अल्पसंख्यकों से आप क्या समझते हैं? इनकी असमानताओं को दूर करने के प्रयासों का वर्णन कीजिए। अथवा अल्पसंख्यकों की असमानता सम्बन्धी क्या समस्याएँ हैं? इनके समाधान का उपाय बताइए।
Contents
भारत में अल्पसंख्यक वर्ग (Minorities in India)
भारत विभिन्न धर्मो, प्रजातियों, सम्प्रदायों तथा जनसम्प्रदायों वाला देश है। यहाँ प्राचीन काल से अनेक जातियों और धर्मोनुयायियों का आवागमन जारी रहा। भौगोलिक दृष्टि से यह एक महाद्वीप के समकक्ष है जिसमें लगभग 1000 जातियाँ और 179 भाषाई सम्प्रदाय हैं। 2011 ‘की जनगणना के अनुसार यहाँ की 1 अरब 21 करोड़ जनसंख्या हिन्दू, बौद्ध, जैन, मुस्लिम, ईसाई, पारसी, सिक्ख तथा अन्य धार्मिक सम्प्रदायों में विभाजित हैं। सबसे अधिक संख्या हिन्दू धर्म के अनुयायियों की है किन्तु वह भी शैव व वैष्णव सम्प्रदायों में विभाजित है। हिन्दुओं के बाद मुसलमानों, सिक्खों, जैन, बौद्धों तथा पारसियों का नम्बर आता भारत में अल्पसंख्यक समुदाय किसे कहा जाए, इसके लिए कोई सर्वस्वीकृत आधार नहीं है। सामान्य रूप से हम जनसंख्या के आधार पर किसी समुदाय को अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक कहते हैं। यह आवश्यक नहीं कि सभी अल्पसंख्यक समुदाय आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़े और उपेक्षित हों। हिन्दू समुदाय यद्यपि बहुसंख्यक है किन्तु उसके अधिकांश अनुयायी आर्थिक पिछड़ेपन से प्रभावित हैं। भारत में अल्पसंख्यक समुदायों में मुस्लिम, ईसाई, जैन, पारसी, सिक्ख और पिछड़े व दलित वर्ग प्रमुख हैं। अल्पसंख्यक समूहों में मुसलमानों का स्थान प्रमुख है।
मुस्लिम समुदाय की समस्याएँ
भारत में मुस्लिम समुदाय अल्पसंख्यक है जिसकी अपनी विशेष समस्याएँ हैं। कुछ प्रमुख समस्याएँ निम्न प्रकार हैं-
(1) आर्थिक पिछड़ापन- मुस्लिम समुदाय के अधिकांश सदस्य आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं। देश के बड़े औद्योगिक समूह एक विशेष अभिजात वर्ग से सम्बन्धित हैं। इस अभिजात वर्ग से मुसलमानों का सम्बन्ध नहीं है। शिक्षा के अभाव के कारण सरकारी नौकरियों में उनकी संख्या कम है।
(2) धार्मिक निर्योग्यतायें- मुसलमान समुदाय के रीति-रिवाज, प्रथायें और परम्पराएँ हिन्दुओं से भिन्न हैं। फलस्वरूप मुसलमान हिन्दू समुदाय के साथ घुल-मिल नहीं पाये। फलस्वरूप सामाजिक दूरी विद्यमान है।
(3) गतिशीलता का अभाव- भारतीय मुस्लिम समुदाय में गतिशीलता अत्यधिक कम है। प्रबल परम्परावादिता और धार्मिक कट्टरता के कारण, नवीन परिवर्तनों को अपनाया नहीं गया है। इस परम्परावादिता के कारण, मुसलमान आर्थिक पिछड़ेपन से ग्रस्त है।
(4) शिक्षा की कमी- मुस्लिम समुदाय में शिक्षा की कमी है। कट्टर धार्मिक परम्पराओं के कारण, आधुनिक शिक्षा के प्रति उपेक्षात्मक दृष्टिकोण पाया जाता है। स्वाधीनता के बाद है आधुनिकीकरण और पाश्चात्यीकरण की जो प्रक्रिया आरम्भ हुई, उससे मुस्लिम समुदाय बहुत कम प्रभावित हुआ है। इस प्रकार स्पष्ट है कि विभिन्न निर्योग्यताओं के कारण मुस्लिम समुदाय परिवर्तन की राष्ट्रीय धारा के साथ सामंजस्य नहीं कर पाया है। वे निराशावादिता और पिछड़ेपन ग्रस्त है।
ईसाई समुदाय
विश्व में ईसाई समुदाय का स्थान महत्त्वपूर्ण है और इसके अनुयायियों की संख्या सर्वाधिक है। इस धर्म का प्रारम्भ यद्यपि पश्चिमी एशिया में हुआ, परन्तु इसका सर्वाधिक विकास यूरोपीय देशों में हुआ। मुसलमानों के बाद इस समुदाय का नम्बर दूसरा है। भारत में ईसाई धर्मानुयायियों का आगमन, मुगल काल के अन्तिम चरण से आरम्भ हुआ। आरम्भ में पुर्तगाली व्यापारी कोची, कन्नौर, किलोन तथा वटीकला आदि स्थानों पर बसे। इसके बाद फ्रांसीसी तथा अंग्रेज व्यापारियों का आगमन आरम्भ हुआ। सन् 1600 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना के बाद, यूरोपीय देशों से भारतीय सम्पर्क बढ़ गया। भारत में अंग्रेज राज्य की स्थापना के बाद ईसाई मिशनरियों को धर्म प्रचार की काफी सुविधाएँ दी जाने लगीं। लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए विभिन्न प्रकार का प्रलोभन दिया जाता था। यहाँ तक कि सेना में भी अंग्रेज अधिकारी धर्म के प्रचार में विशेष दिलचस्पी लेते थे। वर्तमान भारतीय ईसाई समुदाय में मूलतः दो प्रकार की जनसंख्या है। एक तो वे लोग हैं जो मूल उद्गम की दृष्टि से यूरोपीय हैं। द्वितीय वे लोग हैं, जो मूलतः हिन्दू थे और धर्म परिवर्तन के बाद ईसाई हैं। यही कारण है कि भारतीय ईसाई समुदाय पाश्चात्य ईसाई समुदाय से भिन्न है। इसमें हिन्दू समाज के प्रमुख लक्षण विद्यमान हैं। जैसे जाति-प्रथा का पाया जाना, विवाह सम्बन्धों में जाति का ध्यान रखना, अवतारवाद व पुनर्जन्म में विश्वास रखना आदि।
ईसाई समुदाय का जीवन दर्शन पवित्र बाइबिल पर आधारित है। बाइबिल की मान्यताओं पर ही सामाजिक और धार्मिक संस्थाएँ आधारित हैं। बाइबिल में कर्म के अव्यक्त रूप पर जोर दिया गया है जो जैसा बोता है, वैसा ही फल पाता है। बाइबिल में स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य के लिए एक बार मरना और ईश्वरीय न्याय निश्चित है।
ईसाई समुदाय में सामाजिक परिवर्तन
भारतीय जीवन में जो सामाजिक परिवर्तन हुए, उनका प्रभाव ईसाई समुदाय पर भी पड़ा। यह परिवर्तन निम्न पक्षों में सबसे अधिक प्रकट हुआ है-
(1) विवाह – विवाह के प्रति मध्यकालीन ईसाई विचारधारा विरोधाभास लिये हुए थी। कैथोलिक विचारधारा के चरम विकास के दौरान जीवन की पूर्णता के लिए अविवाहित रहना आदर्श माना जाता था। सेण्टपाल के अनुसार स्त्री का स्पर्शमात्र पाप समझा जाता था केवल सन्तानोत्पत्ति के लिए विवाह की अनुमति थी। ईसाई पादरी आजीवन अविवाहित रहते थे। धीरे-धीरे इस विचारधारा में परिवर्तन हुआ। अब विवाह को एक धार्मिक संस्था के रूप में माना गया है। अब पादरी भी विवाहित जीवन व्यतीत करते हैं।
(2) सामाजिक संस्तरण- भारत में धर्म परिवर्तन से बने ईसाई लोगों की संख्या अधि क है और इनमें से अधिकांश हिन्दुओं की निम्न जातियों से बने हैं। हिन्दुओं की भाँति ईसाई समुदाय भी अनेक समूहों में विभाजित हैं। इनमें कैथोलिक, प्रोटेस्टेण्ट और प्यूरिटन तीन समूह हैं। ये समूह अनेक उपसमूहों में विभाजित हैं। जैसे आल इण्डियन, सीरियन, जेकोबाइट सीरियन, लेटिन कैथोलिक्स, मारथोमाइट सीरियन, सीरियन कैथोलिक्स आदि। इन समूहों के विवाह, खान-पान तथा संस्कारों में अनेक भिन्नतायें हैं। इन समूहों में ऊँच-नीच की भावनाएँ विद्यमान हैं। भारत में केरल प्रदेश में ईसाइयों की संख्या अधिक है। यहाँ के लोग अनेक वर्ग या समूह में विभक्त हैं, ईसाइयों के ये समूह हिन्दुओं की जाति-उपजाति की भाँति अन्तर्विवाही (Endogamous) हैं।
(3) जातीय भेदभाव- ईसाइयों में भी हिन्दुओं की भाँति जातीय भेदभाव की भावना पाई जाती है। अतः हिन्दुओं की उच्च जातियों में से जो लोग ईसाई बने, वे लोग अपने विवाह सम्बन्ध उन लोगों से नहीं करते जो हिन्दुओं को निम्न जातियों से ईसाई बने हैं। उन्हें गिरजों के उपयोग तथा बाइबिल पढ़ने के अधिकार तो प्राप्त हैं, किन्तु विवाह और खान-पान की दृष्टि से वे अनेक निर्योग्यताओं से पीड़ित हैं। इस प्रकार जाति व्यवस्था के सम्पर्क से ईसाई समाज में भी जातीय प्रतिमान मौजूद हैं। डॉ० प्रसाद के अनुसार, भारत में जातीय तथा ईसाई धर्म साथ-साथ फूले-फले हैं। बाहरी रूप से जाति व्यवस्था और ईसाई धर्म एक-दूसरे के विपरीत दिखाई पड़ते हैं तथापि भारतीय ईसाई जातीय संस्कारों के उग्र परिपालक हैं।
(4) स्त्रियों की स्थिति (Status of Women)- स्त्री को पुरुष की भाँति अधिकार प्राप्त हैं। धर्मग्रन्थ बाइबिल में स्त्रियों को पुरुषों के समान माना गया है। सच तो यह है कि ईसाई स्त्री सभी क्षेत्रों में भारत के अन्य सम्प्रदायों की स्त्रियों से आगे है और उसमें प्रगतिशीलता भी अधिक है, परिवार में स्त्री का स्थान पर्याप्त सम्मानजनक है। आर्थिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों में महिलायें पुरुषों से पीछे नहीं हैं।
सिख समुदाय
सिख समुदाय हिन्दू समुदाय की ही एक उपशाखा है जो कुछ धार्मिक विशेषताओं के कारण पृथक प्रतीत होता है। भारत में समय-समय पर अनेक सन्तों का आविर्भाव हुआ। उन्हीं में एक गुरु नानक की शिक्षाओं का अनुसरण करने वाले लोग कालान्तर में सिख कहलाये। उत्तरी भारत में इस्लाम के प्रसार से जो सामाजिक प्रतिक्रिया हुई, उसने अनेक धार्मिक आन्दोलनों को जन्म दिया सिख धर्म भी इसी का एक रूप है।
सिख सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक गुरुनानक देव (सन् 1469-1538) धर्म से हिन्दू और वर्ण से क्षत्रिय थे। ईश्वर के प्रति उनमें अगाध विश्वास था। उनके अनुसार सृजनात्मक ही ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण है। नानक ने धार्मिक आडम्बरों का विरोध किया और सच्ची भक्ति को ही मोक्ष का मार्ग बतलाया। अपनी शिक्षाओं द्वारा नानक ने सिख धर्म को नवीन स्वरूप दिया। इसके बाद गुरु अंगद, अमरदास तथा अर्जुन ने सिख धर्म के प्रसार में अत्यधिक योग दिया। सिखों में लंगर की प्रणाली का आरम्भ गुरु अमरदास काल में हुआ। गुरु अर्जुन ने नानक की शिक्षाओं का संकलन किया जिसे ‘आदि ग्रन्थ’ कहा जाता है। गुरु अर्जुन के काल में सिख धर्म की अपनी स्वतन्त्रता भाषा, शैली, रीति-रिवाज तथा सामाजिक प्रथा आदि सभी भिन्न हो गये। गुरु की सत्ता के अन्तर्गत सिख एक सामुदायिक संगठन के रूप में उभरे। इस विकास के फलस्वरूप मुगल साम्राज्य से उनका विरोध बढ़ता गया। अन्त में गुरु को फाँसी पर चढ़ा दिया गया और वे अपने धर्म के लिए बलिदान हो गये।
औरंगजेब के शासन काल में इस्लाम के साथ सिखों का विरोध अधिक उग्र हो गया। सिखों के नवें गुरु तेगबहादुर मुगलों के साथ संघर्ष में पकड़े गये और उन्होंने धर्म-परिवर्तन के बजाए मृत्यु का वरण स्वीकार किया। इसके बाद गुरु गोविन्द सिंह ने सिखों को सैनिक और शक्तिशाली समुदाय के रूप में परिवर्तित किया। खालसा की नींव रखी गई और सिखों को एक सैन्य समुदाय के रूप में विकसित किया गया। 19वीं सदी में जब ईसाई धर्म का प्रचार कार्य तेजी में था तो सिंह सभा की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य सिख धर्म की शिक्षाओं का प्रचार करना था।
वर्तमान सिख समुदाय अत्यधिक प्रगतिशील है। भारत के आर्थिक और प्राविधिक विकास “में इस समुदाय का विशेष योगदान है। धार्मिक कट्टरता के बावजूद भी देश के सांस्कृतिक विकास के साथ इस समुदाय का सक्रिय समायोजन हुआ है।
सिख समुदाय की समस्या
सिख समुदाय एक प्रगतिशील समुदाय है। राष्ट्रीय आन्दोलन से लेकर वर्तमान समय तक सिख समुदाय ने आर्थिक और औद्योगिक प्रगति के क्षेत्र में अनेक कीर्तिमान स्थापित किए हैं, किन्तु वर्तमान में सिख समुदाय की विविध समस्याएँ क्षेत्रीय विकास से सम्बन्धित हैं। क्षेत्रीय विकास के विविध पहलुओं को लेकर मूलतः असंतोष पैदा हुआ। क्षेत्रीय विकास के मुख्य मुद्दे निम्न प्रकार रहे हैं
(1) यातायात व आवागमन के साधनों के विकास में कमी- पंजाब के निवासी यह महसूस करते हैं कि 1947 तक पंजाब में जितनी रेल लाइनें थीं, उतनी ही अभी तक हैं। आवागमन का मुख्य साधन बस परिवर्तन है।
(2) बड़े उद्योगों का अभाव- आजादी के बाद सरकारी उद्योगों के क्षेत्र में जो धन लगा है उसमें पंजाब का भाग 1.2 प्रतिशत से अधिक नहीं है। इसी प्रकार पंजाब देश का 19 प्रतिशत सूत उत्पन्न करता है पर वहाँ कपड़ा बनाने की क्षमता 1.5 प्रतिशत है।
(3) पूँजी निवेश- यह भी एक असंतोष का मुद्दा है कि पंजाब के बैंकों द्वारा जो बचत होती है, उसका निवेश अन्य प्रान्तों में होता है। फलस्वरूप उनमें वंचित का भाव बोध पैदा हुआ है।
(4) पृथक पहचान का मुद्दा- हिन्दू-सिख सम्बन्ध गहन और अभिन्न है। आरम्भ में दोनों एक ही समुदाय के अंग रहे हैं किन्तु पृथकतावादी तत्त्व आम लोगों को गुमराह कर, सिखों को पृथक करने की चेष्टा करते हैं। श्रीमती जितेन्द्र कौर के अनुसार, सिखों में पहचान बनाये रखने की समस्या एक मुख्य भावात्मक मुद्दा है। चूँकि सिख और हिन्दू एक-दूसरे से अत्यधिक नजदीक हैं- रोटी-बेटी का रिश्ता है। अतः हिन्दुओं का यह कहना कि सिख धर्म हिन्दू धर्म का ही एक भाग है, बहुत से सिखों को अच्छा नहीं लगता।
अल्पसंख्यकों की समस्याओं का समाधान (Solution of the Problems of Minorities)
अल्पसंख्यकों की समस्याओं का समाधान करने हेतु मुख्य सुझाव निम्न हैं-
(1) हिन्दू-मुस्लिम एवं अन्य अल्पसंख्यकों को धार्मिक संस्थाओं को पारस्परिक विचार-विनिमय की व्यवस्था करनी चाहिए। शीर्षस्थ मुस्लिम धार्मिक नेताओं और हिन्दू धर्म के शीर्षस्थ आचार्यों और विद्वानों को एक साथ बैठकर यदा-कदा धार्मिक समन्वय के तरीकों की खोज करनी चाहिए और उनका अपने-अपने समुदायों में प्रचार करना चाहिए। सरकार की राष्ट्रीय एकता समितियाँ धार्मिक समन्वय का काम उतनी सफलता के साथ नहीं कर सकतीं। वे राजनीति से प्रारम्भ होती हैं और राजनीति से काम करती हैं। दोनों समुदायों के धर्माचार्यों की समितियाँ अधिक सफल सिद्ध हो सकती हैं।
(2) मुसलमानों, ईसाइयों आदि को यह प्रेरणा दी जानी चाहिए कि वे देश की गतिविधियों में अधिक-से-अधिक भाग लें ताकि वे धीरे-धीरे शेष समाज के साथ घुल-मिल जायें और उनमें अलगाव की भावना न रहे।
(3) धर्मनिरपेक्षता और समानता केवल आदर्श और सैद्धान्तिक प्रतिस्थापना का विषय ही न रह जाये बल्कि इनका व्यावहारिक प्रयोग आवश्यक है। केवल अल्पसंख्यक होना इस बात का अधिकार नहीं देता कि कोई व्यक्ति विशेष सुविधा प्राप्त करे या अल्पसंख्यक होने की आड़ में संकीर्णतावादी विचारों का प्रचार करे धर्मनिरपेक्षता की केवल हिन्दू के लिए नहीं मुसलमान के लिए भी आवश्यकता है; अतः समानतावादी समाज के निर्माण के लिए सक्रिय और निष्पक्ष प्रशासनिक कदम उठाये जाने चाहिए। नियुक्तियों में मुसलमानों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।
(4) मुसलमान अल्पसंख्यकों की मुख्य समस्या अशिक्षा और आर्थिक पिछड़ापन है। अनिवार्य शिक्षा का नियम मुसलमानों पर कठोरता से लागू किया जाना चाहिए। यह उचित होगा यदि कम-से-कम आठवीं कक्षा तक सभी मुसलमानों को मुफ्त शिक्षा (पुस्तकें आदि भी) दी जायें और इस बात की सतर्कता बरती जाये। वास्तव में मुसलमानों के साथ अन्य अल्पसंख्यक समूहों की शिक्षा, अर्थव्यवस्था आदि की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
- शिक्षा के स्वरूप (प्रकार) | Forms of Education in Hindi
- शिक्षाशास्त्र का अध्ययन क्षेत्र अथवा विषय-विस्तार, उपयोगिता एवं महत्त्व
- शिक्षा के विभिन्न उद्देश्य | Various Aims of Education in Hindi
- शिक्षा की विभिन्न अवधारणाएँ | Different Concepts of Education in Hindi
- शिक्षा के साधन के रूप में गृह अथवा परिवार का अर्थ, परिभाषा एंव भूमिका
- शिक्षा के अभिकरण या साधनों का अर्थ, वर्गीकरण और उनके महत्त्व
- शिक्षा का अन्य विषयों के साथ सम्बन्ध | Relation of Education with other Disciplines in Hindi
IMPORTANT LINK
- राष्ट्रीय एकीकरण (एकता) या समाकलन का अर्थ | राष्ट्रीय एकीकरण में समस्या और बाधा उत्पन्न करने वाले तत्त्व | राष्ट्रीय समाकलन (एकता) समिति द्वारा दिये गये सुझाव
- जनसंचार का अर्थ, अवधारणा एंव शैक्षिक महत्त्व
- शिक्षा व समाज का अर्थ | शिक्षा व समाज में सम्बन्ध | शिक्षा के अभिकरण के रूप में समाज की भूमिका
- विद्यालय से आप क्या समझते हैं ? शिक्षा के अभिकरण के रूप में विद्यालय की भूमिका
- घर या परिवार पहला विद्यालय | Home or Family is the First School in Hindi
- सूक्ष्म-शिक्षण का अर्थ, परिभाषा, अवधारणा, विशेषताएँ, उपयोगिता एवं महत्त्व
- बदलते सूचना/संचार के परिप्रेक्ष्य में (ICT) के स्थान | Place of ICT in the Changing Conceptions of Information
- सम्प्रेषण की प्रक्रिया क्या है ? इस प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
- शिक्षा में श्रव्य-दृश्य सामग्री से आप क्या समझते हैं ? शैक्षिक सामग्री का वर्गीकरण एंव लाभ
- जनसंचार क्या है ? शिक्षा में जनसंचार के महत्त्व
- मस्तिष्क उद्वेलन (हलचल) या विप्लव व्यूह रचना | मस्तिष्क उद्वेलन (हलचल) व्यूह रचना के सोपान एंव विशेषताएँ | मस्तिष्क हलचल व्यूह रचना की सीमाएँ एंव उपयोगिता
- शिक्षण की वाद-विवाद विधि के विषय में आप क्या जानते हैं ? इसके गुण एंव दोष
- शिक्षण की योजना विधि से आप क्या समझते हैं ? इसके गुण-दोष
- शिक्षण सूत्रों से क्या अभिप्राय है ? प्रमुख शिक्षण सूत्र
- शिक्षण प्रविधि का अर्थ एंव परिभाषाएँ | प्रमुख शिक्षण प्रविधियाँ | प्रश्न पूछने के समय रखी जाने वाली सावधानियाँ
- शिक्षण के प्रमुख सिद्धान्त | Various Theories of Teaching in Hindi
- शिक्षण की समस्या समाधान विधि | समस्या प्रस्तुत करने के नियम | समस्या हल करने के पद | समस्या समाधान विधि के दोष
Disclaimer