एक शैक्षिक दार्शनिक के रूप में गांधीजी का मूल्यांकन कीजिए। अथवा शिक्षा के क्षेत्र में गांधीजी के योगदान का वर्णन कीजिए।
शैक्षिक दार्शनिकों के रूप में महात्मा गांधीजी का मूल्यांकन (Estimate of Gandhiji as an Educational Philosopher)
एक शैक्षिक दार्शनिक के रूप में गांधी जी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। गांधी जी के शिक्षा दर्शन में आदर्शवादी, प्रकृतिवादी और प्रयोजनवादी आदि समस्त विचारधाराओं के दर्शन होते हैं। डॉ० एम० एस० पटेल ने गांधीजी के विषय में लिखा है- “उनका शिक्षा दर्शन अपनी योजना में प्रकृतिवादी है, अपने उद्देश्य में आदर्शवादी है और अपनी पद्धति और कार्यक्रम में प्रयोजनवादी है।”
श्री जे० बी० कृपलानी ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है- “गांधीजी ने शिक्षा को अपने विचारानुसार सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने के लिए साधन के रूप में देखा। तुम शिक्षा को बिना सामाजिक कार्यक्रम के स्वीकार कर सकते हो लेकिन यदि तुम उसके सामाजिक दर्शन से उसे अलग करते हो तो वह (शिक्षा) बहुत दिनों तक नहीं चल सकती, वह अपनी जड़ों से कट जाती है। “
गांधीजी की सम्पूर्ण शिक्षा योजना गाँवों की अर्थव्यवस्था पर निर्भर करती हैं और भारत के गाँवों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को अलग रखकर उनकी शिक्षा का सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। गांधीजी की शिक्षा योजना, विचार और कार्य में क्रान्तिकारी है। वह इसे मानने में संकोच नहीं करते कि वह ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था पर निर्भर हैं। हुमायूँ कबीर ने गांधीजी की शैक्षिक देन का मूल्यांकन करते हुए लिखा है- “गांधीजी की राष्ट्र को बहुत सी देनों में से नवीन शिक्षा के प्रयोग की देन सर्वोत्तम है वह युवकों को एक समुदाय के रूप में सहयोग, प्रेम और सत्य के आधार पर एक साथ रहना सिखाकर एक नवीन समाज के लिए तैयार करने का प्रयत्न करती है।”
महात्मा गांधीजी ने राजनीति, समाजोद्धारक और सत्य एवं अहिंसा के प्रतिपादक के रूप में इतना गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया है कि प्रायः लोग उन्हें व्यावहारिक शिक्षाशास्त्री के रूप में कम याद करते हैं परन्तु तत्कालीन राष्ट्रीय परिस्थितियों में गांधीजी ने शिक्षा की जो सेवा की उसे विस्मृत नहीं किया जा सकता। सत्य तो यह है कि उन्होंने ब्रिटिश शिक्षा की नींव को ध्वस्त करके राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली की पुनर्स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। डॉ० एम० एस० पटेल ने ठीक ही लिखा है- “गांधीजी ने उन शिक्षकों और उपदेशकों की गौरवपूर्ण मण्डली में अनोखा स्थान प्राप्त किया है, जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र को नव-ज्योति प्रदान की। “
ग्रीन ने कहा था “पेस्तॉलाजी आधुनिक शिक्षा सिद्धान्त और व्यवहार का प्रारम्भिक बिन्दु था। जहाँ तक पाश्चात्य शिक्षा का सम्बन्ध है यह बात सत्य हो सकती है। गांधीजी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों का निष्पक्ष अध्ययन सिद्ध करता है कि वे पूर्व में शिक्षा सिद्धान्त और व्यवहार में प्रारम्भिक बिन्दु हैं।” शिक्षा के क्षेत्र में गांधीजी के योगदान निम्नलिखित हैं-
1. सम्पूर्ण मानव की शिक्षा का प्रयोगात्मक विकास- गांधीजी एक प्रगतिवादी शिक्षक थे। उन्होंने अपने अन्य राजनीतिक विधियों की तरह शिक्षा की विधियों का भी प्रयोग के आधार पर परीक्षण किया। उन्होंने अपने शिक्षा के परीक्षणों का प्रारम्भ टॉलस्टाय आश्रम दक्षिण अफ्रीका से किया था जो सतत् रूप से परिकृत होता हुआ। फोनिक्स, चम्पारन, साबरमती, वर्धा के आश्रमों में साकार होता रहा। इन सब की ही देन बेसिक शिक्षा थी। इसके साथ ही वे प्रौढ़ शिक्षा, समाज-शिक्षा, स्त्री-शिक्षा, अछूत-शिक्षा और अन्य देशोद्धार के कार्यों में संलग्न रहे। उनके इस पूर्ण मानव की शिक्षा का ही प्रभाव था कि एक आवाज पर सम्पूर्ण भारत एकात्मक रूप से उठ खड़ा हुआ था। गांधीजी ने शिक्षा के क्षेत्र में यह चमत्कारिक प्रयोग करके ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी।
2. देश की राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल शिक्षा- गांधीजी ने देश, काल और परिस्थितियों का सूक्ष्म अध्ययन और विश्लेषण करने के बाद देश को राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति प्रदान की। वह जन-जन की आकांक्षा के अनुकूल और सर्वोदयी समाज के निर्माण की भावना से प्रेरित थे। यह राष्ट्र को सूत्रबद्ध करने का एक अनोखा प्रयास था।
3. शिक्षा का व्यावहारिक स्वरूप- गांधीजी ने ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली को राष्ट्र के हेतु दुःखदायी बताते हुए अपने शिक्षा की प्रतिस्थापना की। राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुकूल सार्थक और व्यावहारिक
4. भारतीय शिक्षा प्रणाली में उद्देश्यपूर्णता का समावेश – महात्मा गांधी ने प्रयोजनावाद और पाश्चात्य दृष्टि से विकसित उद्देश्यपूर्ण विधियों को भारतीय शिक्षा में उचित स्थान प्रदान किया। इस तरह उन्होंने करके सीखना, अनुभव द्वारा सीखना, क्रियात्मक और समवाय रूप से सीखना आदि सिद्धान्तों का समावेश किया। महात्मा गांधी का पाश्चात्य प्रयोजनवादियों से कोई विरोध नहीं था। वह सभी उत्तम शिक्षा प्रणालियों के गुणों को ग्रहण करने हेतु व्यापक दृष्टिकोण रखते थे।
5. सामाजिक कल्याण के लिए शिक्षा- सामाजिक कल्याण के हेतु शिक्षा की भूमिका पर बल देते हुए गांधीजी ने कहा था-“अस्पृश्यता, दहेज प्रथा, विधवा पुनर्विवाह, पर्दा-प्रथा, जाति-प्रथा, धार्मिक प्रथा, अन्धविश्वास और कूप-मण्डूकता, ग्रामीण स्त्रियों, श्रमिकों की दयनीय स्थिति आदि का समाधान केवल शिक्षा के द्वारा ही किया जा सकता है। “
6. सर्वोदय समाज की स्थापना- महात्मा गांधीजी शिक्षा द्वारा वर्गविहीन, समाजवादी सर्वोदयी समाज की स्थापना के आकांक्षी थे। इस तरह उन्होंने शिक्षा को सामाजिक शोषण और उत्पीड़न से मुक्त करने का उपकरण माना और उसका इसी रूप में क्रियान्वयन किया। गांधी जी ने शिक्षा को लोकतांत्रिक परम्पराओं और मूल्यों के विकास में पर्याप्त योगदान देने हेतु तैयार किया था।
7. शिक्षा के विभिन्न पक्षों में सम्बन्ध- शिक्षा के स्वरूप को सुसंगठित करने का अभिनव विचार महात्मा गांधी जैसे शिक्षा विचारक के मस्तिष्क में उपजा था। इस विचार के केन्द्र में उनकी “पूर्ण मानवता का प्रत्यय” निहित है। इसलिए विषयों तथा पाठ्यक्रमों में समवाय सिद्धान्त का अनुसरण किया और शिक्षण विधि, शिक्षक, छात्र, विद्यालय प्रशासन और अनुशासन को परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित किया। उनकी मान्यता थी कि शिक्षा के क्षेत्र में जितने भी विचार उपस्थित हैं वे परस्पर विरोधी हैं परन्तु अलग-अलग तरीके से शिक्षा के विभिन्न पक्षों की व्याख्या करते हैं।
8. भारत में नवीन शिक्षा प्रणाली का सूत्रपात- गांधीजी ने अपने दीर्घ चिन्तन के बाद जिस शिक्षा प्रणाली का सूत्रपात किया उसे “बेसिक शिक्षा” कहा जाता है। यह स्वतन्त्रता की दहलीज पर खड़े भारत के हेतु गांधीजी की एक अनमोल देन थी। इसे “वर्धा योजना” के नाम से भी पुकारा जाता है। यह शिक्षा प्रणाली छात्रों में स्वावलम्बन की भावना उत्पन्न करती है और “सम्पूर्ण मानव” के विकास पर बल देती है।
उपर्युक्त गवेषणा के आधार यह कहा जा सकता है कि गांधीजी एक शरीर में अनेक सफल विचारों के उत्पादक हैं। वे सफल और व्यावहारिक शिक्षाशास्त्री थे। गांधी जी शिक्षा के उद्देश्यों, सिद्धान्तों, पुस्तकों, विषयों आदि का प्रतिपादन करने में कम विश्वास करते थे। वे शिक्षा को अधिक मानवोपयोगी और समाजोपयोगी बनाना चाहते थे।
गांधीजी के शिक्षा दर्शन के सम्बन्ध में डॉ० एम०एस० पटेल ने लिखा है- “गांधीजी के दर्शन में प्रकृतिवाद, आदर्शवाद और प्रयोजनवाद एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक हैं।”
आदर्शवाद गांधीजी के दर्शन का आधार है और प्रकृतिवाद एवं प्रयोजनवाद उसके सहायक हैं। गांधीजी का शिक्षा दर्शन इस बात में प्रकृतिवादी है कि वह बालक की प्रकृति का पूरा ध्यान रखता है और उसके अध्ययन पर बल देता है। डॉ० एम० एस० पटेल ने पुनः लिखा है- “उनका शिक्षा दर्शन अपनी योजना में प्रकृतिवादी, अपने उद्देश्य में आदर्शवादी और अपने कार्यक्रम एवं क्रियाविधि में प्रयोजनवादी है। शिक्षा दार्शनिक के रूप में गांधी जी की वास्तविक महत्ता इस बात में है कि उनके दर्शन में प्रकृतिवाद, आदर्शवाद और प्रयोजनवाद की मुख्य प्रवृत्ति अलग एवं स्वतन्त्र नहीं बल्कि मिलकर एक हो गयीं है।”
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