विविधता का परिचय प्रदान करने में शिक्षा की भूमिका का वर्णन कीजिए।
विविधता का परिचय प्रदान करने में शिक्षा की भूमिका (Role of Education in Addressing Diversity)
भारत विविधताओं का देश है यहाँ पर अनेक संस्कृतियों का मिश्रण पाया जाता है। प्रजाति, धर्म, भाषा, रीति-रिवाज आदि की दृष्टि से अनेक विविधताएँ हैं।
इन विविधताओं का परिचय कराने में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है शिक्षा ही एक ऐसा • साधन है जिसके द्वारा विविधताओं में एकता के दर्शन किये जा सकते हैं। शिक्षा के द्वारा ही भाषायी विविधता, सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता, धार्मिक विविधता, क्षेत्रीय विविधताओं एवं राजनीतिक विविधताओं का परिचय प्राप्त किया जाता है। शिक्षा के माध्यम से इनमें एकता के भाव विकसित किये जा सकते हैं। इस प्रकार विविधता का परिचय कराने में शिक्षा की भूमिका महत्त्वपूर्ण एवं निम्नलिखित है-
(1) भावात्मक एकता (Sensual Unity)- यह देश विभिन्नताओं का देश है। विभिन्न धार्मिक विश्वास, धार्मिक स्थल, वैचारिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक विभिन्नताएँ भारत माँ के उपकरण हैं। अपने धार्मिक विश्वासों को सम्मान देने की आदत का स्थानान्तरण दूसरे धर्मों के विचारों का पूर्ण सम्मान विकसित करने में सहायक सिद्ध हो सकता है। इसलिए भावात्मक का विकास शिक्षा का आवश्यक कर्त्तव्य है। तभी मानवीय जीवन में शांति तथा सुख का वातावरण विकसित हो सकता है। सौहार्द्रपूर्ण वातावरण बनाये रखने में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
(2) संस्कृति की रक्षा तथा संवाहन (Safety & Transportation of Culture)- अपने पूर्वजों से प्राप्त सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखकर, भावी पीढ़ियों को हस्तान्तरित करना शिक्षा का परम उद्देश्य है। हमारे शिक्षाविदों ने प्राचीन भारतीय संस्कृति की विशेषताओं इन्द्रिय, निग्रह, गुरु ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण, देव ऋण से विमुक्ति की शिक्षा के माध्यम से छात्रों के व्यवहार में अवतरित कर, हजारों वर्षों से भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रखा। ‘सत्यम् शिवम्, सुन्दरम्’ हमारी सांस्कृतिक महानता के बेजोड़ स्थायी प्रेरणा स्तम्भ हैं।
(3) आत्म निर्भरता की प्राप्ति (Achieving Self-Suport)- मानवीय जीवन में आत्म-निर्भरता पूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक तत्त्व है। आत्मनिर्भर व्यक्ति समाज पर बोझ बनकर नहीं जीना चाहता। आत्म-विश्वास के सहारे वह अपने समस्त कार्य अपनी शक्तियों का सदुपयोग करते हुए सफलतापूर्वक सम्पन्न करता है। शिक्षा मानवीय जीवन को आत्म-निर्भर बनाने में सक्रिय भूमिका का निर्वाह कर सकती है। इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार महत्त्वपूर्ण हैं। उन्होंने कहा था, “मात्र पुस्तकीय ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो व्यक्ति को आत्म-निर्भर बना सके।”
(4) नेतृत्व-प्रशिक्षण (Leadership Training)- राष्ट्रीय परिवेश में बालकों को सामाजिक तथा राष्ट्रीय नेतृत्व हेतु प्रशिक्षित करना शिक्षा का महत्त्वपूर्ण कार्य है। भारत प्रजातान्त्रिक राष्ट्र है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता है जो राष्ट्रीय, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, औद्योगिक, आर्थिक, शैक्षिक आदि क्षेत्रों में कर्तव्यनिष्ठा, लगन तथा ईमानदारी से नेतृत्व का उत्तरदायित्व सँभाल सकें।
(5) सामाजिक भावना का विकास (Development of Social Feeling) – समाज व्यक्ति के अस्तित्व का अटूट भाग है। सामाजिक व्यवहार का विकास सामाजिक संतुलन तथा समायोजन के लिए आवश्यक है। शिक्षा द्वारा सामाजिक भावना के विकास महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। समाज में रहकर व्यक्ति को अनेक सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करना पड़ता । इसलिए सामाजिक दृष्टिकोण की व्यापकता में विकास के लिए विद्यालय तथा अन्य सामाजिक संस्थाओं के क्रिया-कलापों में सक्रिय भागीदारी आवश्यक है। सामाजिक संकीर्ण दृष्टिकोण व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए हानिकारक है। मानसिक सन्तुलन तथा व्यवहारिक समायोजन सफल सामाजिक जीवन व्यतीत करने के लिए वांछनीय हैं जिन्हें शिक्षा द्वारा सम्भव बनाया जा सकता है।
(6) राष्ट्रीय एकता (National Unity) – भारत एक विशाल देश है। सामाजिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक विभिन्नताओं ने इसे उप-महाद्वीप का स्वरूप प्रदान किया है। अनेक भाषाओं, परम्पराओं तथा सांस्कृतिक विभिन्नताओं के विद्यमान बने रहने पर भी यह राष्ट्र एकता •के स्वरूप को सुदृढ़ बनाये हुए है। शिक्षा के माध्यम से छात्रों में धार्मिक सद्भाव तथा सहिष्णुता के गुणों को विकसित करना आवश्यक है।
(7) कुशल नागरिकता का विकास (Development of Good Citizenship) – लोकतान्त्रिक राष्ट्र की संरचना कुशल एवं कर्त्तव्यनिष्ठ नागरिकों का दायित्व है। किसी विकासशील अथवा विकसित राष्ट्र की पहचान प्राकृतिक सम्पत्ति नहीं वरन् इस सम्पत्ति का सदुपयोग कर राष्ट्र को सुदृढ़ बनाने वाले नागरिकों पर निर्भर है। कुशल नागरिकता का निर्माण शैक्षिक निर्देशन की कुशलता पर निर्भर है। इस सन्दर्भ में मुदालियर कमीशन द्वारा प्रस्तुत किये गये विचार महत्त्वपूर्ण हैं “शिक्षा प्रणाली को छात्रों में उन अभिवृत्तियों, आदतों तथा चरित्र सम्बन्धी गुणों का विकास करना चाहिए जिनसे कि वे राष्ट्र के सुयोग्य नागरिक बनकर, लोकतान्त्रिक नागरिकता के उत्तरदायित्व वहन कर सकें।”
इस प्रकार शिक्षा के द्वारा घर, परिवार, विद्यालय समाज एवं राष्ट्र में विविधता में एकता की भावना प्रसारित की जा सकती है। शिक्षा एक ऐसा साधन है जिसके माध्यम से अनेकता में एकता लाना सम्भव है। शिक्षा के द्वारा समायोजन एवं संतुलन में पूर्ण सहयोग प्राप्त होता है एवं अनेक प्रकार की विविधताओं में सामंजस्य प्रदान करने में सहायता मिलती है। ‘बोंसिग’ ने कहा है, “शिक्षा का कार्य व्यक्ति का पर्यावरण के साथ उस सीमा तक समायोजन करना है जिसमें व्यक्ति तथा समाज दोनों को स्थायी सन्तोष प्राप्त करने का लाभ प्राप्त हो सके।”
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