व्यावसायिक अर्थशास्त्र / BUSINESS ECONOMICS

एकाधिकार के अन्तर्गत मूल्य का निर्धारण | Price Determination under Monopoly in Hindi

एकाधिकार के अन्तर्गत मूल्य का निर्धारण | Price Determination under Monopoly in Hindi
एकाधिकार के अन्तर्गत मूल्य का निर्धारण | Price Determination under Monopoly in Hindi

एकाधिकार के अन्तर्गत मूल्य का निर्धारण (Price Determination under Monopoly)

एकाधिकार का उद्देश्य कुल एकाधिकारी आय को अधिकतम करना होता है। एकाधिकार का वस्तु की पूर्ति (Supply) पर तो पूर्ण नियन्त्रण होता है, परन्तु उसकी माँग (Demand) पर कोई नियन्त्रण नहीं होता। वस्तु की माँग के निर्धारक उपभोक्ता होते हैं। अतः एकाधिकारी पूर्ति की मात्रा को नियन्त्रित करके ही अपनी वस्तु का ऊँचा (High) मूल्य निर्धारित कर सकता है। परन्तु इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि एकाधिकारी एक ही समय पर मूल्य तथा पूर्ति दोनों को नियन्त्रित नहीं कर सकता । अतः उसके समक्ष दो विकल्प होते हैं । (i) वह वस्तु के मूल्य को निर्धारित कर सकता है अथवा (ii) वह पूर्ति को नियन्त्रित कर सकता है। प्रथम स्थिति में वस्तु की एकाधिकारी द्वारा निर्धारित कीमत पर माँग के अनुसार पूर्ति को निश्चित किया जाएगा जबकि द्वितीय स्थिति में माँग एवं पूर्ति की शक्ति के द्वारा मूल्य स्वतः निर्धारित होगा। इस प्रकार एकाधिकारी मूल्य तथा पूर्ति दोनों को एक साथ निर्धारित अथवा प्रभावित नहीं कर सकता। अतः वह सामान्यतः पहले वस्तु की कीमत को निर्धारित करता है, तत्पश्चात् पूर्ति को उसी (मूल्य) के अनुसार समायोजित करता है।

एकाधिकार के अन्तर्गत मूल्य निर्धारण के सम्बन्ध में दो रीतियाँ प्रचलित हैं— (1) भूल तथा जाँच रीति एवं ( 2 ) आधुनिक रीति । इन दोनों रीतियों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-

(1) भूल तथा जाँच रीति (Trial and Error Method)

इस रीति के अनुसार, एकाधिकारी को अपनी वस्तु के मूल्य तथा उसकी मात्रा में अनेक बार परिवर्तन करके आय की मात्राओं की तुलना करनी चाहिए एवं जिस मूल्य अथवा जिस मात्रा पर उसे अधिकतम आय की प्राप्ति हो, वही मूल्य अथवा मात्रा निर्धारित करनी चाहिए। इस रीति की सफलता के लिए एकाधिकारी को मुख्य रूप से दो बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए— (i) वस्तु की माँग की दशाएँ; (ii) वस्तु की पूर्ति की दशाएँ। वस्तु की माँग की दशाओं के अन्तर्गत यदि वस्तु की माँग अत्यधिक लोचदार है तो उसे वस्तु की नीची कीमत निर्धारित करके अधिक लाभ प्राप्त करना चाहिए, परन्तु यदि वस्तु की माँग लोचदार है तो उसे वस्तु की ऊँची कीमत निर्धारित करके अधिक लाभ प्राप्त करना चाहिए। इसी प्रकार वस्तु की पूर्ति की दशाओं के अन्तर्गत उत्पत्ति के नियमों को ध्यान में रखना चाहिए। यदि एकाधिकारी के उद्योग में क्रमागत उत्पत्ति हास नियम लागू हो रहा है तो ऐसी स्थिति में वस्तु की पूर्ति को नियन्त्रित करके वस्तु की ऊँची कीमत निर्धारित करनी चाहिए। इसी प्रकार, यदि एकाधिकारी उद्योग में क्रमागत उत्पत्ति वृद्धि नियम लागू हो रहा है तो भी एकाधिकारी को कम उत्पादन करके अर्थात् पूर्ति को नियन्त्रित करके माँग की लोच को ध्यान में रखकर वस्तु की ऊँची अथवा नीची (परिस्थिति के अनुसार) कीमत निर्धारित करनी चाहिए। परन्तु यदि एकाधिकारी उद्योग में क्रमागत उत्पत्ति वृद्धि नियम लागू हो रहा है तो ऐसी स्थिति में एकाधिकार को अधिकतम लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से वस्तु का उत्पादन अधिक मात्रा में करके वस्तु का कम मूल्य निर्धारित करना चाहिए।

(2) आधुनिक रीति अथवा सीमान्त आय तथा सीमान्त विधि (Modern Method or Marginal Revenue and Marginal Cost Method)

यह विधि अधिक उत्तम है। श्रीमती जोन रोबिन्सन, प्रो० नाइट आदि आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने इस विधि का प्रतिपादन किया है। श्रीमती जोन रोबिन्सन के शब्दों में- “एकाधिकारी उस बिन्दु पर अपनी वस्तु की कीमत निर्धारित करेगा जहाँ उसकी सीमान्त आय (Marginal Revenue) सीमान्त लागत (Marginal Cost) के बराबर होगी। तभी उसे एकाधिकारी लाभ प्राप्त हो सकेगा।” अन्य शब्दों में, अधिकतम लाभ प्राप्ति के लिए सीमान्त आगम (MR) का सीमान्त लागत (MC) के बराबर होना आवश्यक है।

एकाधिकार के अन्तर्गत माँग व पूर्ति की रेखाओं के सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि माँग रेखा अपूर्ण प्रतियोगिता की भाँति बाएँ से दाएँ नीचे की ओर गिरती हुई होती है तथा सीमान्त आगम (Marginal Revenue) सदैव ही औसत आगम (Average Revenue) अर्थात् कीमत से कम होता है। जहाँ तक पूर्ति रेखाओं का प्रश्न है, पूर्ति रेखाएँ पूर्ण तथा अपूर्ण प्रतियोगिता जैसी ही होती हैं।

समय की दृष्टि से एकाधिकारी के अन्तर्गत मूल्य निर्धारण की व्याख्या को दो भागों में बाँटा जा सकता हैं।

(1) अल्पकाल (Short Period), तथा (2) दीर्घकाल (Long Period) ।

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Anjali Yadav

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