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दर्शन से आप क्या समझते हैं ? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र

दर्शन से आप क्या समझते हैं ? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र
दर्शन से आप क्या समझते हैं ? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र

दर्शन से आप क्या समझते हैं ? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र की विवेचना कीजिए।

दर्शन का अर्थ (Meaning of Philosophy ) – ‘दर्शन’ शब्द दर्शनार्थक दृश धातु से बनता है जिसका अर्थ है ‘देखना’ या ‘अवलोकन करना।’ (दृशिर् प्रेक्षणे, अर्थात् दर्शनात्मक दृश् धातु के कारण अर्थ में ल्युट प्रत्यय के योग से दर्शन बनता है) अतः इसका कूटपत्तिसाम्य अर्थ किया जाता है, दृश्यते अनेन इति दर्शनम् अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाय, वह दर्शन है। अतएव स्पष्ट है कि ‘देखना’ दर्शन का साधारण अर्थ है। दर्शनशास्त्र में दर्शन का एक विशेष अर्थ है; तत्त्व के प्रकृत स्वरूप का अवलोकन दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अनुभूत ज्ञान ही दर्शन है। तात्पर्य यह है कि जिसके द्वारा देखा जाय, विभिन्न जिज्ञासाओं का समाधान किया जाय। ‘दर्शन’ और ‘जीवन’ का घनिष्ठ सम्बन्ध है वे एक ही उद्देश्य के दो परिणाम हैं। दोनों का लक्ष्य परम श्रेय की खोज है। दर्शन, जीवन की मीसांसा करता है। साधारणतया दर्शन की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है-“दर्शन सम्पूर्ण विश्व और जीवन की व्याख्या तथा मूल्य निर्धारण करने का एक प्रयास है।”

प्लेटो का मत है कि दर्शन का आरम्भ आश्चर्य अथवा कौतूहल या जिज्ञासा से हुआ है। कुछ अन्य विचारकों के अनुसार ‘दर्शन’ का जन्म सन्देह अथवा संशय की भावना या धारणा से होता है।

दर्शन की परिभाषा (Definition of Philosophy)

दर्शन की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. प्लेटो- “पदार्थों के सनातन स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना ही दर्शन है ।’
  2. फिक्टे- “दर्शन ज्ञान का विज्ञान है।”
  3. बरट्रेण्ड रसेल- “अन्य क्रियाओं के समान दर्शन का मुख्य उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति है।”
  4. राधाकृष्णन्- “दर्शन वास्तविकता के स्वरूप की तर्कपूर्ण खोज है।”

दर्शन की प्रकृति (Nature of Philosophy)

दर्शन की प्रकृति अत्यन्त गूढ़ एवं विशिष्ट है। कुछ विद्वानों के अनुसार दर्शनशास्त्र विज्ञान है। विज्ञान सम्बन्धी मत इस प्रकार हैं-

हरबर्ट स्पेन्सर के शब्दों में, “दर्शन प्रत्येक वस्तु से सम्बन्धित है, वह एक सार्वभौमिक विज्ञान है।”

इसी प्रकार लेटन ने लिखा है कि, “विज्ञान की तरह दर्शन में भी व्यवस्थित चिन्तन के फलस्वरूप पहुँचे हुए सिद्धान्त तथा अन्तर्दृष्टि होती है।”

इसके विपरीत कुछ विद्वानों ने दर्शनशास्त्र को कला कहा है लेकिन वास्तविकता यह है कि दर्शनशास्त्र कला एवं विज्ञान दोनों ही नहीं है। इसकी प्रकृति दार्शनिक है। दार्शनिक प्रकृति का अर्थ है- दार्शनिक समस्याओं का अध्ययन, दार्शनिक दृष्टिकोण एवं दार्शनिक विधियों को प्रयुक्त करके करना। दर्शन की प्रकृति को स्पष्ट करने हेतु दार्शनिक समस्या, दार्शनिक दृष्टिकोण एवं दार्शनिक विधियों के अर्थ को जानना भी नितान्त आवश्यक है।

(1) दार्शनिक समस्या – दार्शनिक समस्याओं को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-

  • (क) दार्शनिक विज्ञानों से सम्बन्धित समस्याएँ- प्रमुख दार्शनिक विज्ञान प्रमाणशास्त्र, अध्यात्मशास्त्र, सौन्दर्यशास्त्र, नीतिशास्त्र इत्यादि हैं। इन सभी विज्ञानों से सम्बन्धित समस्त समस्याओं को दार्शनिक समस्याएँ कहा जाता है।
  • (ख) विभिन्न विज्ञानों से सम्बन्धित समस्याएँ- विभिन्न विज्ञानों की मूलभूत समस्याओं व प्राप्त निष्कर्षों की समीक्षा भी दर्शनशास्त्र करता है।

(2) दार्शनिक दृष्टिकोण- दार्शनिक दृष्टिकोण, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बिल्कुल भिन्न होता है। दार्शनिक दृष्टिकोण की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं; जैसे- आश्चर्य बोध, मीमांसा, सन्देह, समीक्षात्मक, चिन्तनात्मक, उदारता, तटस्थता, सतत्ता निष्कर्ष को प्राप्त करने में धैर्य आदि।

(3) दार्शनिक प्रक्रिया – दार्शनिक प्रक्रिया का प्रारम्भ विस्मय से होता है। यह समस्या वैयक्तिक एवं सामाजिक दोनों रूपों में सम्पन्न हो सकती है। इस जगत का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करना ही इस प्रक्रिया का प्रमुख लक्ष्य है।

(4) दार्शनिक विधियाँ- दर्शनशास्त्र के अन्तर्गत विभिन्न समस्याओं का अध्ययन करने हेतु अनेक विधियों को प्रयुक्त किया जाता है जैसे विश्लेषण एवं संश्लेषण विधि, आगमन एवं निगमन विधि आदि ।

दर्शन का क्षेत्र (Scope of Philosophy)

प्रायः लोग किसी विषय (अनुशासन) के अध्ययन-क्षेत्र और विषय-वस्तु में भेद नहीं करते, परन्तु इन दोनों में अन्तर होता है। अध्ययन क्षेत्र का अर्थ उस सीमा से होता है जहाँ तक किसी विषय का अध्ययन किया जाना चाहिए अथवा किया जा सकता है, जबकि विषय-वस्तु का अर्थ उस सीमा से होता है जिस सीमा तक अध्ययन किया जा सका है। जहाँ तक दर्शन के क्षेत्र की बात है, वह बड़ा व्यापक है। उसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और उसकी समस्त वस्तुओं एवं क्रियाओं के वास्तविक स्वरूप की खोज आती है, परन्तु इस क्षेत्र में मनुष्य अभी तक जो कुछ सोच-समझ पाया है वह दर्शन की विषय-वस्तु है।

भारतीय चिन्तक दर्शन के अध्ययन क्षेत्र को मुख्य रूप से तीन भागों में विभक्त करते हैं- तत्त्व मीमांसा (Metaphysics), ज्ञान मीमांसा (Epistemology) और आधार मीमांसा (Ethics)। दूसरी तरफ पाश्चात्य चिन्तक दर्शन के अध्ययन क्षेत्र को मुख्य रूप से पाँच भागों में विभक्त करते हैं- तत्त्व मीमांसा (Metaphysics), ज्ञान मीमांसा (Epistemology), मूल्य मीमांसा (Axiology), तर्कशास्त्र (Logic) और सौन्दर्यशास्त्र (Aesthetics ) ।

दर्शन के अध्ययन क्षेत्र के इन भारतीय एवं पाश्चात्य वर्गीकरणों के विषय में यहाँ चार स्पष्ट करना आवश्यक है। पहली है कि भारतीय दर्शनों में आधार मीमांसा में मूल्य मीमांसा सम्मिलित होती है और पाश्चात्य दर्शनों में मूल्य मीमांसा में आचार मीमांसा सम्मिलित होती है। अतः इन्हें एक साथ लिया जा सकता है। दूसरी यह कि दर्शन में ज्ञान प्राप्त करने की विधियों के सन्दर्भ में तर्क विधियों की भी चर्चा की जाती है अतः इसे ज्ञान मीमांसा के अन्तर्गत ही रखा जा सकता है। तीसरी यह कि दर्शन में केवल वास्तविक सौन्दर्य पर विचार किया जाता है और इस वास्तविक सौन्दर्य को प्राप्त करने की विधियों पर विचार किया जाता है और ये दोनों विचार क्रमशः तत्त्व मीमांसा एवं आचार मीमांसा के विषय हैं, अतः सौन्दर्यशास्त्र को अलग रखना उचित नहीं है और चौथी एवं अन्तिम यह है कि अब हम देश-विदेश के दर्शनों का अध्ययन एक साथ करते हैं। अतः हमें उनकी विषय सामग्री को कुछ सामान्य वर्गों में ही विभाजित करना चाहिए। हमारी अपनी ऊपर की विवेचना से स्पष्ट है कि ये सामान्य वर्ग-तत्त्व मीमांसा (Metaphysics), ज्ञान मीमांसा (Epistemology) और मूल्य एवं आचार मीमांसा (Axiology and Ethics) ही हो सकते हैं। यहाँ इन तीनों की अध्ययन सामग्री का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है-

(1) तत्त्व मीमांसा (Metaphysics)- दर्शन में तत्त्व मीमांसा का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है। इसमें सृष्टि सम्बन्धी तत्त्व ज्ञान अर्थात् सृष्टिशास्त्र (Cosmogomy), सृष्टि विज्ञान (Cosmology) एवं सत्ता विज्ञान (Ontology) आते हैं और आत्मा सम्बन्धी तत्त्व ज्ञान (Metaphysics of the Soul) एवं ईश्वर सम्बन्धी तत्त्व ज्ञान (Theology) आते हैं। इसमें सृष्टि- स्रष्टा, आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत एवं जन्म-मरण की व्याख्या के साथ-साथ वास्तविक सौन्दर्य की विवेचना भी की जाती है। इसे अब सौन्दर्यशास्त्र (Aesthetics) कहते हैं।

(2) ज्ञान मीमांसा (Epistemology)- ज्ञान मीमांसा के क्षेत्र में मानव बुद्धि, ज्ञान के स्वरूप, ज्ञान की सीमा, ज्ञान की प्रामाणिकता, ज्ञान प्राप्त करने के साधन, ज्ञान प्राप्त करने की विधियों, तर्क की विधियों, सत्य-असत्य, प्रमाण और भ्रम की व्याख्या आती है।

(3) मूल्य एवं आचार मीमांसा (Axiology and Ethics) – मूल्य एवं आचार मीमांसा के क्षेत्र में मानव जीवन के आदर्श एवं मूल्यों की विवेचना आती है, मानव जीवन के अन्तिम उद्देश्य को प्राप्त करने के साधनों की विवेचना आती है और मानव के करणीय तथा अकरणीय कर्मों की विवेचना आती है। करणीय तथा अकरणीय कर्मों की विवेचना को ही नीतिशास्त्र (Ethics) कहते हैं।

हम जानते हैं कि कोई भी आदर्श मूल्य का रूप तभी धारण करता है जब वह हमारे आचरण में परिलक्षित होता है। स्पष्ट है कि मूल्य और हमारा आचार उन मूल्यों हमारे व्यवहार अर्थात् आचार को निर्देशित एवं नियन्त्रित करते हैं और हमारा आचार उन मूल्यों को प्रदर्शित करता है जब तक कोई दर्शन मनुष्य को आचरण की दिशा प्रदान नहीं करता तब तक उसका कोई महत्त्व नहीं है। इसमें इस सबकी व्याख्या के साथ-साथ जीवन के वास्तविक सौन्दर्य को प्राप्त करने की विधियाँ भी आती हैं।

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Anjali Yadav

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