थकान अथवा श्रान्ति से आप क्या समझते हैं? थकान के कारण, लक्षण तथा विद्यालय में श्रान्ति (थकान) तथा उसके निराकरण के उपाय बताइए।
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थकान अथवा श्रान्ति का अर्थ
थकान अथवा श्रान्ति एक शारीरिक अवस्था है जो हर प्रकार के कार्य के बाद स्वभावतः आती है। अधिक कार्य करने से बालक की कार्य करने की क्षमता तथा शक्ति कम हो जाती है। परिणामस्वरूप कार्य में त्रुटियों का आधिक्य हो जाता है। श्रान्ति एक शिथिलता की भावना उत्पन्न करती है जिससे काम करने की इच्छा मर जाती है।
थकान के कारण
श्रान्ति के कारण शरीर की क्रियाशीलता, शरीर के तीन अवयवों पर निर्भर करती है:-
- मस्तिष्क तथा सुषुम्ना जो कार्य की संवेगशीलता या प्रेरणा उत्पन्न करते हैं।
- स्नायु, जो संवेग या प्रेरणा की मांसपेशियों तक ले जाने का काम करते हैं 1
- माँसपेशियाँ, जो संकुचन क्रिया द्वारा संवेग को क्रियान्वित करती हैं। अतएव श्रान्ति के मुख्य दो कारण हैं- मानसिक तथा शारीरिक ।
यह ज्ञात हुआ है कि श्रान्ति सामान्य कार्य में शक्ति की पूर्ति करने वाले तत्वों के साधारण प्रयोग पर निर्भर नहीं करती वरन् रासायनिक परिवर्तनों के व्यर्थ पदार्थों-लेक्टिक एसिड, कार्बन डाइऑक्साइड आदि विष के शरीर में एकत्रीकरण पर निर्भर करती है। इन विषों को धीरे-धीरे रक्त अपने साथ ले जाता है और निष्कासन, यन्त्र इनको मुक्त कर देते हैं। यदि यह अधिकता में उत्पन्न होते हैं और तन्तुओं में एकत्र हो जाते हैं तो वे मानसिक और शारीरिक क्रिया को प्रभावित करते हैं और उनमें शिथिलता उत्पन्न करते हैं। परिणामतः माँसपेशियों तथा स्नायविक तन्तुओं में कार्य करने की शक्ति कम हो जाती है।
उपर्युक्त तीन अवयवों में से श्रान्ति सम्भवतः स्नायुओं में कम व्यापती है, क्योंकि वह तीव्रता से स्वस्थ हो जाते हैं और उनमें परिवर्तन भी बहुत कम होता है। शेष दो अवयवों में से मस्तिष्क तथा सुषुम्ना केन्द्र मांसपेशियों की अपेक्षा अधिक शीघ्र प्रभावित हो जाते हैं; क्योंकि यदि मस्तिष्क स्वयं पहले श्रान्त हो जाएगा तो माँसपेशियाँ भी तदुपरान्त प्रभावित होंगी। अतएव हर प्रकार की श्रान्ति चाहे वह शारीरिक कार्य के कारण माँसपेशियों की हो या मानसिक कार्य के कारण, मानसिक प्रमुखता स्नायविक ही होती है।
थकान अथवा श्रान्ति के लक्षण
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, थकान का प्रमुख लक्षण कार्य करने की अनिच्छा है, विशेषकर यह कार्य जिससे श्रान्ति उत्पन्न हुई हो। बच्चों की थकान अथवा श्रान्ति के लक्षण हैं स्वस्थ बच्चों की अपेक्षा अधिक सुस्ती, ढीलापन तथा कार्य करने की अनिच्छा। श्रान्त बच्चा एक ओर कूल्हे लटकाए खड़ा होगा, उसके हाथ शिथिलता से लटके होंगे, कन्धे झुके होंगे, पिंडलियाँ झुकी होंगी और पैर भीतर की ओर फिरे होंगे। आँखों में सुस्ती और निर्जीवता टपकेगी, चेहरा प्रायः पीला होगा और मुद्रा शून्य होगी। जम्हाई लेगा, उसे झपकी आएगी, श्रान्ति का अनुभव होगा, एकाग्रता की कमी होगी और परिणामस्वरूप काम में धीमापन तथा त्रुटियाँ होंगी।
यदि थकान कई दिनों तक रहती है, तो उसका दुष्प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है। थके हुए बच्चे में अनिच्छा और उत्तेजना होती है। रात को उसे अच्छी नींद नहीं आती और सोते सोते चौंक जाता है। भूख कम लगती है और परिणामतः अपच, सिर में पीड़ा तथा शरीर में दुर्बलता हो जाती है।
असाधारण थकान (श्रान्ति)
काम के अनुपात से अधिक श्रान्ति का कारण शरीर यन्त्र या मानसिक स्थिति की कोई अव्यवस्था हो सकती है। अनेक ऐसे कारण हो सकते हैं जो या तो माँसपेशियों को या स्नायुओं को इस रूप में प्रभावित करते हों कि श्रान्ति अनुभव हो। वे कारण निम्नलिखित हैं :-
1. शारीरिक अयोग्यता; जैसे- गठिया, अपौष्टिक भोजन, विशेष ज्ञान-तन्तुओं में दोष और एडिनायड्स का रोग ।
2. माँसपेशियों के उचित उपयोग के अभाव अथवा पौष्टिक भोजन के अभाव या दोनों कारण, मांसपेशियों को अशक्तता ।
3. रक्त में अनुपयुक्त मात्रा में ऑक्सीजन का मिश्रित होना; वह स्थिति उदाहरणत: रक्तक्षीणता (Anaemia), जिसमें लाल रक्त कण बहुत कम हो जाते हैं और रक्त-रंजन की कमी होती है, जिस कारण तन्तुओं और स्नायु केन्द्रों को उपयुक्त मात्रा में ऑक्सीजन नहीं पहुँच पाती।
4. खेलने या चलने की श्रान्ति के बाद एकदम मानसिक काम करना।
5. परीक्षा में असफल हो जाने का भय, अत्यधिक महत्वाकांक्षा तथा अन्य श्रान्ति वाले उद्वेग से मानसिक व्यप्रता या इसमें से किसी कारण से भी पूर्ण निद्रा की कमी।
6. अत्यधिक मनोरंजन, देर तक जागना और घर पर मित्रों के साथ व्यस्त रहना या पड़ौस में निरन्तर शोर रहना।
7. विद्यालय में अस्वास्थ्यकर वातावरण; जैसे—कक्षाओं में प्रकाश और हवा की कमी, अनुपयुक्त डेस्क और बैठने के दोषपूर्ण ढंग ।
8. भोजन करने के तुरन्त बाद ही पढ़ने का काम करने बैठ जाना जबकि शरीर भोजन पचाने की क्रिया में व्यस्त है।
9. विद्यालय का दैनिक कार्यक्रम जिसमें बच्चों को लगातार देर तक पढ़ाने की और श्रान्ति करने वाली पढ़ाई पर देर तक कार्य करने की व्यवस्था है।
विद्यालय में श्रान्ति (थकान) और उसका निराकरण
हर कार्य में श्रान्ति पैदा होती है। यह नितान्त स्वाभाविक और हानिरहित है। किन्तु निरन्तर श्रान्ति हानिकारक है और उसके कुप्रभाव भी स्थायी होते हैं।
निरन्तर श्रान्ति विद्यालय के काम के कारण हो सकती है। विद्यालय के बाह्य काम में भी श्रान्ति होना असम्भव नहीं है। श्रान्ति की मात्रा केवल विद्यालय के काम की अधिकता पर ही निर्भर नहीं करती वरन् काम करने के समय की स्थिति पर भी निर्भर करती है; जैसे-पाठ की लम्बाई; विषयों की व्यवस्था, हवा और प्रकाश, बैठने का ढंग आदि। यह बात देखने में आई है कि अवकाश के बाद सबसे अच्छा कार्य होता है और जैसे-जैसे लगातार कार्य का समय बढ़ता जाता है, कार्य करने की शक्ति कम हो जाती है। विद्यालय आरम्भ होने के प्रथम दो घण्टों में सबसे अच्छा कार्य होता है और मध्यान्ह के बाद कार्य अच्छा नहीं हो पाता। अतः प्रथम दो घण्टों में वे विषय पढ़ाए जाने चाहिएँ जिनमें सबसे अधिक एकाग्रता की आवश्यकता है; जैसे- गणित और साहित्य मध्यान्ह के बाद वे विषय पढ़ाए जाने चाहिएँ जो कम श्रान्ति उत्पन्न करने वाले हों, जैसे—गृह-विज्ञान, प्रकृति-विज्ञान, लेख-कला और संगीत आदि। विद्यालय के कार्यक्रम में वे काम जिसमें अधिक एकाग्रता की आवश्यकता हो, ऐसे समय में व्यवस्थित करने चाहिए जबकि बच्चे की शक्तियाँ ताजी हों, अर्थात् दिन, सप्ताह या सत्रावधि के आरम्भ में ।
छोटे और विविध प्रकार के पाठों का सर्वोत्तम परिणाम देखने में आया है। कोई पाठ आधे घण्टे से अधिक देर तक नहीं चलना चाहिए और इस प्रकार के दो पाठों के बाद खेलने के लिए 15 मिनट का अवकाश दिया जाना चाहिए।
बच्चों के लिए पर्याप्त स्थान, हवा और ताप का प्रबन्ध करना चाहिए तथा जहाँ तक सम्भव हो, कम शोर हो, ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए।
अध्यापकों को उन कारणों पर ध्यान देते रहना चाहिए जिनसे अनावश्यक श्रान्ति की सम्भावना हो। इनसे मुख्य अपौष्टिक भोजन, रोग, अस्वास्थ्यकर घर का वातावरण और उद्वेगात्मक अस्थिरता या उत्तेजना है। अध्यापकों को उन बच्चों के प्रति विशेष सचेत रहने की आवश्यकता है जिनमें अपने माता-पिता के प्रति या परीक्षा आदि के प्रति भय हो और उन्हें चतुरता से बच्चों के इस भय को दूर करना चाहिए। वह बच्चे का मित्र और विश्वास-भाजन बनकर ही सम्भव है।
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