कबीर के धार्मिक और सामाजिक सुधार सम्बन्धी विचार
कबीर सच्चे सन्त थे। उन्हें मानवता प्रिय थी। उस समय मानवता के नाम पर जो पाखण्ड चलता था उससे उन्हें घृणा थी। इसीलिए उन्होंने अपने समय के सभी आडम्बरों का खण्डन किया। उनके विचार से उच्च कुल में उत्पन्न होने पर भी मानव स्वभाव में गुण और कर्म में यदि उच्चता नहीं है, तो कुल की उच्चता उसे उच्च नहीं बना सकती। कबीर कुल को नहीं, शरीर को भी नहीं, सदुणों को और सदाचार को महत्व देते हैं। जाति पाँति, छुआ-छूत आदि की जो मान्यतायें लोक में प्रचलित हैं, वे यथार्थ होने पर ही मान्यता प्राप्त कर सकती हैं अन्यथा कबीर कहता है-
“बड़ा भया तो का भया, जैसे पेड़ खजूर
पेक्षी को छाया नहीं, फल लागत अति दूर ॥”
ऊंचे कुल का जनमिया, करनी ऊंच न होय ॥
सुबरन कलस सुराभरा, साधू निन्दै सोय ॥
इसी आधार पर कबीर ने वैष्णवों की प्रशंसा तथा शाक्तों की निन्दा करते हुए कहा है-
(1) मेरे संगी द्वै जना, एक वैष्णव एक राम ।’
(2) साकत बाभन न मिले, वैष्णव मिले चण्डाल ॥’
कबीर मन की शुद्धि तथा साधु सत्संग पर बड़ा बल देते हैं ।।
“मथुरा जावै, द्वारका जावै, जावै जगन्नाथ
साधु संगति हरि भगत बिनु कछु न आवै हाथ ||”
कबीर का एक मात्र लक्ष्य था समाज से बुराई को मिटाना तथा अच्छाई को स्थापित करना। वे अत्याचारियों तथा घमंडियों को समझाते हुए कहते हैं-
“दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय।
मुई खाल की साँस सो, सार भसम है जाय ।।”
वे लोक कल्याण के लिये दृढ़ संकल्प थे, फिर भी लोक-कल्याण के मध्य गृहस्थ और वैरागी में इनकी दृष्टि में कोई भेद न था-
“बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार
दुहूँ चूँका रीता पड़े, ताकूँ बार न पार ।
कबीर सज्जनता एवं शीलत्व को सर्वोपरि मानते थे-
“सीलवन्त सबसे बड़ा, सर्व रतन की खानि।
तीन लोक की सम्पदा, रही सील की आनि ॥”
कबीर की साधना का पूर्ण आधार प्रेम है। पाखण्ड एवं बाह्याचार प्रेम के मार्ग बाधक प्रतीत होते हैं। इसी कारण उन्होंने साम्प्रदायवाद, जातिवाद आदि का खुलकर विरोध किया।
डॉ० राम कुमार वर्मा ने कबीर की इसी विचारधारा को ध्यान में रखकर लिखा है कि- “कबीर जिस सन्तमत के प्रवर्तक थे, उसमें बाह्य डम्बर के जितने रूप हो सकते थे, उनका बहिष्कार सम्पूर्ण रूप से किया है। वैष्णव के छाया-तिलक आदि बाह्य चिन्हों और आडम्बरों का वे विरोध करते हैं।
(1) “वैष्णव भया तो क्या भया, उपजा नहीं विवेक ।”
(2) “पंडित कै आसन मारै, लम्बी माला जपता है।” अन्तर तेरे कपट कतरनी, सो भी साहब लिखता है।”
इसी प्रकार पूजा पाठ, व्रत रखना, आरती करना आदि को वे गुड़ियों का खेल समझते हैं।
(1) “पूजा सा वह नेम व्रत, गुड़ियों का सा खेल।”
(2) “कर में तो माला फिरे, जीभ फिर मुख माहि।”
कबीर के युग में लोग सहजयानी, सहजपंथी का प्रचार किया करते थे। कबीर ने उनकी वाचलता देखी, सहज-सहज कहने के स्थान पर उन्हें सहज पंथ से बहुत दूर पाया, तो उन्हें सहन न हो सका और वे कहने लगे-
“साहिब- साहिब सबही कहै, साहिव न चीन्हे कोय।
जो कबीर छिल्या तजै, साहिब कही जे सोय ।”
कबीर ने जहाँ जहाँ पाखण्ड देखा, वहीं उसकी निन्दा की। चाहे जैन हो, चाहे बौद्ध, चाहे शाक्य हो, चाहे जारवाक चाहे हिन्दू हो, चाहे मुसलमान सबमें वे सदाचार के महत्व को प्रतिष्ठित हुआ देखना चाहते थे। यदि भगवान सर्वव्यापक है, तो वह क्या सभी स्थान पर मिलेगा ?
(1) “जौरे खुदाय मसीत बसत है, और मुलुक किहि केरा। “
(2) “काकर पाथर जोरिके मस्जिद लयी बनाय।”
जनम से तो सभी शूद्र हैं, संस्कार ही उन्हें द्विज बनाते हैं। संस्कार-शून्य व्यक्ति द्विज नहीं बन सकता। इसीलिये कबीर ने लिखा है-
“जो तू बावन बावनी जाया, आनि बाट है काहे न आया।”
इसी प्रकार छूत अछूत की समस्या पर कबीर लिखते हैं-
“काहे को कीजै पाण्डे छोट विचार ।
छोटई से ऊपजै संसार ।”
कबीर ने मूर्तिपूजा की भी निन्दा की है-
“पत्थर पूजै हरि मिलै तो मैं पूजौं पहार । “
कबीर ने हिन्दू और मुसलमान दोनों मतों में पाये जाने वाले आडम्बरों की निन्दा की है। भगवान के नाम पर जो दोनों में संघर्ष हुए हैं, उनकी कड़ी आलोचना की है।
(1) “अरे इन दोउन राह न पाई। हिन्दुअन की हिन्दुआई देखी तुरकन की तुरकाई ॥”
(2) “एक निरन्जन अल्लाह मेरा ॥” हिन्दू तुरक दुंहूँ नहीं मेरा ॥ “
कबीर ने माँस, मदिरा आदि सेवन की भर्त्सना की है-
“बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।
जो नर बकरी खात हैं, तिनके कौन हवाल ॥”
कबीर की दृष्टि में मन्दिर में ही ईश्वर का दर्शन करना तथा मस्जिद में ही खुदा का दीदार करना उचित नहीं है-
“जो खोदाय मस्जिद में बसत है
और मुलुक केहि केरा।
तीरथ मूरति राम निवासी
बाहर करै को हेरा।”
कबीर ने धर्म की अव्यवस्था को देखकर धर्म के ठेकदारों की खूब कटु आलोचना की है। मुसलमान कुरान की दुहाई देते थे और हिन्दू वेद वाणी को प्रमाण बताकर अन्धविश्वासों को फैलाने का प्रयास करते थे। इसीलिये कबीर ने जमकर खरी खोटी सुनाया था।
(1) “घर-घर में सदा साई रमता, कटुक बचन न बोल रे ॥”
(2) “सब घर मेरा साइयाँ, सूनी सेज न कोई। भाज तिन्हीं का हे सखी, जिन घट परघट होय ॥”
कबीर की दृष्टि में राम और रहीम, कृष्ण और करीम में कोई अन्तर न था। यदि हमें ब्रह्मा की सच्ची अनुभूति हो जाय तो सारे धर्मों का संघर्ष समाप्त हो जायेगा।
“”हमारे राम रहीम करीमा केसो, अलह रामसति सोई।”
डा० रामकुमार वर्मा के उपरोक्त विवेचन से यह स्वयं सिद्ध है कि कबीर धर्म से संकीर्ण बाह्याडम्बरों के विरुद्ध थे। इसीलिए उन्होंने उन सभी की आलोचना की। कबीर की भक्ति भावना समन्वयवादी थी, इसी कारण उन्हें कोई भी रूढ़िगत विचार ग्राह्य न था, समदृष्टि ही उनके जीवन का सिद्धान्त था, वही उनकी भक्ति भावना का मूलाधार था।
“कहौ सो नाम सुनौ सो सुमिरन, खाऊं पियो सो पूजा।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव न राखौं दूजा ॥”
कबीर ने एक ओर व्यक्ति एवं धर्म के सुधारों के लिए प्रयत्न किया है, तो दूसरी ओर सगज की विभीषिकाओं को निर्मूल करने का प्रयास किया है। इसीलिए उन्होंने वर्ग-व्यवस्था का खण्डन किया था-
“जो तेहिं कर्त्ता वर्ण विचारा। जनमत तीन दण्ड किन सारा।”
कबीर ने हिन्दू समाज की छुआछूत की परम्परा को समाज के लिए पूर्णरूपेण व्यर्थ समझा था-
“कहुँ पाँडे, सुचि कवन ठाऊं जिहि घर भोजन बैठि खाऊं ।”
कबीर समभाव में विश्वास रखते थे-
“एक बूंद एक मल मूतर, एक चाम, एक गूदर ।”
कबीर के जीवन का आदर्श था, उदार भक्ति-भाव-
“राम बिना संसार धुंध कुहेरा, सिरि प्रगट्या जम का पेरा ।’
निष्कर्ष स्वरूप हम कह सकते हैं कि कबीर सत्य के प्रेमी हैं। जहाँ सत् है, वहीं धर्म है और वहीं कबीर का हृदय है। उनकी सुधार भावना में समन्वय की स्थिति प्रधान है। पर इतना स्पष्ट है कि वे सत् से असत् का समन्वय कभी न कर सके। साधना पद्धति में भी भारतीय वेदान्त, सूफी साधना पद्धति, बौद्ध साधना पद्धति, नाथ पंथीय हठ योग साधना क्रिया आदि सबका समावेश उन्होंने अपनी साखियों, पदों आदि में किया है। उन्होंने निर्गुण निराकार ब्रह्म की लीलाओं पर तो प्रकाश डाला ही है, साथ ही साथ अवतारी लीलाओं का भी उल्लेख किया है। वे सच्चे समाज सुधारक थे। इसीलिए वे संत के परमदर्शन को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्राप्त करना चाहते थे ।
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