वर्तमान / प्रचलित परीक्षा प्रणाली में सुधार के लिये सुझाव दीजिए।
प्रचलित परीक्षा प्रणाली के दोषों की ओर अनेक विचारकों, शिक्षा शास्त्रियों और आयोगों ने ध्यान दिलाया है। परन्तु इस प्रणाली को पूरी तरह बदलने में अनेक कठिनाइयाँ हैं। सबसे बड़ी कठिनाई तो आर्थिक है। इसके अलावा वर्तमान काल में विद्यार्थियों की संख्या इतनी अधिक है कि उन सबके लिये एक भिन्न प्रणाली निकालना बड़ा कठिन है अत: प्रचलित प्रणाली को बनाये हुए उसमें कुछ सुधार करने का प्रयास किया जाना चाहिये। इस सम्बन्ध में मुख्य सुझाव निम्नलिखित हैं-
1- नौकरियों में प्रमाण-पत्र न माँगे जायें – यदि नौकरियों में प्रमाण-पत्र न माँगे जायें और विशिष्ट नौकरी के लिये आवश्यक योग्यताओं की अलग से परीक्षा ली जाय तो लोग येन केन प्रकारेण प्रमाण पत्र प्राप्त करने का प्रयास छोड़ दें और जिस नौकरी में जाना चाहते हों उसके उपयुक्त योग्यता प्राप्त करने की ओर विशेष ध्यान दें। यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि सभी नौकरियों में ऐसा नहीं हो सकता। फिर भी जहाँ हो सकता है वहाँ इसको इस्तेमाल करने से लाभ अवश्य होगा।
2- उत्तर पुस्तिकाओं के जाँचने में सुधार- उत्तर-पुस्तिकाओं के जांचने में सुधार होना चाहिए। जांचने के लिये इतना काफी पारिश्रमिक मिलना चाहिए कि परीक्षक स्वयं और परिश्रमपूर्वक कापियों को जांचे। जांचने की अवधि काफी होनी चाहिए। जिससे जल्दबाजी में काम खराब न हो । विभिन्न प्रश्नों के उत्तरों के सम्बन्ध में एक निश्चित मानदण्ड बना लिया जाना चाहिए। विभिन्न परीक्षकों से कुछ कापियाँ नमूने के रूप में दिखलाकर मँगवाकर उनके मानदण्ड की जाँच की जानी चाहिए और उनको बाकी कापियाँ उसी के अनुसार जाँचनी चाहिए।
3- पाक्षिक अथवा मासिक परीक्षा- फिर भी केवल वर्ष में एक बार तीन घन्टों में परीक्षा लेने से परीक्षार्थी में विषय की योग्यता नहीं ज्ञात होती । इसके लिए तो आवश्यक यह है कि प्रत्येक माह या 15 दिन में कक्षा में शिक्षक उस समय तक पढ़ाये गये विषय में परीक्षा ले और इस तरह की परीक्षाओं में मिले हुए अंकों तथा वार्षिक परीक्षा में मिले हुए अंकों को जोड़कर परिणाम घोषित किये जायें। इससे परीक्षार्थी वर्ष भर और पूरा पाठ्यक्रम पढ़ेंगे।
4- विकास के अन्य पहलुओं में परीक्षा- शिक्षा का उद्देश्य केवल जानकारी देना नहीं है बल्कि व्यक्ति का सर्वांग विकास करना है। प्रचलित प्रणाली में केवल जानकारी की परीक्षा होती है। अत: आवश्यक यह है कि बालक के शारीरिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास की भी परीक्षा ली जाये चाहे इसमें मिले अंकों से उसकी कक्षा में अनुत्तीर्ण घोषित न किया जाय बल्कि उसकी सुधारने की चेष्टा की जाये। इन पहलुओं में पास होना जरूरी होने पर बालक स्वयं उनमें विकसित होने की चेष्टा करेंगे।
5- जो परीक्षार्थी बीमारी, दुर्घटना, या ऐसे ही किसी अन्य कारण से परीक्षा में न बैठ सकेंगे उनको आवश्यक जाँच के बाद दोबारा अवसर दिया जाना चाहिये जिससे उनका साल खराब न हो।
6- प्रश्न पत्रों में ऐसे प्रश्न दिये जाने चाहिएँ जिनमें रटी हुई सामग्री का कम से कम प्रयोग हो सके और परीक्षार्थी की विषय की वास्तविक योग्यता प्रकट हो । प्रत्येक वर्ष नये प्रश्न दिये जाने चाहिए जिससे पिछले वर्षों में आये प्रश्नों के उत्तरों को अथवा उनके आधार पर बनाये गये सम्भावित प्रश्न-पत्रों को रटने की प्रवृत्ति समाप्त हो ।
7- प्रश्न-पत्र में पाठ्यक्रम के प्रत्येक अंग पर प्रश्न होने चाहियें। चाहे विभिन्न अंगों में एक से अधिक प्रश्न देकर उनमें से एक को हल कराया जाये। इससे बालक पूरे पाठ्यक्रम को पढ़ेंगे।
8- परीक्षा काल में भिन्न-भिन्न प्रश्न-पत्रों में समय का बँटवारा ठीक अनुपात से किया जाना चाहिए। साधारणतया 1-2 दिन से अधिक अवकाश न दिया जाय और एक दिन में केवल एक ही प्रश्न-पत्र करने को दिया जाय।
9- परीक्षकों की संख्या बढ़ानी चाहिए और प्रत्येक परीक्षक को केवल उतनी ही कापियाँ दी जानी चाहिए कि वह उन्हें एक-दो हफ्ते में जाँच कर भेज सकता हो ।
10- अंक प्राप्त करने या प्रमाण-पत्र प्राप्त करने में भ्रष्ट उपायों को अपनाने वाले परीक्षार्थियों को कठोर दण्ड दिया जाना चाहिये।
अन्त में, मूल बात यह है कि प्रचलित प्रणाली में सुधार स्वयं अध्यापकों पर ही निर्भर है। उन्हें कक्षा में परीक्षा के लिये विद्यार्थियों को तैयार कराने के स्थान पर उनमें विषय की योग्यता बढ़ाने को प्रोत्साहित करना चाहिये। शिक्षा संस्थाओं में अध्यक्ष इस ओर विशेष रूप से ध्यान दे सकते हैं। शिक्षकों के और परीक्षा संस्थाओं के सहयोग से वर्तमान परीक्षा पद्धति के दोष दूर किये जा सकते हैं।
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