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कौटिल्य (Kautilya)
कौटिल्य के जीवन के विषय में कुछ भी प्रामाणिक बात ज्ञात नहीं है। प्रचलित दन्त कथाओं, मुद्राराक्षस नामक नाटक और प्राचीन ग्रन्थों में बिखरे हुए वर्णन से केवल इतना अनुमान होता है कि वे ब्राह्मण थे। नन्द वंश से किसी कारण रुष्ट होने पर उन्होंने उनके नाश की प्रतिज्ञा की थी और उसकी पूर्ति उन्होंने चन्द्रगुप्त को मगध राज्य का राजा और भारत का सम्राट बनवाकर की थी।
कौटिल्य के जीवन के विषय में पूरी जानकारी नहीं है। प्रचलित मत है कि इनका नाम विष्णुगुप्त तथा चाणक्य था और यह चन्द्रगुप्त मौर्य के, जो कि 321 ई. पू. में गद्दी पर बैठा था, मन्त्री थे। श्यामशास्त्री का भी यही मत है, परन्तु कई विद्वान चाणक्य और कौटिल्य को अलग-अलग भी बताते हैं। स्वयं इस ग्रन्थ में भी लिखा है कि यह ग्रन्थ कौटिल्य कृत है, जिन्होंने भारत को सम्राट नन्द से मुक्त किया। इसका नाम भी कौटिलीय अर्थशास्त्र ही है, परन्तु पूरे ग्रन्थ में यह कहीं नहीं लिखा कि कौटिल्य और चाणक्य एक ही हैं। मुद्राराक्षस नामक नाटक में विशालदत्त ने लिखा है कि चाणक्य और कौटिल्य एक ही हैं। कादम्बरी के रचयिता वाणभट्ट ने भी कौटिल्यशास्त्र का वर्णन किया है। सामान्यतः यह स्वीकार किया गया है कि कौटिल्य, चाणक्य तथा विष्णुगुप्त एक ही व्यक्ति का नाम है। विष्णुगुप्त नाम है, कौटिल्य गोत्र है और चाणक्य का अर्थ है चाणक का पुत्र ।
चन्द्रगुप्त के राज्यारोहन की तिथि 321 ई. पू. मानी जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि इसी के आस-पास अर्थशास्त्र की रचना भी हुई। यह भी मान्यता है कि चन्द्रगुप्त को राजनीति का उपदेश देने के लिए कौटिल्य ने इस ग्रन्थ की रचना की थी।
कौटिल्य के आर्थिक विचार
अर्थशास्त्र शब्द की प्रथम परिभाषा कौटिल्य के ग्रन्थ में मिलती है। उन्होंने लिखा है, “अर्थ मनुष्य के जीवन की वृत्ति का आधार है। अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जो मनुष्य से पूर्व पृथ्वी से पालन तथा प्राप्ति का विचार करता है।” इस परिभाषा को टीका में के. पी. जायसवाल ने लिखा है कि वृत्ति को जनसंख्या के पोषण के अर्थ में लेना चाहिए, परन्तु वृत्ति का साधारण अर्थ जीविका (Livelihood) होता है, यही अर्थ उपयुक्त भी है।
‘वृत्ति’ से एक अन्य शब्द निकला ‘वार्ता’। यह शब्द कृषि, पशुपालन और व्यापार इनके लिए सम्मिलित रूप से प्रयुक्त होता है। वार्ता को भी अर्थशास्त्र में प्रयुक्त किया गया है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र केवल अर्थ का ही वर्णन नहीं करता, उसमें राजनीति, नीतिशास्त्र, दण्ड-नीति तथा वार्ता, आदि का विशद वर्णन है।
कौटिल्य के अनुसार पृथ्वी के लाभ और पालन का शास्त्र अर्थशास्त्र है। यह विस्तृत परिभाषा है। वार्ता केवल इसके एक भाग का नाम है।
अर्थशास्त्र शब्द का प्रयोग भारतीय वाङमय में विस्तृत रूप में हुआ है। महाभारत में अर्जुन को अर्थशास्त्र का ज्ञाता कहा गया है। अन्य पुराणदि में इस नाम का वर्णन है।
अर्थशास्त्र विभिन्न भागों में विभक्त है जो राज्य के शासन, उद्योगों के प्रबन्ध, भूमि के सुधार, व्यापार, सेना, विदेशी नीति, करारोपण तथा श्रमिक गण (Guilds), आदि से सम्बन्धित है। राज्य के संचालन के प्रत्येक पक्ष का विशद वर्णन किया गया है। कुछ विचारों को संक्षेप में लिखा जाता है। हम अधिकतर आर्थिक विचारों का वर्णन करेंगे।
(1) कृषि- राज्य के सभी व्यवसाय निम्न तीन वर्गों में विभाजित हैं: (1) कृषि (2) पशुपालन, एवं (3) वाणिज्य । इनमें कृषि सबसे महत्वपूर्ण है। कृषि के सुधार के लिए राजा को बेकार भूमि पर किसानों को बसाना चाहिए (शून्य निवेश) इसका अर्थ नवीन भूमि पर खेती से है। एक गाँव में 100 से 500 तक परिवार होने चाहिए। बेकार भूमि पर राजा का अधिकार होता है। राजा को बीज तथा बैल, आदि की सहायता देनी चाहिए। ऋण का भी विधान है। समय-समय पर करों की छूट भी आवश्यक है। सरकारी फार्म और व्यक्तिगत फार्म का वर्णन है। सरकारी फार्मों के निरीक्षक ‘सीताध्यक्ष’ कहलाते थे। खेती मजदूरों और दासों की सहायता से होती थी। दान में दी गयी भूमि पर कर नहीं लगता था। सिंचाई का वर्णन है। राज्य का काम ‘सेतुबन्ध’ बताया गया है। सेतु का अर्थ यहाँ बाँध से है। तालाबों तथा कुओं से व्यक्तिगत सिंचाई का भी आदेश है। बांधों से होने वाली अन्य आय राज्य की होती है। बंजर भूमि (भूमिछिद्र) पशुओं के लिए होनी चाहिए। राज्य को स्वयं भी पशुओं का पालन करना चाहिए। ‘गोध्यक्ष का कार्य इन पशुओं की देखभाल है।
(2) श्रम सम्बन्धी विचार- शुक्राचार्य के समान श्रमिकों के विषय में कौटिल्य ने विस्तार से नियम बताये हैं। मजदूरी वस्तु के गुण तथा मात्रा के आधार पर होनी चाहिए। छुट्टियों के दिनों में अतिरिक्त वेतन मिलना चाहिए। मजदूर लेकर काम न करने वालों का अंगूठा काट देना चाहिए। अन्य उद्योगों में सौदे के अनुसार मजदूरी की व्यवस्था है। कौटिल्य ने वृद्धावस्था की पेंशन, पुरस्कार, इत्यादि के विषय में भी लिखा है। खेतिहर मजदूर का फसल का 1/10′ व्यापारी को बिक्री की राशि का 1/10′ पशुपालक को उत्पन्न धन का 1/10′ मजदूरी को देना चाहिए। मजदूरी न देने पर जुर्माना होना चाहिए।”
(3) वनों की उपज – दो प्रकार के वनों का वर्णन है- (क) द्रव्यवन, जिससे ईंधन, औषधि, आदि प्राप्त होते हैं, (ख) हस्तिवन, जिसमें हाथियों के रहने की व्यवस्था होती है। युद्ध में हाथी का वही महत्व था जो आजकल टैंक का है। वनों पर राजा का नियन्त्रण होता है। नये वनों के लगाने का भी आदेश है। वनों से प्राप्त वस्तुओं से नाव, जहाज तथा रस्से, आदि बनाना चाहिए।
(4) उद्योग- कौटिल्य ने राजकीय और व्यक्तिगत उद्योगों का वर्णन किया है। राज्य के वस्त्र उद्योग के लिए ‘सूत्राध्यक्ष’ का उल्लेख है, जो ऊनी, सूती तथा रेशमी वस्त्र तैयार करता था। सबके कारखाने अलग-अलग होते थे। रक्षाध्यक्ष रथों का निर्माण करता था। सेना के हथियार, रस्से तथा गाड़ियाँ, आदि भी सरकारी कारखाने में बनने की बात है, परन्तु फिर भी निजी धन्धे थे। स्वतन्त्र व्यापारी मजदूरों और कारीगरों से चीजें बनवाते थे।
(5) खानों का प्रबन्ध- खानों पर राज्य का अधिकार है। उनका बहुत महत्व बताया गया है, क्योंकि उनसे मूल्यवान धातुएँ प्राप्त होती हैं, जो सेना के लिए आवश्यक हैं। सोना तथा चांदी का महत्व सबसे अधिक बताया है। कौटिल्य का कथन है कि बड़ी खदानों में लागत कम आती है, अतः वे श्रेष्ठ हैं। लोहा, आदि धातुओं की वस्तुओं का निर्माण के लिए ‘लौहाध्यक्ष’ होते थे। सोना-चाँदी की वस्तुएँ ‘स्वर्णाध्यक्ष’ की निगरानी में बनती थीं। खानों से कुल मिलाकर 12 प्रकार की आय हो सकती है।
(6) व्यापार – राज्य का नियन्त्रण व्यापार पर आवश्यक है। इसके लिए ‘पण्डाध्यक्ष की नियुक्ति होनी चाहिए। वह मूल्यों का नियन्त्रण करता है। देशी माल पर 5% और विदेशी माल पर 10% लाभ की व्यवस्था है। नियन्त्रित मूल्य से अधिक लेने पर 1,000 पण दण्ड की व्यवस्था की गयी है। राज्य स्वयं भी व्यापार करता है। राज्य के उद्योग, व्यापार तथा कृषि इस बात का स्पष्ट प्रमाण देते हैं कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिश्रित अर्थव्यवस्था (Mixed Economy) का विधान है। विदेशी व्यापार में भी राज्य का नियन्त्रण होना चाहिए।
राज्य का व्यापारिक माल दो प्रकार का होता है- ‘स्वभूमिज’ या देश में निर्मित तथा ‘परभूमिज’ या विदेश में निर्मित। पण्डाध्यक्ष राज्य के व्यापार का प्रबन्धक होता है। आयातों को प्रोत्साहित किया गया है। विदेशी व्यापारियों को सुविधाएँ दी गयी हैं। कुछ वस्तुओं पर आयात कर (प्रवेश शुल्क) माफ था। विवाह तथा पूजा, आदि के उपकरणों पर कर नहीं लगाना चाहिए। नाप-तौल के बांटों के निर्माण और निरीक्षण के लिए ‘पोतवाध्यक्ष’ नियुक्त होने चाहिए।
(7) करारोपण – राज्य के व्यय को चलाने के लिए करों की व्यवस्था है। भूमिकर कृषि के उत्पादन का छठा अंश (भाग) होना चाहिए। भूमिभर को वसूल करने वाले समाहतां के कार्यों का वर्णन है। बाहर से आने वाले साल पर आयात कर तथा चुंगी (शुल्क) की व्यवस्था है। नदी तथा पुल के प्रयोग, सड़कों तथा वनों के प्रयोग पर कर का आदेश है। राज्य की आय व्यय के हिसाब का महत्व समझाया गया है। करों का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड का नियम बताया गया है। विजित राष्ट्रों से कर लेना चाहिए, ऐसा भी लिखा है। सरकारी खेती को आय भी राज्य कोष में आ जाती है। “उदकभाग’ सिंचाई कर का नाम था। अपनी सिंचाई पर भी यह कर देना पड़ता था। उत्पादन कर तथा निर्यात कर अन्य कर हैं।
(8) मुद्रा- इसके निर्माण के लिए टकसालें थी और विशेष अधिकारी नियुक्त होते थे, जिन्हें 1 ‘लक्षणाध्यक्ष’ कहते थे। चाँदी के सिक्के 1 पण, 1/2 पण, 1/4 पण, तथा 1/8 पण के होते थे। इन सिक्कों में 11/16 चांदी, 4/16 तांबा तथा 1/16 अन्य धातु होती थी। इसके अतिरिक्त तांबे के सिक्के, जो पण के मूल्य के क्रमशः – 1/16, 1/82, 1/64, होते थे, चलते थे। हमारा रुपया निश्चय ही कौटिल्य के दिमाग की उपज है। सिक्कों का सरकारी टंकणशाला में बनना अनिवार्य था।
(9) यातायात – यातायात के प्रधान साधन नदियों और सड़कों द्वारा थे। विदेशी व्यापार समुद्र के मार्ग से होता था। कौटिल्य ने भूमि का मार्ग अधिक लाभदायक बताया है, क्योंकि वह अधिक सुरक्षित होता है। यात्रा ‘सार्थ’ (कारवा) द्वारा होती थी। सड़कों के प्रयोग के कर को ‘वर्तनी’ कहते थे। सड़कों के निर्माण एवं यात्रा की सुरक्षा का भार राज्य पर था। यदि सार्थ का कोई नुकसान होता था, तो सरकारी कर्मचारियों पर जुर्माना करके उसकी पूर्ति की जाती थी। सरकारी सिपाही सार्थों के साथ भी भेजे जाते थे, जिसके लिए, ‘अतिवाहिका’ नामक कर वसूल होता था। पानी में भी सामूहिक रूप से जहाज तथा नावें, आदि चलाने का आदेश है।
(10) अन्य विचार- कौटिल्य ने दासों, नौकरों (भृत्यों) और मजदूरों (कर्मकारों) के काम और उनसे सम्बन्धित नियमों का वर्णन किया है। दास प्रथा के यह अन्तिम दिन थे। सम्भवतः प्रथम से तृतीय शताब्दी में भारत में दास प्रथा समाप्त हो गयी थी। भारत ने ही सर्वप्रथम दास प्रथा का परित्याग किया। मेगस्थनीज ने भी दास प्रथा का यहाँ प्रभाव बताया है। राज्य की आय और व्यय का विशद वर्णन दिया है।
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