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आस्तिक एवं नास्तिक दर्शन से आप क्या समझते हैं ? भारतीय दार्शनिक पद्धति के रूप में इसके शैक्षिक योगदान

आस्तिक एवं नास्तिक दर्शन से आप क्या समझते हैं ? भारतीय दार्शनिक पद्धति के रूप में इसके शैक्षिक योगदान
आस्तिक एवं नास्तिक दर्शन से आप क्या समझते हैं ? भारतीय दार्शनिक पद्धति के रूप में इसके शैक्षिक योगदान

आस्तिक एवं नास्तिक दर्शन से आप क्या समझते हैं ? भारतीय दार्शनिक पद्धति के रूप में इसके शैक्षिक योगदान का वर्णन कीजिए।

भारतीय दार्शनिक सम्प्रदाय ( Indian Philosophical Sect/ School)

भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों को आस्तिक एवं नास्तिक दो वर्गों में बाँटा जा सकता है-

  1. नास्तिक सम्प्रदाय – चार्वाक्, जैन तथा बौद्ध धर्म ।
  2. आस्तिक सम्प्रदाय – न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा एवं वेदान्त ।
1. नास्तिक सम्प्रदाय

(1) चार्वाक दर्शन- चार्वाक् दर्शन को अत्यन्त प्राचीन दर्शन माना जाता । इसे लोकायत भी कहते हैं। चार्वाक् दर्शन भौतिकवादी दर्शन है। चार्वाक् वेदों का खण्डन करता है। इसलिए इसे नास्तिक दर्शक कहा जाता है। चार्वाक् दर्शन प्रत्यक्षवादी एवं सुखवादी दर्शन है। भारतीय दार्शनिकों ने जड़-जगत् को पाँच भूतों से निर्मित माना है। चार्वाक् पंचभूतों में से चार भूतों की सत्ता स्वीकार करता है। ये चार महाभूत पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु है।

(2) जैन दर्शन- जैन दर्शन में वेदों की सत्ता को स्वीकार नहीं किया जाता। जैन दर्शन में शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को मुक्ति की ओर प्रवृत्त करना है। जैन दर्शन का मूल आधार छः द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ और पंचास्तिकाय है। कर्मों से पूर्ण स्वतन्त्रता को ही जीवन का परम सुख माना गया है। इसी को जैन दर्शन में मोक्ष कहा गया है। कर्मों से मुक्ति तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कुप्रवृत्तियाँ अज्ञान के कारण सक्रिय होती हैं। ज्ञान प्राप्ति द्वारा अज्ञान का नाश किया जा सकता है। सच्चे ज्ञान को ‘सम्यक् ज्ञान’ कहा गया है। सम्यक् ज्ञान मुक्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। जैन दर्शन सम्यक् ज्ञान के साथ सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् चरित्र का विकास करने पर भी बल देता है। गुरु के प्रति श्रद्धा को ही सम्यक् दर्शन कहा जाता है। सम्यक् दर्शन का उदय तभी होता है जब अज्ञान तथा करणीय के प्रति विरक्ति होती है। इसे जैन दर्शन में ‘निर्जरा’ कहा गया है। सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् दर्शन का समाहार ‘सम्यक् चरित्र’ में अभीष्ट है। अहित कार्यों का निवारण तथा हित कार्यों का आचरण सम्यक् चरित्र कहलाता है।

(3) बौद्ध दर्शन- बौद्ध एक दर्शन है तथा धर्म भी। इसके प्रवर्तक गौतम बुद्ध हैं। महात्मा बुद्ध ने अपने ज्ञान को चार आर्य सत्यों में दिया है। चार आर्य सत्य इस प्रकार हैं- (1) दु:ख है। (2) दुःख का कारण है। (3) दुःख का अन्त है । (4) दु:ख दूर करने के उपाय हैं।

महात्मा बुद्ध ने अपने चौथे आर्य सत्य के अन्तर्गत दुःखों के निवारण के लिए अष्टांग पथ को महत्त्व दिया है। ये अष्टांग मार्ग इस प्रकार हैं-

  1. सम्यक् दृष्टि
  2. सम्यक् संकल्प
  3. सम्यक् वाक्
  4. सम्यक् कर्मान्त
  5. सम्यक् आजीविका
  6. सम्यक् व्यायाम
  7. सम्यक् स्मृति
  8. सम्यक् समाधि।

इनका अनुसरण करने से व्यक्ति पूर्ण शिक्षित, सभ्य एवं अनुशासित बनते हैं। इसे निर्वाण की अवस्था कहा गया है। बौद्ध धर्म के दो धार्मिक सम्प्रदाय हैं- प्रथम हीनयान तथा द्वितीय हीनयान ।

बौद्ध धर्म के सम्प्रदाय

बौद्ध धर्म के सम्प्रदाय

योगाचार या विज्ञानवाद के आठ रूप हैं- आलय विज्ञान, चक्षु विज्ञान, श्रेत विज्ञान, प्राण विज्ञान, रसना विज्ञान, काय विज्ञान, मनोविज्ञान, क्लिष्ट विज्ञान |

शून्यवाद या माध्यमिक दर्शन के अनुसार वस्तु में कोई धर्म स्थिर नहीं है। वस्तु की सत्ता शून्य है।

2. आस्तिक सम्प्रदाय

आस्तिक सम्प्रदाय ईश्वरवादी है। आस्तिक दर्शन छः हैं- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा एवं वेदान्त ।

(1) न्याय दर्शन- इस दर्शन के प्रतिपादक गौतम मुनि थे। सम्पूर्ण न्याय दर्शन को चार खण्डों में विभाजित किया जा सकता है

  1. प्रमाण सम्बन्धी विचार ।
  2. भौतिक जगत् सम्बन्धी विचार ।
  3. आत्मा तथा मोक्ष सम्बन्धी विचार ।
  4. ईश्वर सम्बन्धी विचार ।

न्याय दर्शन मोक्ष प्राप्ति की बात करता है। मोक्ष प्राप्त करके ही संसार के दुःखों से छुटकारा मिल सकता है। इस दर्शन के अनुसार आत्मा अमर है। न्यायसूत्रों में बताया गया है कि सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। ये सोलह पदार्थ हैं-

(i) प्रभाण, (ii) प्रमेय, (iii) संशय, (iv) प्रयोजन, (v) दृष्टान्त, (vi) अवयव, (vii) तर्क, (viii) निर्णय, (ix) वाद, (x) जल्प, (xi) वितपड़ा, (xii) हेत्वाभास, (xiii) छल, (xiv) जाति, (xv) सिद्धान्त एवं (xvi) निग्रह स्थान ।

इन पदार्थों में प्रमाण प्रथम एवं मुख्य है। प्रमाण के अधीन ही सबका तत्त्वज्ञान है। प्रमाण चार हैं- 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3. उपमान, 4. शब्द। इन चारों में अनुमान नैयायिक दृष्टि से सर्वप्रधान है, क्योंकि सब प्रमाणों का प्रमाण्य अनुमान पर ही निर्भर है।

न्याय दर्शन तर्कवादी दर्शन है। न्याय का प्राचीन नाम आन्वीक्षिकी भी था। तर्क के द्वारा किसी विषय का अनुसंधान करना ही आन्वीक्षिकी है।

(2) वैशेषिक दर्शन- वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद हैं। इस दर्शन का सर्वप्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ वैशेषिक सूत्र है। इसके अन्तर्गत दस अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय को दो खण्डों में बाँटा गया है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार वैशेषिक दर्शन बहुवादी यथार्थवाद है जो विश्व और आत्मा की विविधता पर बल देता है।

(3) सांख्य दर्शन- सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिलमुनि माने जाते हैं। इस यह ब्रह्माण्ड प्रकृति एवं पुरुष के योग से निर्मित है। पुरुष और प्रकृति दोनों ही अनादि तथा अनन्त हैं। इस दर्शन के अनुसार मनुष्य के जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। सांख्य दर्शन के कुल 25 तत्त्व हैं। सांख्य दर्शन को द्वैतवादी दर्शन भी कहते हैं।

(4) योग दर्शन- योग दर्शन के प्रणेता महर्षि पंतजलि हैं। इस दर्शन का प्रमुख ग्रन्थ ‘योगसूत्र’ है। यह चार भागों में विभक्त है, जिसमें प्रत्येक भाग को पाद कहते हैं। योग दर्शन के अनुसार सृष्टि प्रकृति एवं पुरुष के संयोग से निर्मित है।

योग का शाब्दिक अर्थ होता है- ‘समाधि’ । योग की परिभाषा देते हुए पंतजलि कहते हैं “योगश्चित्तवृत्ति निरोधः ।” (पांतजल योगसूत्र 102)

अर्थात् ‘योग’ का उद्देश्य है- आत्मा यथार्थ स्वरूप की प्राप्ति और यह चित्तवृत्ति निरोध से ही सम्भव है। योग के आठ अंग माने जाते हैं। वे हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि ।

(5) मीमांसा दर्शन- मीमांसा दर्शन में महर्षि जैमिनी का स्थान सर्वोपरि है। उनका ग्रन्थ मीमांसा सूत्र है। यह 12 अध्यायों में विभक्त है। मीमांसा दर्शन वेदों को ही प्रमाण मानता है। आस्तिक दर्शन में यह अग्रजन्य है। मीमांसा दर्शन के अनुसार ज्ञान वस्तु या विषय का प्रशंसक है।

मीमांसा दर्शन मुख्यतः वैदिक मन्त्रों और इस प्रकार यज्ञादि क्रियाओं की व्याख्या के नियमों से सम्बन्धित है। मीमांसा का शाब्दिक अर्थ है- विचारणीय विषय का युक्तियों की समीक्षा के द्वारा निर्णय। इसे कर्मकाण्ड विषयक होने के कारण कर्म मीमांसा भी कहते हैं।

(6) वेदान्त दर्शन- वेदान्त दर्शन को उत्तर-मीमांसा दर्शन भी कहते हैं। सर्वप्रथम वेदान्त का प्रयोग उपनिषद् के अर्थ में हुआ। उपनिषद् वेद के अन्तिम भाग हैं, इसलिए उनको वेदान्त कहा जाता है।

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Anjali Yadav

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