शैक्षिक अवसरों की समानता से आप क्या समझते हैं ? अपने भारत देश में शैक्षिक अवसरों की समानता हेतु आप क्या प्रयास करेंगे और क्यों ?
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शैक्षिक अवसरों की समानता का अर्थ तथा परिभाषा (Meaning and Definition of Equalization of Educational Opportunities)
शैक्षिक अवसरों की समानता का अर्थ है राज्य की पूरी जनसंख्या को स्थान, जाति, लिंग, धर्म तथा अर्थ आदि किसी भी आधार पर भेद किए बिना, राज्य द्वारा, एक निश्चित आयु अथवा स्तर तक अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा प्रदान करना और उनकी अपनी रुचि, रुझान, योग्यता एवं आवश्यकतानुसार विशिष्ट शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर प्रदान करना।
कुछ लोग शिक्षा के समान अवसरों से यह अर्थ लेते हैं कि शिक्षा के किसी भी स्तर पर सभी बच्चों को प्रवेश का अधिकार होना चाहिए, किन्तु यह धारणा गलत है। समान अवसरों के पीछे समान योग्यता का भाव निश्चित रूप से छिपा है। शैक्षिक अवसरों की समानता का अर्थ है ऐसी शैक्षिक सुविधाएँ प्रदान करना कि सभी बच्चे राज्य द्वारा निश्चित आयु अथवा स्तर तक अनिवार्य एवं निःशुल्क सामान्य शिक्षा प्राप्त कर सकें तथा उस आयु अथवा स्तर के बाद अपनी-अपनी रुचि, रुझान तथा योग्यतानुसार विशिष्ट शिक्षा प्राप्त कर सकें।
कुछ लोग शिक्षा के समान अवसरों से यह अर्थ लेते हैं कि राज्य के सभी बच्चों के लिए एक समान शिक्षा की व्यवस्था की जाए। जहाँ तक अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की बात हम उनके विचार से सहमत हैं, परन्तु जहाँ तक विशिष्ट शिक्षा की बात है, उच्च शिक्षा की बात है, व्यावसायिक शिक्षा की बात है तथा प्रशासनिक शिक्षा की बात है, हम उनके विचार से सहमत नहीं हैं। सामान्य शिक्षा सबके लिए एक जैसी होगी ही, तभी तो उसे सामान्य कहते हैं, किन्तु विशिष्ट शिक्षा तो विशिष्ट रुचि, रुझान तथा योग्यता पर ही निर्भर करेगी। हाँ, राज्य को यह अवश्य देखना होगा कि स्थान, जाति, लिंग, धर्म तथा अर्थ के कारण बच्चे इससे वंचित न रह जाएँ। अब यदि हम चाहें तो इसे निम्नलिखित रूप में परिभाषित कर सकते हैं-
शैक्षिक अवसरों की समानता का अर्थ है राज्य द्वारा देश के सभी बच्चों को, जाति, लिंग, धर्म आदि किसी भी आधार पर भेद किए बिना, अनिवार्य एवं निःशुल्क सामान्य शिक्षा को अनिवार्य रूप से और विशिष्ट शिक्षा को उनकी रुचि, रुझान, योग्यता एवं आवश्यकतानुसार सुलभ कराना और इन्हें प्राप्त करने में उनकी आवश्यक सहायता करना।
भारत में शैक्षिक अवसरों की असमानता
भारत में शिक्षा के क्षेत्र में कई प्रकार की असमानताएँ देखने को मिलती हैं। यहाँ उन सबका संक्षेप में वर्णन निम्न प्रकार है-
1. प्रान्त विशेष की शिक्षा में अन्तर-प्रान्त विशेष में भी स्थान-स्थान की शिक्षा में अन्तर दिखाई देता है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रायः प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक विद्यालयों की ही व्यवस्था है। यह शैक्षिक अवसरों की असमानता नहीं तो और क्या है ?
2. प्रान्त-प्रान्त की शिक्षा में अन्तर-भारत विभिन्न प्रान्तों में बँटा हुआ है और इन प्रान्तों की शिक्षा में बड़ा अन्तर है। उदाहरणार्थ, कश्मीर में सम्पूर्ण शिक्षा निःशुल्क है, जबकि उत्तर प्रदेश में लड़कों के लिए केवल कक्षा 8 तक और लड़कियों के लिए कक्षा 12 तक निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था है। भिन्न-भिन्न राज्यों की शिक्षा के स्तर क्रम तथा पाठ्यचर्या में भी बड़ा अन्तर है। कहीं अंग्रेजी को प्रारम्भ से ही अनिवार्य बनाया गया है तथा कहीं अंग्रेजी को किसी भी स्तर पर अनिवार्य नहीं किया गया है। इसका अर्थ है कि सम्पूर्ण भारतवासियों को शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं हैं।
3. स्कूल और कॉलिजों का असमान वितरण-बच्चों के लिए स्कूल और कॉलिजों की संख्या भी कहीं अधिक, कहीं कम और कहीं बिल्कुल ही नहीं है। महाविद्यालय और विश्वविद्यालय तो राजनैतिक दबावों पर ही खोले जाते हैं। किसी क्षेत्र में सरकारी तथा गैर-सरकारी दोनों प्रकार के स्कूल-कॉलिजों का बाहुल्य है और कहीं दूर-दूर तक कोई स्कूल-कॉलिज दिखाई नहीं देता।
4. विद्यालयों में बच्चों से भेदभाव-प्राइवेट स्कूल प्रायः जाति और धर्म के आधार पर खोले जाते हैं। इनमें बच्चों को प्रवेश देते समय जाति और धर्म के आधार पर पक्षपात बरता जाता है। प्रवेश के बाद भी भिन्न-भिन्न जाति के बच्चों के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार का व्यवहार किया जाता हैं।
5. लड़के और लड़कियों की शिक्षा में असमानता—मनोवैज्ञानिक दृष्टि से लड़के और लड़कियों में विशेष अन्तर नहीं होता, इसलिए अब हमने लड़के-लड़कियों के लिए समान पाठ्यक्रम बना रखे हैं। पर इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय बात यह है कि लड़कियों के स्कूलों व कॉलिजों की संख्या लड़कों के स्कूल व कॉलिजों की संख्या की अपेक्षा बहुत कम हैं। इस प्रकार हम लड़कों की भाँति लड़कियों को शिक्षा की सुविधाएँ प्रदान नहीं कर पा रहे हैं।
6. समर्थ की जय- भारत की वर्तमान स्थिति बड़ी असामाजिक है। यहाँ मनुष्य की योग्यता की नहीं, उसकी सामर्थ्य की पूजा होती है। बच्चों को स्कूलों में प्रवेश उनकी अथवा उनके अभिभावकों की आर्थिक सम्पन्नता, राजनैतिक प्रभुता, सामाजिक प्रतिष्ठा और अमानुषिक शक्ति के आधार पर दिया जाता है, योग्यता के आधार पर नहीं। शैक्षिक सुविधाएँ भी जाति व धर्म के नाम पर दी जाती हैं, आवश्यकता के आधार पर नहीं।
7. स्थान विशेष पर विद्यालय विद्यालय की शिक्षा में अन्तर- स्थान विशेष पर भी जो विद्यालय हैं, उनके भवन, फर्नीचर, शिक्षण सामग्री, शिक्षकों के स्तर और कार्य प्रणाली में बड़ा अन्तर है। प्राइवेट स्कूल, सरकारी स्कूल और पब्लिक स्कूलों में तो बहुत अधिक अन्तर है। पब्लिक स्कूलों का तो अपना एक आकर्षण है।
8. विभिन्न दृष्टिकोण– विद्यालयों में कार्यरत शिक्षक प्रायः भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वाले होते हैं। उनकी राजनैतिक विचारधाराओं में भी अन्तर होता है। परिणामतः वे सभी बच्चों के साथ एक-सा व्यवहार नहीं कर पाते।
9. बच्चों के पर्यावरण में असमानता- शिक्षा के समान अवसर का एक तकाजा यह भी है कि बच्चों को पढ़ने के लिए समान पर्यावरण दिया जाए। हमारे यहाँ कुछ बच्चे झोंपड़ियों के अँधेरे में रहते हैं, कुछ गलियारों में रहते हैं, कुछ ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं में रहते हैं और कुछ बच्चे हॉस्टिलों में रहते हैं। इन सभी बच्चों को पढ़ने के लिए समान अवसर सुलभ हैं, यह कैसे कहा जाता है।
भारत में शैक्षिक अवसरों की समानता की प्राप्ति
हमारा भारत एक विशाल देश है। यहाँ सभी बच्चों को समान शैक्षिक अवसर प्रदान करना असम्भव नहीं तो महाकठिन अवश्य है। फिर भी हम इस क्षेत्र में प्रयास तो कर ही सकते हैं। बच्चों को समान शैक्षिक अवसर सुलभ हों, इसके लिए हमें निम्न उपाय करने चाहिएँ-
1. शिक्षा की राष्ट्रीय नीति- शिक्षा की राष्ट्रीय नीति का पालन सभी प्रान्तों की सरकारों को करना चाहिए। उस स्थिति में सम्पूर्ण देश में समान स्तर की शिक्षा समान रूप से सुलभ होगी।
2. स्कूल और कॉलिजों का समान वितरण- प्रत्येक क्षेत्र में जनसंख्या की दृष्टि से स्कूल और कॉलिजों की संख्या – निश्चित की जाए, जिससे सभी बच्चे स्कूलों में प्रवेश ले सकें। महाविद्यालयों में कला, वाणिज्य एवं विज्ञान सभी वर्गों की शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए।
3. लड़कियों के लिए विद्यालय- हमारे देश में लड़के-लड़कियों को एक साथ पढ़ाना उचित नहीं समझा जाता, इसलिए प्राथमिक शिक्षा के बाद लड़कियों के लिए माध्यमिक स्कूल उनकी संख्या के अनुपात में खोले जाएँ। सच पूछिए, तो बालिकाओं की शिक्षा बालकों की शिक्षा से अधिक महत्वशाली है। घर को सही स्वरूप देने, बच्चों (शिशु) के पालन एवं उसके व्यक्तित्व का निर्माण करने और घर से बाहर सभी क्षेत्रों में मनुष्य की भाँति काम करने में उनका सहयोग रहता है।
4. स्कूल-कॉलिजों में योग्यता के आधार पर प्रवेश- स्कूल और कॉलिजों में बच्चों को उनकी योग्यता के आधार पर प्रवेश दिया जाए, न कि आर्थिक अथवा राजनैतिक दबाव के आधार पर प्रवेश में स्थान, जाति, लिंग, धर्म आदि किसी भी आधार पर भेदभाव न किया जाए।
5. विशेष छात्रवृत्तियाँ- हमारी दृष्टि से तो प्राथमिक स्तर पर सभी मेधावी छात्रों को, माध्यमिक स्तर पर प्रथम 15% मेधावी छात्रों को और विश्वविद्यालय स्तर पर प्रथम 10% मेधावी छात्रों को तथा तकनीकी विद्यालयों में प्रथम 25% मेधावी छात्रों के लिए विशेष छात्रवृत्तियों का प्रबन्ध होना चाहिए। खेलकूद एवं अन्य क्षेत्रों में विशेष दक्षता रखने वाले छात्रों के लिए अलग से छात्रवृत्तियाँ निश्चित की जानी चाहिएँ। अनुसूचित, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़ी जाति के बच्चों के लिए भी छात्रवृत्तियों का प्रबन्ध होना चाहिए, जिससे वे शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्राप्त कर सकें, पर जाति के नाम पर नहीं, अपनी योग्यता तथा आर्थिक स्तर के आधार पर।
6. सामान्य और निःशुल्क शिक्षा- सम्पूर्ण देश के लिए सामान्य एवं निःशुल्क शिक्षा की अवधि अथवा स्तर समान हो और प्रान्तीय सरकारों को इस नियम का सख्ती के साथ पालन करना चाहिए। इससे देश के सभी बच्चों की सुप्त शक्तियों को जगाया जा सकता है तथा उनको उनकी योग्यता के आधार पर आगे की शिक्षा सुलभ कराई जा सकती है।
निःशुल्क शिक्षा के दायरे में अनेक तत्व सम्मिलित हैं। हमारी सम्मति में सामान्य शिक्षा हेतु बच्चों से कोई शुल्क न लिया जाए और निर्धन छात्रों को पुस्तकें तथा कापियाँ आदि भी निःशुल्क प्रदान की जाएँ। उनके लिए निःशुल्क मध्याह भोजन की व्यवस्था भी की जाए। साथ ही विद्यालयों से 3 किमी० से अधिक दूर रहने वाले बच्चों के लिए सवारी की निःशुल्क व्यवस्था की जाए।
कुछ लोग इस मत के हैं कि सभी बच्चों को शिक्षा के समान अवसर हम तभी प्रदान कर सकते हैं, जब सम्पूर्ण शिक्षा निःशुल्क हो, किन्तु यह बात अपने गले नहीं उतरती। निःशुल्क वस्तु के महत्व को लोग कम आँकते हैं। सम्पूर्ण शिक्षा को निःशुल्क करने का अर्थ होगा उसके महत्व को कम कर देना। अतः केवल सामान्य तथा अनिवार्य शिक्षा ही निःशुल्क होनी चाहिए।
7. विद्यालयों के स्तर में समानता- किसी भी स्तर के विद्यालयों के लिए न्यूनतम साधन एवं उपलब्धियाँ निश्चित की जाएँ और उनका सख्ती के साथ पालन किया जाए। इस क्षेत्र में सरकार को विद्यालयों के भवन, पुस्तकालय, शिक्षण सामग्री व खेल की सामग्री आदि के लिए अनुदान देना चाहिए। समय-समय पर इन विद्यालयों का निरीक्षण किया जाए। विद्यालय अधिकारी न्यूनतम साधनों को जुटाने और न्यूनतम उपलब्धियों के लिए सदैव प्रयत्नशील रहें।
8. उपेक्षित वर्ग की शिक्षा- समाज में उपेक्षित वर्ग; जैसे- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ी जाति के बच्चों की शिक्षा का समुचित प्रबन्ध किया जाए। विकलांग बालकों; जैसे—अंधे, गूंगे, बहरे, लंगड़े, लूले आदि और मानसिक दृष्टि से पिछड़े बालकों के लिए अलग से विद्यालय होने चाहिएँ। जंगली जातियों के बालकों की शिक्षा के लिए विशेष प्रकार के हॉस्टिल तथा निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। खानावदोश; जैसे—पछाते, इनके कबीलों के साथ-साथ स्कूल चलने चाहिएँ। अभिप्राय यह है कि जहाँ ये कबीले अपना पड़ाव डालें, वहीं इनके शिक्षकों को भी पड़ाव डालना चाहिए। तब हम कह सकते हैं कि हमने राष्ट्र के सभी बालकों को शिक्षा के समान अवसर सुलभ करा दिए हैं।
9. निर्धन बच्चों के लिए छात्रवृत्तियों की व्यवस्था- कुछ बालक योग्यता एवं क्षमता रखने पर भी धन के अभाव में शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते। अतः ऐसे निर्धन बालकों के लिए छात्रवृत्तियों की व्यवस्था होनी चाहिए।
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