदों में विविध प्रावधानों के साथ-साथ सन् 1955 में एक अधिनियम पास किया, जो कि 1 जून, 1955 को सारे देश में लागू किया गया। इस कानून की 17 धाराओं द्वारा अस्पृश्यों की सभी निर्योग्तायें समाप्त कर दी गईं।
4. अन्य हरिजन कल्याण कार्य- संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों के प्रावधानों एवं अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम 1955 के अतिरिक्त राष्ट्रपति ने अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के कल्याण कार्यों की देखरेख के लिए एक आयुक्त की नियुक्ति की है। इस आयुक्त की सहायता के लिए अनेक सहायक आयुक्त भी नियुक्त किये गये हैं। इस सम्बन्ध में केन्द्रीय सरकार ने एक सलाहकार बोर्ड भी स्थापित किया है, जो सरकार को हरिजन कल्याण के बारे में सलाह देता है तथा हरिजनों के कल्याण की योजनायें बनाता है।
5. विधान-मण्डलों में प्रतिनिधित्व- संविधान के अनुसार इन लोगों की जनसंख्या के अनुपात के आधार पर लोकसभा तथा राज्यसभा एवं राज्य विधान सभाओं में इनके लिए स्थान सुरक्षित कर दिये गये हैं। पंचायती संस्थाओं में भी यह प्रावधान लागू किया गया है।
6. सरकारी नौकरियों के आरक्षण- भारतीय सरकार ने 26 जनवरी, 1950 को यह निर्णय लिया कि जिन पदों का निर्वाचन खुली प्रतियोगिता द्वारा होता है, उनमें तथा अन्य प्रकार की नियुक्तियों में अनुसूचित एवं जनजातियों के लिए सुरक्षित स्थान रखे जायें तथा आयु सीमा व शिक्षा सीमा, आदि में छूट दी जाये। इन जातियों के लिए स्थान सुरक्षित रखने से सम्बन्धित नियम कुछ राज्यों ने भी बनाये हैं। इससे इन लोगों के सामाजिक आर्थिक स्तर में निश्चित रूप से सुधार हुआ है।
7. शिक्षा सम्बन्धी सुविधाएँ- अस्पृश्यों को शिक्षा की विशेष सुविधाएँ प्रदान की गई हैं, क्योंकि ऐसा अनुमान है कि शिक्षा व उससे होने वाली आर्थिक स्थिति में उन्नति से ही अस्पृश्यता की समस्या हल करने में सहायता मिल सकती है। हरिजन विद्यार्थियों को निःशुल्क पढ़ाई, छात्रवृत्तियाँ, पुस्तकों तथा लेखन सामग्री आदि को खरीदने के लिए आर्थिक सहायता दी जाती हैं। सरकार ने देहली, जबलपुर, कानपुर तथा मद्रास में चार ऐसे केन्द्र खोले हैं, जो अनुसूचित जातियों के लोगों को सरकारी नौकरी प्राप्त करने में सहायता करते हैं।
8. तकनीकी एवं व्यावसायिक परीक्षण- इन लोगों के लिए मेडिकल, इंजीनियरिंग, तथा अन्य औद्योगिक एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्रों में कुछ स्थान सुरक्षित रखे गये हैं। भारत सरकार ने नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टीट्यूट करनाल में 20 प्रतिशत तथा दक्षिणी रीजनल स्टेशन बंगलौर में भारतीय डेयरी डिप्लोमा के लिए 8 स्थान अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के लिए सुरक्षित रखे हैं। अन्य सरकारी संस्थाओं में 17.5 प्रतिशत स्थान इन वर्गों के लिए सुरक्षित रखे गये हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने अधीन सभी मेडिकल कॉलेजों तथा संस्थाओं में 20 प्रतिशत स्थान, नई दिल्ली की स्वास्थ्य संस्थाओं में 10 प्रतिशत, लेडीहाग्डिज कॉलेज में 2 स्थान पर इन जातियों के लिए सुरक्षित रखे हैं।
9. कुटीर उद्योग- हरिजनों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए इन्हें कुटीर उद्योग खोलने के लिए भी सरकार ने प्रोत्साहन दिया। उत्तर प्रदेश एवं अनेक अन्य राज्य सरकारों ने हरिजनों को घरेलू व्यवसाय चलाने और विकसित करने के लिए अनुदान प्रदान करने की अनेक योजनायें चलाई हैं।
10. गृह निर्माण योजनायें- सरकार ने अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों को आसान किस्तों पर मकान दिलवाने तथा इनके निर्माण के लिए सहायता दी है। स्वतन्त्रता रजत जयन्ती के अवसर पर हरिजनों को ग्रामों मकान बनाने के लिए मुफ्त जमीन तथा धनराशि भी दी गई है।
अनुसूचित जनजाति का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Schedule Tribe)
मानव जीवन को हम साधारण रूप से तीन भागों में बाँट सकते हैं- आदिम या जनजातीय समुदाय, ग्रामीण समुदाय तथा नगरीय समुदाय। आदिम या जनजातीय समुदाय से हमारा आशय मानव के ऐसे समूह से होता है जो कि सभ्य कहे जाने वाले क्षेत्रों से दूर जंगलों में, पहाड़ों एवं नदियों के बीच के जंगली क्षेत्रों में निवास करते हैं तथा वे जीवन के लगभग हर क्षेत्र में पिछड़े हुए माने जाते हैं। इनकी अपनी एक विशिष्ट संस्कृति होती है तथा जो सामाजिक जीवन में कुछ सामान्य निषेधों का पालन करते हैं। डॉ० मजूमदार ने जनजाति की परिभाषा देते है, “एक जनजाति परिवारों अथवा परिवारों का संकलन है जो एक सामान्य नाम के द्वारा पहचाना जाता है, जिसके सदस्य एक सामान्य भू-भाग में रहते हैं, सामान्य भाषा बोलते हैं, हुए लिखा विवाह, व्यवसाय और आर्थिक कार्यों में कुछ निषेधों का पालन करते हैं तथा सामाजिक दायित्वों के क्षेत्र में पारस्परिक आदान-प्रदान की एक संगठित प्रणाली को विकसित करते हैं।”
“A tribe is a collection of families or a group of families bearing a common name, members of which occupy the same territory, speak the same language and observe certain taboos regarding marriage, profession or occupation and have developed a well assessed system of reciprocity and mutuality of obligation.”
गिलिन और गिलिन (Gillin and Gillin) लिखते हैं, “जनजाति का अर्थ स्थानीय आदिम समूहों के किसी भी ऐसे समूह से है जो एक सामान्य क्षेत्र में रहता है, एक सामान्य भाषा है तथा एक सामान्य संस्कृति के अन्तर्गत व्यवहार करता है।”
“Any collection of preliterate local group which occupies a common general territory, speak a common language and practices a common culture is a tribe.”
अपनी भिन्न प्राकृतिक, भौगोलिक तथा सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण जनजातियों का जीवन हमारे सभ्य समाजों के जीवन से बहुत भिन्न है। ये जनजातियाँ विभिन्न प्रजातीय समूहों की प्रतिकूल स्वरूप हैं। चूँकि जनजातीय समुदाय के मिश्रण की प्रक्रिया उतनी क्रियाशील नहीं है जितनी कि हमारे समाज में है। इसीलिए इनकी शारीरिक विशेषताओं से हमें कुछ आदिम समाजों की झलक देखने को मिलती है।
जनजातीय असमानता के प्रमुख कारण (Various Causes of Tribal Inequality)
हमारे देश में बसने वाली अगणित जनजातियाँ आज विभिन्न समस्याओं का सामना कर रही हैं। उनकी विभिन्न समस्याओं की तथा उसके समाधान की चर्चा के पूर्व इन समस्याओं के लिए उत्तरदायी कारकों का साधारण ज्ञान आवश्यक है। जनजातियों की समस्याओं के संदर्भ में हम निम्न कारणों का उल्लेख कर सकते हैं-
- दुर्गम जंगली क्षेत्रों में निवास के कारण ये समुदाय अभी भी यातायात के साधनों की पहुँच से दूर हैं और कल्याणकारी सुधार कार्यक्रमों से वंचित हैं।
- बाहरी समूहों के लोगों द्वारा इनका शोषण हो रहा है। इस सन्दर्भ में ठेकेदारों एवं महाजनों का विशेष हाथ है।
- सांस्कृतिक रूप से पिछड़े होने के कारण हम इनकी समस्याओं को ठीक से समझ नहीं पाते।
- जनजातीय क्षेत्रों में मिल कारखानों के खुलने तथा खानों आदि के पाये जाने से भी इनका शोषण हो रहा है।
- इनका आर्थिक शोषण भी इनकी अनेकानेक समस्याओं का कारण है।
- ईसाई मिशनरियों के धर्म प्रचार से इनके समाज में धर्म सम्बन्धी विभिन्न समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं।
- शासन की उदासीन नीति ने भी इनकी स्थिति को दयनीय बनाने में पर्याप्त भूमिका निभाई है।
जनजातीय असमानता दूर करने के उपाय (Measures to remove Tribal Inequality)
जनजातीय समाज हमारे देश का अभिन्न अंग हैं। जब तक हम इन्हें सभ्य, सुसंस्कृत एवं शिक्षित कर अपने समकक्ष न ले आयेंगे, हमारा सम्पूर्ण विकास कार्यक्रम अधूरा एवं अपंग रहेगा। इस संदर्भ में निम्न सुझाव दिये जा सकते हैं-
(अ) सांस्कृतिक समस्याओं के सुझाव- (1) जनजातियों के सांस्कृतिक समस्याओं के हल और नई परिस्थितियों के अनुकूलन में सहायता करनी चाहिए। (2) जहाँ इन्हें दूसरी भाषा के सीखने की सुविधायें मिलें, वहाँ अपनी भाषा से सम्बन्ध बनाये रखने की सुविधा दी जानी चाहिए। (3) ललित कलायें जनजातियों के लिए अत्यधिक उपयोगी हैं। अतएव उन्हें पुनर्जीवित कर जनजातियों के जीवन में उमंग और उल्लास का संचालन करना चाहिए।
(ब) धार्मिक समस्याओं के समाधान के सुझाव- (1) धार्मिक कठिनाइयों को दूर कर उनके पुराने धर्म में थोड़े-बहुत सुधार कर उसे उपयोगी बनाना चाहिए। (2) धर्म के आधार पर पनपने वाले भेदभाव को दूर करना चाहिए। (3) धार्मिक कट्टरता तथा अन्धविश्वासों का निराकरण करना चाहिए।
(स) आर्थिक समस्याओं के हल के सुझाव- (1) कृषि में लगे परिवारों में खेती योग्य के पर्याप्त भूमि मिले। खेती के सुधार के लिए बीज, बैल व यन्त्रों की व्यवस्था की जाये। (2) अन्य परिवारों की रोजी-रोटी की समस्या का हल किया जाये जो उचित रोजगार की व्यवस्था से ही सम्भव है। (3) धन-सम्पत्ति के उचित प्रयोग के लिए सुविधाओं की व्यवस्था की जाये। (4) औद्योगिक केन्द्रों में काम करने वाले श्रमिकों के कल्याण की व्यवस्था की जाये जिससे श्रमिकों की कुशलता बढ़ सके। (5) आर्थिक विकास की योजनाओं में घरेलू उद्योग-धंधों को प्रोत्साहन दिया जाये। उद्योग शुरू करने में सहायता व प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाये। (6) जनजातियों में स्त्री व बच्चों को भी व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाये। (7) सहयोगी समितियों का निर्माण किया जाये।
(द) सामाजिक समस्याओं के समाधान के सुझाव- (1) बाल विवाह, कन्या मूल्य की कुरीतियों को दूर किया जाये और इसके विरुद्ध जनमत तैयार किया जाये। (2) युवा गृह के प्रतन को तब तक रोका जाये जब तक इसका स्थान अन्य संगठन न ले ले। (3) जनजातियों की आर्थिक स्थिति को सुधारना चाहिए। (4) यौन शिक्षा का प्रबन्ध करना चाहिए और घृणित -रोगों के उपचार का प्रबन्ध करना चाहिए। (5) शिक्षा, आवागमन और संचार के साधनों में उत्तरोत्तर विकास करना चाहिए। (6) जनजातियों में सामुदायिक भावना को दृढ़ करना चाहिए।
(य) स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के समाधान के सुझाव – (1) जनजातियों के खान-पान में पौष्टिक तत्त्वों का समावेश होना चाहिए। (2) सफाई के नियमों से जनजातियों को परिचित कराना चाहिए। (3) चलते-फिरते चिकित्सा यूनिटों की व्यवस्था इनके क्षेत्र में होनी चाहिए। कुछ दवाइयाँ स्कूल, पंचायत घर व युवा गृहों में रखनी चाहिए। (4) जनजातीय लड़कों व लड़कियों को कम्पाउण्डर व नर्स की शिक्षा देनी चाहिए। (5) कोई भी ऐसे कार्य और परिवर्तन नहीं किये जाने चाहिए जिससे उनके जीवन व आदतों को भारी धक्का पहुँचे।
(र) राजनैतिक समस्याओं के समाधान के सुझाव – (1) जनजातीय क्षेत्रों में जो प्रशासक अधिकारी नियुक्त हों, उन्हें जनजातीय जीवन की विशेषताओं का ज्ञान होना चाहिए। (2) जनजातीय युवकों को उचित प्रशिक्षण देकर प्रशासन में नियुक्त करना चाहिए। (3) जनजातियों में राजनैतिक चेतना का प्रसार करने के लिए प्रयास करना चाहिए। (4) उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करना चाहिए। (5) राजनैतिक जीवन में अधिकाधिक सक्रिय भाग होने के लिए जनजातियों को प्रशिक्षित करना चाहिए।
(ल) शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं के सुझाव- (1) जनजातियों में शिक्षा प्रसार की गति तीव्र होनी चाहिए। इससे अनेक समस्याओं के हल में सहायता मिलेगी। (2) शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए। (3) सामान्य शिक्षा के साथ-साथ व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था भी होनी चाहिए। (4) मनोरंजन व खेल-कूद की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। (5) शिक्षित बेरोजगारों के उचित रोजगार की व्यवस्था होनी चाहिए। (6) शिक्षा ऐसी हो जिससे जनजातियाँ अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से पृथक् न हो जायें।
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