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रीतिकाल के नाम के औचित्य पर विचार कीजिए और उस काल की कविता की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
सांस्कृतिक दृष्टिकोण से रीतिकाव्य का मूल्यांकन कीजिए।
रीति युग सम्वत् 1700 से लेकर सम्वत् 1900 तक के बीच का युग है। इस युग को आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने शृंगार काल, डॉ० रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ ने कला काल और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रीतिकाल कहा है मिश्र बन्धुओं ने उत्तर मध्यकाल में अलंकारों की प्रवृत्ति के आधिक्य को देखकर उसे अलंकार काल कहा था लेकिन इन तमाम नामों में रीतिकाल नाम ही अधिक प्रचलित है।
नामकरण- ‘रीति’ शब्द नया नहीं है। संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रमुख पाँच सम्प्रदायों में रीति सम्प्रदाय भी है। संस्कृत में ‘रीति’ शब्द विशिष्ट पद रचना, कवि प्रस्थान हेतु, काव्य मार्ग आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ है किन्तु हिन्दी में ठीक वही अर्थ नहीं ग्रहण किया गया। यहाँ रीति का अर्थ विस्तार हो गया है। हिन्दी में प्रायः लक्षण ग्रन्थों में यदि काव्य रचना सम्बन्धी नियमों और सिद्धान्तों का विवेचन किया गया हो तो उन्हें रीतिग्रन्थ कहते हैं। आचार्य शुक्ल ने इसी व्यापक अर्थ में रीतिकाल नाम रखा है।
इस नामकरण की भी कुछ सीमाएँ हैं। रीतिकाल सम्बोधन से ऐसे कवियों का बोध होता है जिनमें कवित्व और आचार्यत्व का सम्मिलन हो। जो स्वतन्त्र रूप से काव्य रचना न करके लक्षण उदाहरण की सीमा में बँधकर काव्य रचना करते थे। लेकिन इन आचार्य कवियों के अतिरिक्त कवियों का एक ऐसा भी वर्ग था जो रीति की परिपाटी से बँधा नहीं था, जिनका प्रयोजन केवल कविता करना था, कविता सिखाना नहीं। जो शास्त्र और काव्य दोनों परम्पराओं से मुक्त थे, ऐसे कवियों को शुक्लजी ने ‘रीतिकाल के अन्य कवि’ नामक स्वतन्त्र प्रकरण के अन्तर्गत रखा है।
नामकरण के मूल में मुख्य विवाद रीतिकाल और शृंगार काल के नाम को लेकर है। आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल ने लक्षण-लक्ष्य के व्यापक अर्थ में ‘रीति’ शब्द को ग्रहण करते हुए इस युग को रीतिकाल कहा। भक्तिकाल में प्रभूत साहित्य की रचना हो जाने के पश्चात् 17वीं शताब्दी तक आते-आते हिन्दी साहित्य काफी प्रौढ़ता प्राप्त कर चुका था। काव्य कृतियों की प्रभूत रचना के पश्चात् हिन्दी में कुछ कवियों का ध्यान काव्यांग निरूपण की ओर गया और उन्होंने रस, अलंकार, छन्द, नायिका भेद आदि का लक्षण विवेचन भी किया। काव्य रचना के साथ ही उसकी अन्तरात्मा का अनुसंधान अथवा कवि कर्म के साथ आचार्य कर्म की दुहरी प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर शुक्लजी ने रीतिकाल नाम रखा।
रीतिकालीन विभिन्न काव्य धाराएँ
भक्तिकाल तक हिन्दी काव्य प्रौढ़ता को पहुँच चुका था। भक्त कवियों ने अपने आराध्य व लीला वर्णन में लौकिक रस का जो क्षीण रूप प्रस्तुत किया था, उत्तर मध्यकालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अनुकूल परिस्थितियाँ पाकर वह पूर्ण ऐहिकतापरक प्रधानतः शृंगाररस के रूप में विकसित हुआ। भक्तिकालीन कवियों में सर्वप्रथम नन्ददास ने नायिका भेद पर ‘रस मंजरी’ नाम की पुस्तक की रचना की। संस्कृत की काव्यशास्त्रीय परम्परा पर हिन्दी काव्य में ‘रसिकप्रिया’ इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके बाद हिन्दी रीति ग्रन्थों की परम्परा निरन्तर विकसित होती गयी। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इस युग के सम्पूर्ण साहित्य को ‘रीतिबद्ध’, ‘रीतिमुक्त’ और ‘रीतिसिद्ध’ वर्गों में बाँटा गया है।
रीतिकाल की सामान्य विशेषताएँ
रीतिकालीन कवियों के प्रमुख वर्ण्य विषय प्रायः एक से थे जिनमें राज्य विलास राज्य प्रशंसा, दरबारी कला विनोद, मुगलकालीन वैभव, अष्टयाम, संयोग-वियोग वर्णन, ऋतु वर्णन, किसी सिद्धान्त के लक्ष्य लक्षणों का वर्णन, शृंगार के अनेक पक्षों के स्थूल एवं मनोवैज्ञानिक चित्रों की अवतारणा आदि विषय प्रायः सभी कवियों के किसी न किसी रूप में वर्ण्य हुआ करते थे। इस काल की सामान्य विशेषताओं को इस प्रकार देखा जा सकता है-
(1) शृंगारिकता- यह प्रवृत्ति रीतिकाल में सर्वत्र प्रचुरता के साथ दृष्टिगोचर होती है। नायिका भेद और नारी-सौन्दर्य को अत्यधिक प्रश्रय देने के कारण रीतिकालीन साहित्य का प्रमुख रस शृंगार था शृंगार को इस युग में रसराज की संज्ञा दी गयी थी। शृंगार रस के दो भेद हैं-संयोग और वियोग रीतियुग में शृंगार के इन दोनों अंगों का चरम सौन्दर्य देखा जा सकता है। दर्शन, श्रवण और संलाप संयोग शृंगार में पाये जाते हैं। संयोग पक्ष के रूप-चित्रण में रीतिकालीन कवि विशेष सिद्ध हैं। इस युग की शृंगारिकता के सम्बन्ध में डॉ0 भगीरथ मिश्र ने कहा है, “शृंगारिकता के प्रति उनका दृष्टिकोण मुख्यतः भोगपरक था, इसीलिए प्रेम के उच्चतर सोपानों की ओर वे नहीं जा सके। प्रेम की अनन्यता, एकनिष्ठता, त्याग, तपश्चर्या आदि उदात्त पक्ष भी उनकी दृष्टि में बहुत कम आये हैं। उनका विलनोन्मुख जीवन और दर्शन, सामान्यतः प्रेम या शृंगार के बाह्य पक्ष-शारीरिक आकर्षण तक ही सीमित रहकर रूप को मादक बनानेवाले उपकरण ही जुटाता रहा।” यह प्रवृत्ति नायिका-भेद, नख-शिख वर्णन, ॠतु-वर्णन, अलंकार-निरूपण सभी जगह देखी जा सकती है।
(2) ऋतु – वर्णन- रीतिकालीन काव्य की एक प्रवृत्ति ऋतु-वर्णन की रही है। रीतिकालीन कवियों ने अधिकतर ऋतु-वर्णन उद्दीपन के रूप में किया है। ऋतु-वर्णन के साथ-साथ ऋतु-विशेष में होनेवाली क्रीड़ाओं, मनोविनोदों, वस्वाभूषणों, उल्लासों की भरपूर व्यंजना कवियों ने की है। इनके अतिरिक्त कवियों ने ऋतु- विशेष में होनेवाले तीज-त्योहारों के भी संश्लिष्ट चित्र खींचे हैं।
(3) नायिका-भेद वर्णन- रीतिकालीन कवियों को भारतीय कामशास्त्र से बड़ी प्रेरणा मिली थी। कामशास्त्र में अनेक प्रकार की नायिकाओं के वर्णन हैं। युग की श्रृंगारी मनोवृत्ति ने वहाँ से प्रेरणा पाकर तथा युग के सम्राटों, राजाओं और नवाबों के हरम में रहनेवाली कोटि-कोटि सुन्दरियों की लीलाओं, काम चेष्टाओं आदि से प्रभावित होकर साहित्य में नायिका-भेद के रूप में उनकी अवतारणा की थी।
(4) नख-शिख वर्णन- रीतिकालीन कवियों के सामने नारी का एक ही रूप था और वह था विलासिनी प्रेमिका का नारी उनके लिए एकमात्र भोग-विलास का उपकरण थी। सौन्दर्य वर्णन में रीतिकालीन कवियों ने नारी के उत्तेजक रूप और अंगों का वर्णन अधिक किया है, जिससे उनकी वासना वृत्ति की तृप्ति होती थी। इस एकाकी दृष्टिकोण के कारण वह नारी-जीवन के सामाजिक महत्त्व, उसके श्रद्धामय रूप और उसकी मातृशक्ति को देख नहीं सका।
(5) अलंकरण की प्रवृत्ति- रीतिकालीन कवि अपनी अलंकार योजना के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने अलंकारों का प्रयोग दोनों दृष्टियों से किया है- अलंकार या चमत्कारप्रियता के लिए तथा अलंकार रस विधान के लिए। इस आलंकारिकता का एक अन्य कारण था अलंकारशास्त्र के अनुसार अपनी कविता कामिनी को साँचों में ढालना। अलंकारशास्त्र के ज्ञान के बिना उस समय के कवि को सम्मान मिलना कठिन था, इसलिए आलंकारिकता इस युग में खूब फूली-फली और यहाँ तक कि अलंकार साधन से साध्य बन गये और कविता-कामिनी की शोभा बढ़ाने की अपेक्षा उसके सौन्दर्य के विघातक बन गये। इस काल की कविता की आलंकारिकता को देखकर ही मिश्रबन्धुओं ने इस काल का नाम ‘अलंकृतकाल’ रखा तथा डॉ) रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ ने इस काल का नामकरण ‘कलाकाल’ किया है। इस काल में संस्कृत साहित्य के पुष्ट अलंकारशास्त्र की लोकप्रियता भी आश्रयदाताओं की चमत्कारी मनोवृत्ति के कारण बढ़ गयी। इस काल के रीतिबद्ध कवि आचार्यत्व का भी दावा करते थे। अलंकार के अन्थों में केशव की ‘कविप्रिया’, महाराजा जसवन्त सिंह का ‘भाषा भूषण’, मतिराम का ‘ललित ललाम’ और महाराजा रामसिंह का ‘अलंकार दर्पण” प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार रस सम्बन्धी ग्रंथों में केशव की ‘रसिक-प्रिया’, मतिराम का ‘रसराज’, महाराज रामसिंह का ‘रस निवास’ और ‘रस विनोद’ तथा देव का ‘भाव-विलास’ प्रसिद्ध है।
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