व्यापार चक्र के सिद्धान्त (Theories of Trade Cycles)
व्यापार चक्रों के सिद्धान्तों का प्रतिपादन विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने विभिन्न आधारों पर किया है-
(1) जलवायु अथवा सूर्य चिन्ह सिद्धान्त (Meteorological or Sunsport Theory) – इसका प्रतिपादन प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो० जेवन्स (W. Stanley Jevons) ने सन 1857 में किया था। यह व्यापार-चक्र का सबसे प्राचीन सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार समय-समय पर सूर्य में होने वाले परिवर्तन व्यवसाय के तालबद्ध उच्चावचनों (Rhythmical Fluctuations) को निर्धारित करते हैं। समय-समय पर सूर्य के तल पर कुछ काले-काले धब्बे पड़ते हैं। इन धब्बों के कारण पृथ्वी को जाने वाली सूर्य की गर्मी प्रभावित होती है जिसका प्रभाव पृथ्वी की जलवायु पर पड़ता है। इससे फसलों पर आधारित उद्योग धन्धों की उत्पादकता प्रभावित होती है। जब सूर्य धब्बों के कारण कृषि फसलें नष्ट हो जाती हैं तो सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में मन्दी का वातावरण उत्पन्न हो जाता है क्योंकि कृषि उत्पादन एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। इसके विपरीत जब सूर्य के तल पर काले धब्बे नहीं होते हैं वर्षा अच्छी होती है और देश में फसलें अच्छी होती हैं जिससे देश में समृद्धिकाल का सूत्रपात होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार वर्षा में होने वाले परिवर्तन इतने नियमित होते हैं कि अच्छी फसलों एवं खराब फसलों का प्रत्यावर्तन (Alternation) होता रहता है जिसके परिणामस्वरूप मन्दीकाल के बाद तेजीकाल आता है।
(2) मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त (Psychological Theory)- प्रो० पीगू ने सर्वप्रथम मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था जिसकी विवेचना उनकी प्रसिद्ध पुस्तक (Industrial Fluctuations) में की गई है। इस सिद्धान्त के अनुसार व्यवसायियों तथा उद्योगपतियों में होने वाले परिवर्तन के परिणामस्वरूप व्यापार चक्र उत्पन्न होते हैं। यह परिवर्तन आशावादी एवं निराशावादी मनोवृत्ति के परिणाम होते हैं। जब व्यवसायी एवं उद्योगपति आशावादी होते हैं तो नये-नये क्षेत्रों में विनियोग होने लगता है। आर्थिक क्रियाओं में निरन्तर वृद्धि होती है। इसके विपरीत जब व्यवसायियों एवं उद्योगपतियों में निराशावादी धारणा उत्पन्न हो जाती है तो इसका प्रभाव भी धीर-धीरे सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। इससे व्यवसायी एवं उद्योगपति नये-नये विनियोग करना बन्द कर देते हैं। जिसके परिणामस्वरूप आर्थिक क्रियाओं जैसे उत्पादन, रोजगार, विनियोग, बचत तथा कीमत में गिरावट आने लगती है और अर्थव्यवस्था में मन्दी का दौर शुरू हो जाता है। अतः तेजी एवं मंदी विनियोगकर्त्ताओं में उठने वाली आशावादी तथा निराशावादी तरंगों (waves) के प्रत्यावर्तन में उत्पन्न होती है।
(3) अति-उत्पादन सिद्धान्त (Over-Production Theory)- यह सिद्धान्त व्यापार-चक्र का प्रतिस्पर्धा सिद्धान्त भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन समाजवादी अर्थशास्त्रियों ने किया था। इस अर्थव्यवस्था में समरूप उत्पादन करने वाली अनेक फर्में होती है और उनमें आपस में प्रतिस्पर्धा होती है। तथा एक ही बाजार का अधिक से अधिक हिस्सा अपने कब्जे में करने का प्रयास करती है और इसी प्रयास से वस्तु का इतना अधिक स्टॉक का उत्पादन कर लेती हैं कि बाजार में उसे बेचना कठिन हो जाता है। इससे बाजार में अति उत्पादन की स्थिति उत्पन्न होती है जिससे कीमट घट जाती है और इसका प्रभाव अन्य वस्तुओं की कीमतों पर भी पड़ता है। कच्चे माल की कीमत बढ़ने की प्रक्रिया उस समय शुरू हो जाती है जब फर्म बाजार का एक बड़ा हिस्सा अपने कब्जे में करने का प्रयास करती है क्योंकि उत्पादन के लिए कच्चे माल का संग्रहण करना पड़ता है। कच्चे माल एवं उत्पादन के साधनों की दुर्लभता के कारण उत्पादन लागत बढ़ने लगती है।
(4) अति-बचत सिद्धान्त (Over-saving Theory) – इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मेजर डगलस एवं जे.ए. हॉबसन जैसे समाजवादी प्रवृत्ति के अर्थशास्त्रियों द्वारा किया गया था। इस सिद्धान्त को अल्प-उपभोग सिद्धान्त (under-consumption theory) भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार पूँजीवादी आर्थिक प्रणाली में विद्यमान आय सम्बन्धी विषमताएँ ही मन्दी का आधारभूत कारण है। धनी वर्ग के पास आवश्यकता से अधिक धन होता है जिसको वो पूर्णतः खर्च नहीं कर पाते हैं। इस भाग को बचत के रूप में रखते हैं। बचत का व्यवसाय एवं उद्योग में विनियोग किया जाता है। दूसरी ओर मजदूर वर्ग पर्याप्त क्रय शक्ति के अभाव में बड़े पैमाने पर उत्पादित वस्तुओं तथा सेवाओं का क्रय नहीं कर पाते हैं। इससे अति-उत्पादन (Over production) हो जाता है, कीमतें गिरने लगती हैं और समूची अर्थव्यवस्था में मन्दी छा जाती है। इस प्रकार इस सिद्धान्त के अनुसार अति बचत एवं अल्प-उपभोग ही व्यावसायिक जगत में मन्दी का कारण है।
(5) नव-प्रवर्तन सिद्धान्त ( Innovations Theory) – प्रो० शुम्पीटर के अनुसार पूँजीवाद देश की अर्थव्यवस्था में समय-समय पर नव-प्रवर्तन होते रहते हैं और इन्हीं कारण व्यापार चक्र उत्पन्न होते हैं। प्रो. शुम्पीटर के अनुसार नव-प्रवर्तन से आशय किसी ऐसे नवीन परिवर्तन से हैं जो उत्पादन की वर्तमान प्रविधियों में रूपान्तरण (Transformation) कर देता है। नव प्रवर्तन का रूप निम्न में से कोई भी हो सकता है।
(i) किसी नवीन उत्पादन-प्रविधि का आविष्कार,
(ii) वर्तमान व्यावसायिक उपक्रमों के कच्चे पदार्थों के नये स्रोतों का विकास,
(iii) व्यावसायिक संगठन के नवीन रूपों का विकास,
(iv). कोई नया यान्त्रिक आविष्कार,
(v) वर्तमान वस्तुओं के नये बाजारों का विकास,
(vi) व्यावसायिक प्रबन्ध में नवीन प्राविधियों का विकास,
(vii) किसी नवीन वस्तु का उत्पादन,
(viii) नई प्रकार के कच्चे पदार्थों का विकास आदि।
इस प्रकार नव प्रवर्तन का लाभ की दर को बनाये रखने अथवा उसमें वृद्धि करने में बड़ा योगदान होता है। उद्योगपति एवं व्यवायी नव-प्रवर्तनों का सहारा लेकर ही प्रतिस्पर्द्धा में सफलता प्राप्त करके अपने लाभ को अधिकतम करने का प्रयास करते हैं। अतः एक प्रतिस्पर्द्धा पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में नव-प्रवर्तन अनिवार्य रूप से उत्पन्न होते रहते हैं।
प्रो. शुम्पीटर के अनुसार जब कभी कोई नव प्रवर्तन होता है तो उससे वर्तमान आर्थिक प्रणाली में असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। यह असन्तुलन उस समय तक अर्थव्यवस्था में बना रहता है जब तक किसी नयी सन्तुलन स्थिति में आर्थिक शक्तियों का पुनः समायोजन नहीं हो जाता है।
(6) मकड़जाल सिद्धान्त (Cobweb Theory) – इस सिद्धान्त की सर्वप्रथम व्याख्या ब्रिटेन के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो० निकोलस कालडोर (Nicholas Kaldor) ने की थी। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत कृषि पदार्थों की कीमतों और उत्पादन मात्राओं में नियमित समयानात्ालों के पश्चात घटित होने वाले चक्रों की व्याख्या की जाती है।
प्राचीन प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों (Traditional Classical Economists) की मान्यता थी कि कृषि-पदार्थों की कीमतों एवं उत्पादन मात्राओं को यदि उनकी सन्तुलनवस्था से विस्थापित कर दिया जाये तो वे पुनः इस साम्यावस्था में लौट आयेगी। इस सिद्धान्त के अनुसार स्थैतिक अवस्था में पूर्ण प्रतियोगिता की प्रतिष्ठित मान्यता के अन्तर्गत कीमतों एवं उत्पादन मात्राओं को यदि विस्थापित कर दिया जाये तो यह जरूरी नहीं कि वे पूर्ण साम्यावस्था में पुनः लौट आयेंगे।
व्यापार चक्र का मकड़जाल सिद्धान्त निम्नलिखित तीन मान्यताओं पर आधारित है :-
(i) कीमत पूर्णतया पूर्वगामी अवधि की पूर्ति का फलन होती है।
(ii) सम्बन्धित वस्तु की प्रकृति नाशवान होती है।
(iii) पूर्ण प्रतियोगिता जिसके अन्तर्गत यह मानकर चला जाता है कि वर्तमान कीमतें भविष्य में भी जारी रहेगी और उसकी उत्पादन परियोजनाओं से बाजार प्रभावित नहीं होगा।
उपर्युक्त मान्यताओं से स्पष्ट है कि मकड़जाल सिद्धान्त विशेषकर कृषि पदार्थों पर लागू होता है। जैसा कि व्यवहार में देखा जाता है, कृषि-पदार्थों की पूर्ति माँग परिवर्तनों के साथ अपने आप को धीरे-धीरे समायोजित करती है। अतः कृषि पदार्थों की कीमतों एवं उनकी उत्पादन मात्राओं में तेजी से उच्चावचन होते रहते हैं।
कृषि पदार्थों के मूल्यों में उच्चावचन का दूरगामी प्रभाव पड़ता है जिससे उत्पादन, रोजगार तथा कीमतों में भी उच्चावचन उत्पन्न हो जाते हैं।
इस सिद्धान्त के अन्तर्गत मकड़जाल को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है। वे निम्नलिखित हैं:-
- निरन्तर मकड़जाल (Continuous Cobwebs)
- केन्द्राभिमुखी मकड़जाल (Convergent Cobwebs)
- विपथगामी मकड़जाल (Divergent Cobwebs)
(i) निरन्तर मकड़जाल (Continuous Cobwebs)- इस मकड़जाल की प्रक्रिया निरन्तर जारी रहने वाली होती है। कुछ प्राथमिक समायोजकों के पश्चात पुराने पथ (Old Path) के सहारे इसकी पुनरावृत्ति होती रहती है।
(ii) केन्द्राभिमुखी मकड़जाल (Convergent Cobwebs) – इस श्रेणी के मकड़जाल के अन्तर्गत कीमतों एवं उत्पादन मात्राओं की गतिविधियाँ भीतरी साम्यावस्था की ओर क्रियाशील रहती है। प्रत्येक अनुगामी प्रदोलन (Subsequent oscillation) के परिणामस्वरूप मकड़जाल आकार में संकुचित हो जाता है। ऐसा उस समय होता है जब पूर्ति लोच, माँग लोच से कम होती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है। कि एक दिये हुए कीमत परिवर्तन (Given Change in Price) के प्रति माँग की अपेक्षा पूर्ति कम संवेदनशील होती है। इसमें केन्द्राभिमुखी मकड़जाल का निर्माण होता है। अन्ततः कीमत एवं उत्पादन मात्रा साम्यावस्था को प्राप्त होती है।
(iii) विपथगामी मकड़जाल (Divergent Cobwebs)- यह मकड़जाल केन्द्राभिमुखी मकड़जाल का विपरीत (Opposite) होता है। इस मकड़जाल के अन्तर्गत कीमत एवं उत्पादन मात्रा की गतिविधियाँ मूल साम्यावस्था से बाहर की ओर होती है। प्रत्येक अनुगामी प्रदोलन के परिणामस्वरूप मकड़जाल का संकुचन होने के स्थान पर विस्तार होता जाता है। यह स्थिति माँग की तुलना में पूर्ति अधिक होने पर उत्पन्न होती है।
(7) व्यावसायिक अर्थव्यवस्था सिद्धान्त (Business Economy Theory)- व्यापार चक्र के व्यावसायिक अर्थव्यवस्था सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो० मिचैल द्वारा किया गया था। प्रो० वेसले क्लेयर भिचैल (Wesley Clair Mitchel) ने ‘Business Cycles पर एक महत्त्वपूर्ण उल्लेखनीय कार्य किया है जिसमें बताया गया है कि व्यापार चक्र निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया नहीं है तथा इसकी विभिन्न अवस्थाएँ जैसे -समृद्धि, सुस्ती, मंदी तथा पुनरुत्थान (Prosperity, Recession, Depression and Revival) एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। यह एक स्वाभाविक कड़ी है कि प्रत्येक मंदी के तत्पश्चात समृद्धि आती है तथा प्रत्येक समृद्धि के पश्चात मंदी अवश्यम्भावी रूप से उत्पन्न होती है। मंदी में ही इसके पुनरुत्थान के लक्षण पलने लगते हैं। दूसरी ओर समृधि में ही सुस्ती (Recession) के कीटाणु फैलने एवं पनपने लग जाते हैं। प्रो० मिचैल का विश्वास है कि देश की अर्थव्यवस्था में कोई भी उतार-चढ़ाव (Fluctuation) किसी एक तत्व का परिणाम नहीं है बल्कि अर्थव्यवस्था में विभिन्न तत्त्वों से संयुक्त प्रभाव का परिणाम है। एक प्रतियोगी अर्थव्यवस्था में आर्थिक क्रियाएँ लाभ के उद्देश्य से प्रभावित होती हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है। कि लाभ का उद्देश्य ही उत्प्रेरित करने वाला तत्त्व है, जिससे सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को गति मिलती है। लाभ लागत कीमत सम्बन्धों पर निर्भर करता है।
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