नागरिकता के विषय पर अरस्तू के विचारों की व्याख्या कीजिये।
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नागरिकता के विषय पर अरस्तू के विचार
प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तू (384-322 ई.पू.) को ‘राजनीति शास्त्र के जनक’ के नाम से जाना जाता है। वह महान् यूनानी दार्शनिक प्लेटो का शिष्य था। प्लेटो के अतिरिक्त सुकरात तथा अन्य पूर्ववर्ती विचारकों के विचारों का भी उस पर विशेष प्रश् था। वह विश्व-विजय के प्रणेता सम्राट सिकन्दर महान् का गुरु था। अरस्तू ने राजनीति, दर्शनशास्त्र तथा नीतिशास्त्र के अतिरिक्त जीव विज्ञान, चिकित्साशास्त्र, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र तथा आध्यात्मिकता आदि विषयों पर भी अपनी रचनाएं लिखीं। उसका सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘पॉलिटिक्स’ है, जिसे लिखने के लिए उसने अपने युग के 158 संविधानों का अध्ययन किया। इस प्रकार उसने अध्ययन की वैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण करते हुए राजनीति को राजनीति विज्ञान बनाया।
अरस्तू की कृति ‘पॉलिटिक्स’ आठ भागों में विभक्त है। इसी पुस्तक के तीसरे भाग में उसने राज्य तथा नागरिकता सम्बन्धी विचार प्रकट किए हैं। ‘राज्य’ का अध्ययन करते समय अरस्तू ने अपने पूर्ववर्ती सोफिस्ट विचारकों की इस विचारधारा का खण्डन किया कि राज्य एक कृत्रिम संस्था है तथा उसकी उत्पत्ति मानव द्वारा अपनी सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिए समझौते द्वारा की गई। इसके विपरीत अरस्तू ने राज्य को एक स्वाभाविक तथा अनिवार्य संस्था माना है, जिसका लक्ष्य मनुष्य की उन विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करना है, जो उसके नैतिक विकास के लिए आवश्यक है। सी.एल. वेपर के शब्दों में, “अरस्तू के अनुसार राज्य एक नैतिक संस्था है।
इसका अस्तित्व मानव को जीवित रखने के लिए नहीं, बल्कि उत्तम जीवन बिताने के लिए है।” राज्य की उत्पत्तिः अरस्तू के अनुसार मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है राज्य रूपी शरीर का अंग है। उसके शब्दों में, “जो राज्य के बाहर रहता है, वह या तो पशु है या देवता।” इस प्रकार राज्य से पृथक व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं। राज्य के सम्बन्ध में अरस्तू कहता है कि सर्वप्रथम ‘परिवार’, परिवारों के सम्मिलन में ‘कुल’, कुलों के समुच्चय से ‘ग्राम’ तथा अन्ततः ग्रामों के मिलने से ‘राज्य’ का निर्माण हुआ राज्य सामाजिक समुदायों का सर्वाधिक उन्नत रूप है तथा उसका लक्ष्य मानव-जीवन का सर्वांगीण विकास करना है। अरस्तू व्यक्ति की तुलना में राज्य को प्राथमिकता देता है। राज्य के हित में ही व्यक्ति का हित है। व्यक्ति का विकास राज्य में ही सम्भव है। जिस प्रकार शरीर से अलग होने पर उसके अंगों का कोई महत्व नहीं रहता, वैसे ही राज्य से अलंग व्यक्ति का विकास सम्भव नहीं है।
प्राचीन यूनान के राज्य जनसंख्या तथा आकार (क्षेत्रफल) में लघु होने के कारण ‘नगर-राज्यों’ के नाम से जाने जाते थे। प्रारंभ में यहाँ राजतंत्रीय व्यवस्था थी, कालान्तर यहाँ गुटतंत्र और फिर लोकतंत्र की भी स्थापना हुई। शासक की संख्या तथा राज्य के उद्देश्य की दृष्टि के अरस्तु ने राज्यों को कई वर्गों में बाँटा है।
राज्यों का वर्गीकरण
1. अरस्तू के अनुसार जब राजसत्ता किसी एक व्यक्ति के हाथ में होती है तथा उसका लक्ष्य जन-कल्याण करना होता है, तब उसे राजतंत्र कहा जाता है, किन्तु जब सजा -निरंकुश व भ्रष्ट हो जाएं, तब यही व्यवस्था निरंकुशतंत्र में परिजित हो जाती है।
2. राजा की निरंकुशता गुटबन्दी को जन्म देती है तथा शासन सत्ता कुछ प्रभावशाली व्यक्तियों के हाथ में केन्द्रित हो जाती है। इस प्रकार की शासन व्यवस्था जब तक जनहित के लिए कार्य करती है, इसे कुलीनतंत्र कहा जाता है, किन्तु जब यही विकार ग्रस्त हो जाती है, तब इसे गुटतंत्र कहा जाता है।
3. गुटतंत्र जन-विद्रोह को जन्म देता है। फलस्वरूप सत्ता पर सम्पूर्ण जनता का नियंत्रण हो जाता है। जब तक यह सरकार सर्वसाधारण के हित के लिए कार्य करती है, तब तक इसे बहुतंत्र कहा जाता है, किन्तु इसके विकृत हो जाने पर इसे लोकतंत्र कहा जाता है। तत्पश्चात् यह प्रक्रिया राजतंत्र को जन्म देती है। सरकारों के परिवर्तन का यह क्रम जारी रहता है।
नागरिकता की अवधारणा
नागरिकता की अवधारणा यूनानी नगर-राज्यों से प्रारंभ हुई। नागरिकता व्यक्ति तथा राज्य के परस्पर सम्बन्ध को दर्शाती है, जिसके अनुसार व्यक्ति राज्य के आदेशों का पालन करता है तथा राज्य उसे सुरक्षा प्रदान करता है। अरस्तू की नागरिकता की अवधारणा का प्रश्न राज्य से जुड़ा है। उसके अनुसार “राज्य बाह्य दृष्टि से नागरिकों का समुदाय है।” किन्तु राज्य में निवास करने वाला प्रत्येक व्यक्ति नागरिक नहीं होता है। नागरिक वहीं है, जो व्यवस्थापिका तथा न्याय व्यवस्था के सदस्य के रूप भाग लेता है, साथ ही वह शासन करने व शामिल होने का ज्ञान तथा योग्यता रखता है।
नागरिक कौन हो सकता है और कौन नहीं
“नागरिक कौन है” तथा “नागरिकता से क्या तात्पर्य है”- इन प्रश्नों का उत्तर अरस्तू ने निषेधात्मक रूप से दिया है। अर्थात् सर्वप्रथम वह यह बताता है कि नागरिक कौन नहीं हो सकते हैं।
(i) नागरिकता का आधार निवास नहीं है, किन्तु राज्य में निवास करने वाले अवयस्क, दास, महिलाएं तथा विदेशी नागरिक नहीं होते।
(ii) किसी पर अभियोग चलाने का अधिकार रखने वाला व्यक्ति नागरिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि राज्य में रहने वाले विदेशियों की सम्पत्ति आदि की रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है। क्षति होने पर विदेशियों को भी मुकदमा दायर करने का अधिकार मिलता है।
(iii) जिस व्यक्ति के माता-पिता दूसरे राज्य के नागरिक हैं, वह भी नागरिक नहीं माना जाएगा।
(iv) निष्कासित तथा मताधिकार से वंचित व्यन्ति भी नागरिकता से वंचित रहेगा। अरस्तु ने इस श्रेणी में देशद्रोहियों, कुख्यात अपराधियों तथा सेना से भागे हुए सैनिकों को रखा है।
(v) अरस्तू ने महिलाओं को दायित्व और योग्यता के आधार पर नागरिकता से वंचित रखा है। उसके अनुसार महिलाएँ सार्वजनिक पदों के योग्य नहीं हैं। उनका कार्य बच्चों का पालन-पोषण करना है। यदि वे सार्वजनिक जीवन में भाग लेने लगेंगी तो उनका घरेलू दायित्व बाधित होगा, जो उचित नहीं है।
(vi) अरस्तू दासप्रथा का समर्थक है। उसके अनुसार कुछ व्यक्ति जन्म से मन्दबुद्धि होते हैं तथा दासता के लिए जन्म लेते हैं। ये शारीरिक श्रम करते हैं तथा दूसरों (स्वामियों) के नियंत्रण में रहते हैं। इनके पास सार्वजनिक कार्य हेतु न समय है, न ही योग्यता। अतः दास नागरिक नहीं हो सकते।
(vii) अरस्तू ने श्रमिकों तथा कारीगरों को भी नागरिकता की श्रेणी से बाहर रखा है। ये व्यक्ति शारीरिक श्रम करते हैं तथा भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कार्य करते हैं। अतः शासन-कार्य या बौद्धिक कार्य के लिए इनके पास अवकाश नहीं होता है। इसमें शासन करने की योग्यता नहीं होती। अरस्तू के अनुसार प्रत्यक्ष लोकतंत्र में यांत्रिकों को नागरिकता का अधिकार दिया जा सकता है, किन्तु राजतंत्र या कुलीनतंत्र में यह सम्भव नहीं है।
(viii) अवयस्क या बच्चे भी नागरिकता से वंचित रखे गए हैं। अरस्तू ने वयस्क होने की आयु सीमा निर्धारित नहीं की है।
नागरिक कौन हैं?
अरस्तू ने नागरिकता को कार्यों के संदर्भ में परिभाषित किया है। उसके अनुसार, “नागरिकता का अर्थ है- राज्य की सर्वोच्च शक्ति में सक्रिय भागीदारिता” राज्य के सभी निवासी स्वाभाविक रूप से राज्य के नागरिक नहीं होते। नागरिक वही हैं, जो-
(अ) राज्य का क्रियाशील सदस्य होते हुए न्यायिक प्रशासन तथा सार्वजनिक कार्यों में भाग ले।
(ब) वह आम सभा का सदस्य होने के नाते विधायी कार्य में भाग ले।
तत्कालिक नगर-राज्यों (एथेन्स) में प्रत्येक नागरिक द्वारा न्यायिक प्रशासन में भाग लेना इस कारण संभव था, क्योंकि तब थोड़ी-थोड़ी अवधि के लिए न्यायधीशों को क्रमशः चुना जाता था तथा प्रत्येक नागरिक को (संख्या कम होने के कारण) यह पद प्राप्त सकता था। उस समय सभी नागरिक साधारण (आम) सभा के सदस्य होते थे, जो वर्ष में कम कम एक बार एकत्रित होकर राज्य के पदाधिकारियों का निर्वाचन करते तथा विधि निर्माण सम्बन्धी कार्य करते थे।
अरस्तू के अनुसार नीति-निर्धारण तथा न्यायिक कार्यों में भाग लेने के लिए उच्च स्तरीय नैतिक तथा बौद्धिक श्रेष्ठता की आवश्यकता होती है, जिसे वह सद्गुण करता है। यह सद्गुण प्रत्येक निवासी (स्त्रियों, बालकों, दासों, श्रमिकों आदि) में नहीं पाया जाता। बौद्धिक श्रेष्ठता या चिन्तन की क्षमता के लिए अवकाश का होना आवश्यक है।
अरस्तू ने छुट्टी या विश्राम के क्षणों को अवकाश नहीं माना। उसके अनुसार, “जिन कार्यों को करने के लिए मनुष्य अपनी आर्थिक तथा भौतिक आवश्यकताओं के कारण विवश है, उनके अतिरिक्त लगभग सभी क्रियाएँ अवकाश के अन्तर्गत आती हैं। इस प्रकार दास व श्रमिक अवकाश के क्षण नहीं पाते। साथ ही अरस्तू का विचार है कि शारीरिक श्रम मस्तिष्क को कुंठित कर देता है। अतः बौद्धिक कार्य या शासन कार्य करने हेतु बुद्धिजीवियों को पर्याप्त अवकाश चाहिए। वे सामाजिक दायित्वों का निर्वाह तभी उचित प्रकार से कर पाएँगे, जबकि वे आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त हों। इस प्रकार अरस्तू ने माना है कि जो व्यक्ति नैतिक व बौद्धिक क्षमता नहीं रखते तथा अवकाश के क्षण नहीं पाते, वे नागरिक नहीं हो सकते। अरस्तू आनुपातिक समानता का पक्षधर है अर्थात् समान लोगों के साथ समानता तथा असमान लोगों के साथ असमानता का व्यवहार उचित है। दूसरे शब्दों में, योग्यता व क्षमता के आधार पर ही (नागरिकता का) अधिकार दिया जाएं।
नागरिक के गुण
अरस्तू ने अच्छे व्यक्ति तथा अच्छे नागरिक में भेद किया है। अच्छे मानव का लक्षण सभी राज्यों में एक समान है, किन्तु अच्छे नागरिक होने के लिए योग्यता व क्षमता के साथ-साथ उसमें अच्छे मानव के भी गुण होने चाहिए। नागरिकों के गुणों का निश्चय शासन-प्रणाली द्वारा होता है, अर्थात् भिन्न-भिन्न शासन-प्रणालियों में नागरिकों के गुण परस्पर भिन्न हो सकते हैं।
अच्छे नागरिक में शासक व शासित दोनों के गुण होने चाहिए। लोकतांत्रिक व्यवस्था में वह नीति-निर्माता व न्यायकर्त्ता है, किन्तु वह कानून से ऊपर नहीं है। आज्ञा पालन की दृष्टि से वह सेनापति भी है तथा सैनिक भी। वह अनुभवी तथा शिक्षित हो, आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त हो तथा सार्वजनिक कार्य करने हेतु उसके पास अवकाश हो। वह . साहसी, समझदार व संयमी हो ।
अरस्तू ने नागरिकता के लिए जो अनिवार्य गुण बताए हैं, वे राज्य के सभी निवासियों पर लागू नहीं होते हैं। अत: यूनानी नगर-राज्यों की थोड़ी-सी जनसंख्या ही नागरिकता पाने की अधिकारी थी। उसके नागरिकता सम्बन्धी विचार अत्यन्त अनुदार व अभिजाततंत्रीय हैं। एक ओर श्रमिकों को नागरिकता से वांचित करके वह वर्गीय भेद-भाव को बढ़ावा देता है तथा नागरिकता को केवल उच्च वर्ग तक ही सीमित रखता है, दूसरी ओर महिलाओं को नागरिकता का दर्जा न देकर वह लिंग-भेद का पक्ष लेता है। दास प्रथा के सम्बन्ध में उसके विचारों की आलोचना की जाती है। अरस्तू द्वारा ‘कुलीनतंत्र’ को उत्तम शासन प्रणाली कहे जाने को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि नागरिकता उन्हीं व्यक्तियों को प्रदान की जाएं, जो आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त होते हुए पर्याप्त अवकाश भी प्राप्त करते हैं, तो नि:संदेह उनके द्वारा निर्धारित नीतियाँ धनी वर्ग के ही पक्ष में होंगी। इससे लोकतंत्र के स्थान पर वर्गतन्त्र को बढ़ावा मिलेगा। इस व्यवस्था में नागरिकता अल्पसंख्यक वर्ग तक सीमित होकर बहुसंख्यक वर्ग के शोषण का कारण बनेगी। इसके अतिरिक्त …अरस्तू ने नागरिक के कर्त्तव्यों का तो वर्णन किया है, किन्तु अधिकारों का स्पष्टीकरण नहीं किया है। अन्ततः अरस्तू के नागरिकता सम्बन्धी विचार दोषपूर्ण होते हुए भी इस दृष्टि से उपयोगी हैं कि वह नागरिकता प्राप्ति के लिए शासन में सहभागिता को आवश्यक मानता है।
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