मापक का अर्थ और परिभाषा लिखिए। मानसिक और भौतिक मापन का वर्णन कीजिए।
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मापन का अर्थ एवं परिभाषा
आधुनिक युग में हमारे जीवन में मापन का महत्वपूर्ण स्थान है। जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति का जीवन मापदण्ड द्वारा मापा जाता है। जन्म के समय नवजात शिशु के स्वास्थ्य का मापन करने के लिए उसके शारीरिक भार को मापा जाता है। उसकी शारीरिक वृद्धि के साथ-साथ उसके भोजन की मात्रा निर्धारित की जाती है। विभिन्न विज्ञानों के विकास में मापन विधियों का योग रहा है। मानव शरीर के तापक्रम, रक्तचाप, नाड़ी की गति व दिल की धड़कन के मापन की विधियों के कारण ही चिकित्सा विज्ञान का विकास हुआ। कृषि विज्ञान का विकास भी मिट्टी, बीज के गुण विभिन्न उपजों के लिए जल, वायु की सही मात्रा के मापन के कारण हुआ। बालक की शिक्षा योजना बनाते समय उसके मानसिक स्तर और क्षमताओं को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। उनके सर्वांगीण विकास के लिए शैक्षिक उपलब्धि एवं व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं का मापन एवं मूल्यांकन करना आवश्यक होता है। मापन की सहायता से बालक में उन गुणों का विकास सम्भव है जो उसे अपने स्वयं के और समाज के कल्याण में सहायक हों।
वास्तव में मापन से अभिप्राय मात्रात्मक मूल्य से होता है। इसमें वस्तु, घटना, निरीक्षण तथा सामान्य व्यवहार का वर्णन अंकों के द्वारा करते हैं।
मापन की परिभाषा :
स्टीवेन्स के अनुसार- “मापन किन्हीं निश्चित स्वीकृत नियमों के अनुसार वस्तुओं को अंक प्रदान करने की प्रक्रिया है। “
हेल्मस्टेडलर के अनुसार- “मापन को एक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसमें किसी व्यक्ति या पदार्थ में निहित विशेषताओं का आंकिक वर्णन होता है। “
गिलफोर्ड के मतानुसार- “मापन वस्तुओं या घटनाओं को तर्कपूर्ण ढंग से संख्या प्रदान करने की क्रिया है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि मापन का अर्थ है किन्हीं निश्चित इकाइयों में किसी वस्तु या गुण के परिमाण का पता लगाना। शिक्षा के क्षेत्र में जब हम एक विद्यार्थी की योग्यता या विशेषता की मात्रा को गणितीय इकाइयों में व्यक्त करते हैं, तो वह मापन कहलाता है।
मानसिक एवं भौतिक मापन (MENTALAND PHYSICALMEASUREMENT)
मनोवैज्ञानिक मापन को मुख्यतः दो वर्गों में बाँटा जा सकता है- मानसिक मापन एवं भौतिक मापन। मानसिक मापन के अन्तर्गत कई क्रियाओं तथा शीलगुणों, जैसे-सृजनात्मकता, बुद्धि, अभियोग्यता, अभिरुचि, रुचि इत्यादि का मापन किया जाता है; जबकि भौतिक मापन में भौतिक गुणों तथा विशेषताओं, जैसे- भार, लम्बाई, दूरी, ऊँचाई इत्यादि का मापन किया जाता है।
अन्तर- मानसिक एवं भौतिक मापन में निम्नवत् अन्तर हैं-
(i) मानसिक मापन की प्रकृति सापेक्षिक होती है, लेकिन भौतिक मापन की प्रकृति निरपेक्ष होती है अर्थात् मानसिक मापन में अंकों का स्वत: कोई महत्व नहीं होता, लेकिन भौतिक मापन में अंक बहुत अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। उदाहरण-अगर किसी व्यक्ति ने बुद्धि परीक्षण में 65 अंक हासिल किये हैं तो इसके माध्यम से हमें किसी वास्तविक तथ्य की उचित जानकारी नहीं होती क्योंकि 65 अंकों में खुद अपना कोई महत्व नहीं है। जबकि किसी कमरे की लम्बाई 25 मीटर अथवा किसी व्यक्ति का भार 70 किलोग्राम है तो ये अंक यहाँ पर अपनी महत्ता बनाये रखते हैं।
(ii) मानसिक मापन, भौतिक मापन की अपेक्षा अत्यधिक परिवर्तनीय होते हैं। उदाहरण- अगर एक कमरे की लम्बाई एक वर्ष के पश्चात् भी मापें तो हम उसमें बिल्कुल भी बदलाव नहीं पायेंगे, जबकि एक बालक की बुद्धि आज मापें तथा एक वर्ष के पश्चात् मापें तो बुद्धिलब्धि में निश्चित रूप से भिन्नता पायेंगे, क्योंकि बालक की बुद्धि पर समय, अभ्यास, परिपक्वता एवं स्मृति का भी प्रभाव पड़ता है।
(iii) उद्गम के दृष्टिकोण से, मानसिक मापन का आरम्भ बुद्धि-दौर्बल्य की समस्या के माध्यम से एवं भौतिक मापन का आरम्भ प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के फलस्वरूप माना जा सकता है।
(iv) मानसिक मापन में कोई भी यादृच्छ शून्य बिन्दु (Arbitrary zero point) नहीं होता, जिस जगह से मापन आरम्भ किया जा सके; लेकिन भौतिक मापन के अन्तर्गत एक यादृच्छ शून्य बिन्दु होता है।
मापन की त्रुटियाँ
मापन चाहे भौतिक हो अथवा मानसिक दोनों ही दशाओं में त्रुटि की सम्भावनाएँ रहती हैं। इतना जरूर है कि भौतिक वस्तुओं के मापन में त्रुटि की यात्रा, मानसिक शक्तियों के मापन त्रुटि की अपेक्षा कम रहती है ।
मापन त्रुटि से हमारा आशय किसी व्यक्ति के माध्यम से परीक्षण के आधार पर मिले वास्तविक अंक एवं अनुमानित अंकों में मिलने वाले अन्तर से है। उदाहरण-माना एक अंग्रेजी परीक्षा में एक विद्यार्थी को 100 में से 80 अंक प्राप्त हुए हैं, लेकिन अन्य अंग्रेजी परीक्षण देने पर उसे 100 में से 55 अंक ही प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार यह 25 अंकों का अन्तर उस परीक्षण अथवा मापन की त्रुटि कहलायेगा।
मापन की त्रुटियों के प्रकार
मापन की त्रुटियों के मुख्यतः दो प्रकार हैं-
(1) आकस्मिक अथवा संयोग त्रुटि –
आकस्मिकं त्रुटियाँ वे होती हैं जो अचानक अथवा संयोग से पैदा हो जाती है। परीक्षा देते वक्त कुछ ऐसी परिस्थितियाँ अथवा रुकावटें पैदा हो जाती हैं, जिनसे हमारे परीक्षण परिणाम परोक्षत प्रभावित होते हैं। उदाहरण-परीक्षा देते समय बाहर अत्यधिक शोर-शराबा होना, परीक्षा अवधि में परीक्षार्थी को शारीरिक परेशानी होना, न्यादर्श में कुछ इकाइयों का अनुपस्थित रहना, परीक्षा-निर्देशों को ध्यानपूर्वक पढ़े बगैर उत्तर देना, परीक्षार्थी को अकारण कुछ याद न आना, परीक्षा भवन में सुविधाजनक फर्नीचर तथा रोशनी की व्यवस्था न होना, आँधी-तूफान चलना इत्यादि कई ऐसे अवरोधक तथा परिस्थितियाँ हैं जो परीक्षा के परिणामों को त्रुटिपूर्ण बना देते हैं। इन त्रुटियों की दिशा भी हमेशा एक-समान नहीं होती। कभी इनकी दिशा धनात्मक, तो कभी ऋणात्मक होती है। इस त्रुटि की वजह से कभी छात्रों के अंक बढ़ते हैं, तो कभी कम हो जाते है।
हमें आकस्मिक त्रुटि का स्वरूप तीन तरह से देखने को मिलता है-
(क) परीक्षण केन्द्रित त्रुटि, (ख) विद्यार्थी केन्द्रित त्रुटि, (ग) मूल्यांकन केन्द्रित त्रुटि ।
(क) परीक्षण केन्द्रित- त्रुटि के अन्तर्गत वे समस्त त्रुटियाँ सम्मिलित होती हैं जो परीक्षण से सम्बन्धित परिस्थितियों के कारण पैदा होती हैं, जैसे-परीक्षा-कक्ष में उचित फर्नीचर न होना, प्रकाश की उचित व्यवस्था न होना, सभी को समान समय न मिलता, परीक्षक के माध्यम से परीक्षार्थियों को उचित निर्देश न देना, परीक्षार्थियों को उत्तर पुस्तिका का वितरण परीक्षा के समय की बजाय देर से करना इत्यादि। कोई भी परीक्षण उन समस्त पदों को अपने में समाविष्ट नहीं कर पाता, जो कि समस्त आबादी का सही प्रतिनिधित्व कर सके।
(ख) विद्यार्थी केन्द्रित- त्रुटियाँ आकस्मिक त्रुटियों में होती हैं जो उन छात्रों से सम्बन्धि जात होती हैं, जिन पर परीक्षण प्रशासित किया गया है। परीक्षा प्रशासन की अवधि में छात्रों का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य, उनकी संवेगात्मक अस्थिरता, उनके मनोबल, उनकी कार्य-शक्ति, उनकी अभिप्रेरणा, कार्य के प्रति रुचि अथवा अरुचि होना इत्यादि में जो विचलन होते हैं, वे सब परीक्षा परिणामों को प्रभावित करते हैं।
(ग) आकस्मिक त्रुटियों- में फलांकन त्रुटियाँ भी सम्मिलित होती हैं। वस्तुनिष्ठ परीक्षणों की अपेक्षा, निबन्धात्मक परीक्षणों के मूल्यांकन में आत्मनिष्ठता ज्यादा होती है। निबन्धात्मक परीक्षणों में हर एक परीक्षक का मूल्यांकन करने का भिन्न-2 ढंग होता है। कुछ परीक्षक उत्तर की शब्द-सीमा की देखते हैं, कुछ परीक्षक लेखन शैली को देखकर उत्तर देते हैं।
(2) क्रमिक त्रुटियाँ-
क्रमिक त्रुटियों को पक्षपात त्रुटियाँ भी कहा जाता है। ये त्रुटियाँ अविरल होती हैं अर्थात् ये मापांकों को समानतः एक ही दिशा में या तो घटाती हैं या बढ़ाती हैं। इन त्रुटियों के प्रमुख कारणों में व्यक्तिगत द्वेष, दूषित विचारधाराएँ, गलत परीक्षण, गलत सिद्धांत, पूर्वाग्रह, पूर्व-धारणाएँ इत्यादि हैं। क्रमिक त्रुटियों के तीन स्वरूप हैं, यथा-(i) व्यक्तिगत त्रुटियाँ, (ii) भूलें, एवं (iii) निर्दिष्ट योग्य त्रुटियाँ |
(i) व्यक्तिगत त्रुटियाँ- परीक्षणकर्त्ता की सतर्कता की कमी में अथवा असावधानी की वजह से घटित होती हैं। उदाहरणार्थ- T-test, F-test, NPC-table में तालिका को उचित प्रकार से न पढ़ पाना, लोलक की चाल निकालने सम्बन्धी उपयोग में Stop watch का उचित उपयोग न कर पाना, किसी परीक्षण सम्बन्धी Manual को न पढ़ पाना, गणितीय सूत्र गलत ढंग से उपयो करना, थर्मामीटर की सही ढंग से न पढ़ पाना इत्यादि त्रुटियाँ शोधकर्त्ता के पक्ष से ही परीक्षतः जुड़ी रहती हैं।
(ii) क्रमिक त्रुटियों- में भूलें भी सम्मिलित होती हैं। प्रायः भूलें उस समय ज्यादा हो जाती हैं जबकि निरीक्षण लिखे जा रहे हों, जैसे- S.D. निकालते समय C.I. का गुणा करना भूल जाना, ऋणात्मक-धनात्मक संख्याओं को जोड़ते समय संकेतों का ध्यान न देना, 0.5 की जगह 50 लिख देना इत्यादि। इन भूलों का उपयोग एवं परीक्षणों के परिणामों पर विशेष प्रभाव पड़ता है। इन त्रुटियों को खत्म करने हेतु निरीक्षण लिखते समय तथा गणताएँ करते समय प्रयोगकर्ता तथा परीक्षणकर्ता को विशेष रूप से सावधान रहना चाहिए।
(iii) क्रमिक त्रुटियों- में निर्दिष्ट योग्य त्रुटियाँ भी समाहित रहती हैं। ये त्रुटियाँ कुछ अनियंत्रित कारकों की वजह से पैदा होती हैं। यह उल्लेखनीय है कि सभी कारकों को नियंत्रित करना असम्भव से सावधान होता एवं अनियंत्रित कारक, परीक्षण परिणामों को प्रभावित कर देते है।
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