पद्मावत महाकाव्य में नागमती का विरह-वर्णन अद्वितीय है।” सोदाहरण समझाइए।
अथवा
‘नागमती-वियोग-वर्णन’ के वैशिष्ट्य का उद्घाटन कीजिए।
अथवा
“नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अद्वितीय कृति है।” सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
अथवा
नागमती के विरह वर्णन की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
पद्मावत में नागमती का विरह-वर्णन प्रवासजन्य है।
रत्नसेन के योगी होकर चले जाने के बाद नागमती वियोग के अथाह सागर में गोते लगाती दिखायी पड़ती है। उसकी आँखों से बहनेवाले आँसुओं से सारी सृष्टि भीगी हुई दिखायी पड़ती है-
कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई। रकत आँसु घुँघुची बन बोई॥
जहँ-जहँ ठाढ़ि होइ बनबासी तहँ तहँ होइ घुँघुचिन्ह कै रासी ॥
बूँद बूँद महँ जानहु जीऊ। गुंजा गुंजि करहिं पिउ पीऊ॥
तेहि दुख भये परास निपाते। लोहू बूड़ि उठे परभाते॥
राते बिम्ब भए तेहि लोहू परवर पाक फाट हिय गोहूँ ॥
नागमती जिस ओर भी दृष्टिपात करती है, सभी उसे दग्ध दिखायी पड़ते हैं। उसकी इसी अवस्था के चित्रण में कवि बारहमासे की आयोजना करता है। साल के बारहों महीने नागमती प्रिय के विरह में सिर घुनती है। वह इतनी हठभागिनी है कि कोई प्रिय तक उसका सन्देश ले जानेवाला ही नहीं है। बारहमासे के चित्रण के बीच कवि ने नागमती का जो मनोवैज्ञानिक चित्र प्रस्तुत किया है, वह सर्वथा सराहनीय है।
विरह-व्यथा से व्याकुल नागमती जड़ और चेतन का ज्ञान भुलाकर जो मिलता है उसी से रत्नसेन की खबर पाने का प्रयत्न करती है। वह प्रत्येक मनुष्य से रत्नसेन के बारे में पूछने के बाद पशु-पक्षियों से भी प्रायः पूछना प्रारम्भ करती है। जायसी कहते हैं-
बरिस देवस धनि रोइ कै, हारि परी चित झाँखि ॥
मानुस घर-घर पूँछि कै, पूँछ निसरी पाँखि॥
नागमती अपने पति के वियोग का मूल कारण सुआ को ही मानती है। वह कहती है कि मुझे छलने का कारण वह सुआ है। उसने मुझे उसी प्रकार छला है जैसे राजा बलि को बावनावतारी भगवान ने छला था-
सुवा काल होड़ लै गा पीऊ। पिठ नहिं लेत लेत बरु जीऊ॥
भएउ नरायन बावन करा राज करत बलि राजा छरा॥
नागमती का विरह समस्त संसार को हिलानेवाला है। जो सुनता है वही नागमती के करुण क्रन्दन पर बेसुध हो जाता है। नागमती जब पक्षी से अपनी बातें करती है तो उस समय उसकी आँखों में करुणा, दया, क्षोभ का सागर लहराता दिखायी पड़ता है। अपनी करुण कहानी को वह पक्षी से कैसे कहती है उसका एक चित्र इस प्रकार है। नागमती का सन्देह इस प्रकार है-
फिरि फिरि रोइ न कोई डोला। आधी रात विहंगम बोला ॥
तैं फिरि-फिरि दाहै सब पाँखी। केहिं दुख रैनि न लावसि आँखी ॥
नागमती अपने तथा राजा की जोड़ी को सारस की जोड़ी मानती है। वह कहती है कि सारस की एक जोड़ी को हर लेने से क्या लाभ हुआ। कहा जाता है कि सारस जब भी अकेला रह जाता है तो वह रो-रोकर मर जाता है। नागमती की स्थिति वैसे ही हो गयी है। वह विरह की आग में जल-जलकर मरी जा रही है। इस आशय का पद इस प्रकार है-
सारस जोरी किमि हरी मारि गएउ किन खग्गि।
झुरि झुरि पाँजर धनि भई बिरह कै लागी अग्गि।।
नागमती विरह के बाण के लगने से व्यथित है। वह कामाधिक्य के कारण बेहाल है। वह जब रोती है तो उसकी आँख से रक्त के आँसू गिरा करते हैं। अब वह स्त्री हाहाकार करके प्राण त्याग देनेवालीहै। उसकी श्वास अब ठिकाने पर नहीं है। कभी एक क्षण आती है और कभी एक क्षण रुक जाती है। अब वह मर ही जानेवाली है।
नागमती अपने पति के वियोग में खून के आँसू गिरा रही है। सारा वन जो घुँघुचियों से लद गया तो उसके पीछे उसका आँसू ही है। वह रो-रोकर सारे जंगल को भर दे रही है। सखियों को हिण्डोले पर चढ़ती देखकर, उसका विरह उसके शरीर को कैंपाये डाल रहा है। हारकर नागमती अपनी नैया के खेनेवाले को बारम्बार बुलाती है क्योंकि पति के अभाव में उसके जीवन को खेनेवाला कोई नहीं है-
रकत के आँसु परे भुइँ टूटी। रेंगि चली जनु बीर बहूटी
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला। हरियर भुइँ कुसुंभि तन चोला ॥
X X X
जब जल बूड़ि जहाँ लगि ताकी। मोर नाव खेवक बिनु थाकी ॥
नागमती का दिन तो किसी प्रकार कट जाता है, परन्तु उसकी रात्रि पिय के वियोग में काटे से नहीं कटती है। आँधी-पानी की अंधेरी रात पिय के वियोग में नहीं कटती है। वह रात में अकेली रहने पर पाटी के सहारे रात बिताती है और सारी रात आँख को फैलाकर पिय की तलाश करती मरती रहती है। मघा नक्षत्र में जब घनघोर वर्षा होती है तो उसकी आँखों से इतना पानी गिरता है मानो मघा के पानी की ओरती उसकी पलकें ही बन गयी हैं। अब वह अपने पिय के वियोग से प्रतिदिन सूखती ही जा रही है-
भर भादौं दूभर अति भारी। कैसे भरौं रैनि अँधियारी।
मंदिर सून पिय अन्तै बसा। सेज नाग भै धै धै डसा ॥
रहाँ अकेलि गहें एक पाटी। नैन पसारि मरौं हिय फाटी॥
X X X
बरिसै मघा झँकोरि झँकोरी। मोर दुइ नैन चुवहिं जसि ओरी॥
नागमती पति वियोग में बेसहारा हो चुकी है और अब वह सहारा प्राप्त करने के लिए बड़ी बेचैन है —
जल थल भरे अपूरि सब गगन धरति मिलि एक।
धनि जोबन औगाह महँ दै बूड़त पिय टेक॥
नागमती रोकर सारा आकाश भर दे रही है। वह स्थावर जंगम सबसे विनम्र प्रार्थना करती है। भँवरा तथा काग से वह अत्यन्त विनम्र होकर कहती है और अपनी दयनीय दशा व्यक्त करती है-
पिय सौं कहेहु संदेसरा ऐ भँवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहै जरि गयी तेहिक धुआँ हम लाग॥
नागमती पति को चाहती है लेकिन यदि पति न भी मिले तो उसके पैरों की धूल ही मिल जाय।। नागमती का अटूट स्नेह यहाँ पर अवलोकनीय है-
रातिहु देवस इहै मन मोरे लागौं कंत छार जेउँ तोरे ॥
यह तन जारौं छार कै कहाँ कि पवन उड़ाउ।
मकु तेहि मारग उड़ि परौं, कंत धरै जहँ पाउ।।
जायसी ने विरह-वर्णन में विरह की सभी दशाओं का चित्रण किया है, उनमें से कुछ दशाओं के चित्र यहाँ प्रस्तुत हैं—
(क) चिन्ता – नागमती चितउर पथ हेरा। पिठ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा॥
नागरि नारि काहुँ बस परा। तेइँ बिमोहि मोसौं चितु हरा।
(ख) उन्माद- ना पावस ओहि देस रे ना हेवन्त बसन्त ।
ना कोकिंल ना पपीहरा केहि सुनि आवहि कन्त॥
(ग) मूर्च्छा- सखि हिय हेरि हेरि मन मारी। हहरि परान तजै अब नारी ॥
खिन एक आव पेट महँ स्वाँसा। खिनहिं जाइ सब होइ निरासा ॥
(घ) मरण- रकत ढरा माँसू गरा, हाड़ भए सब संख।
धनि सारस होइ ररि मुई, आइ समेटहु पंख।
(ङ) अभिलाषा- यह तन जारौं छार के, कहाँ कि पवन उड़ाउ
मक तेहि मारग उड़ि परौं, कंत धरै जहँ पाउ।।
विरह-ताप की मात्रा का आधिक्य सूचित करने के लिए जायसी ने ऊहात्मक या वस्तु व्यञ्जनात्मक शैली का अवलम्बन लिया है। कवि विरह-ताप के प्रभाव की व्यापकता को बढ़ाता बढ़ाता सृष्टि भर में दिखा देता है, यथा-
अस परजरा बिरह कर कठा। मेघ स्याम भै धुआँ जो उठा।
दाधे राहु, केतु गा दाधा सूरुज जरा, चाँद जरि आधा॥
औ सब नखत तराई जरहीं टूटहिं लूक, घरति महँ परहीं॥
जरी सो धरती ठाँवहिं ठावाँ ढंख परास जरे तेहि दाव॥
इन पंक्तियों के प्रति डॉ0 कमल कुलश्रेष्ठ के विचार अत्यन्त उपयुक्त हैं-“व्यथा अपनी सारी मधुरता, विरह अपनी सारी मिठास, प्रणय अपने सारे स्थायित्व और नारी अपनी चरम भावुकता के साथ इन शब्दों में साकार होकर बोल रही है। वेदना का जितना निरीह निवारण, मार्मिक, गम्भीर, निर्मल एवं पावन स्वरूप इस विरह-वर्णन में मिलता है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है।”
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