समाज से आप क्या समझते हैं ? समाज की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
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समाज का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Society)
समाजशास्त्र का केन्द्र बिन्दु समाज है। समाज की उपादेयता सभ्यता के ऊषाकाल से ही विदित रही है, जैसा कि- अरस्तू ने भी लिखा है कि, “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज से बाहर ने रहने वाला मनुष्य देवता है या पशु।” फेरेल मैन (Feral Man) तथा वूल्फ चिल्ड्रेन (Wolf Children) ने भी मनुष्य के लिए समाज की उपयोगिता और आवश्यकता को स्वीकार किया है।
समाज का सामान्य अर्थ- समाज क्या है ? इसका सही अर्थ स्पष्ट करना एक दुरुह कार्य है। सामान्य अर्थ में समाज का अभिप्राय व्यक्तियों के संगठन और मानव समूह से लगाया जाता है, जैसे- महिला समाज, शिक्षक समाज, ब्रह्म समाज इत्यादि । परन्तु समाजशास्त्र के अंतर्गत “समाज’ शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट अर्थ में किया जाता है।
समाज का समाजशास्त्रीय अर्थ- समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से व्यक्तियों में पाये जाने वाले पारस्परिक संबंधों की व्यवस्था अथवा सामाजिक संबंधों के जाल को समाज कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि समाज का निर्माण व्यक्तियों से नहीं, वरन् उनमें पाये जाने वाले सामाजिक संबंधों से होता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि, “समाजशास्त्रीय अर्थ में समाज व्यक्तियों का समूह नहीं होता, बल्कि व्यक्तियों के मध्य पाये जाने वाले पारस्परिक संबंधों की व्यवस्था को हम समाज कहते हैं।”
‘सामाजिक संबंधों’ का विशद अध्ययन हम अगले प्रश्न में करेंगे। यहाँ पर इतना कहना ही पर्याप्त है कि, “समाज सामाजिक संबंधों के जाल को कहते हैं।”
समाज की परिभाषा – अनेक समाजशास्त्रियों ने समाज की परिभाषा दी है, परन्तु सभी परिभाषाओं में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। अतः किसी एक परिभाषा को सर्वमान्य परिभाषा नहीं माना जा सकता है। संक्षेप में हम कुछ प्रमुख विद्वानों की परिभाषाओं का उल्लेख करेंगे-
1. मैकाइवर तथा पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “समाज चलनों तथा कार्यप्रणालियों, अनेक समूहों एवं श्रेणियों की अधिकार, सत्ता और पारस्परिक सहायता तथा मानव व्यवहार के नियंत्रणों व स्वतंत्रताओं की एक व्यवस्था है। इस निरंतर जटिल एवं परिवर्तनशील व्यवस्था को हम समाज कहते हैं। यह सामाजिक संबंधों का जाल है तथा सदा बदलता रहता है।”
2. कूले (Cooley) के अनुसार, “समाज रीतियों या प्रक्रियाओं का एक जटिल ढाँचा है, जो एक-दूसरे की अन्तःक्रियाओं के कारण जीवित है और दूसरों के साथ अन्तःक्रिया करते. हुए बढ़ता है। इस प्रकार इस जटिल सम्पूर्ण समाज में ऐसी एकरूपता पायी जाती है कि एक भाग में पड़ने वाला प्रभाव अन्य भागों को प्रभावित करता है।”
3. गिडिंग्स (Giddings) के अनुसार, “समाज स्वयं एक संघ है, संगठन है, औपचारिक संबंधों का एक ऐसा योग है, जिसके कारण सभी व्यक्ति परस्पर संबंधों द्वारा जुड़े रहते हैं।”
4. रयूटर (Reuter) के अनुसार, “समाज वह अमूर्त शब्द है, जोकि एक समूह के सदस्यों में एवं उन सदस्यों के बीच पाये जाने वाले जटिल पारस्परिक संबंधों का बोध कराता है।”
समाज की प्रमुख विशेषताएँ (Main Characteristics of Society)
समाज सामाजिक संबंधों की व्यवस्था है तथा सामाजिक संबंधों की प्रकृति के अनुरूप ही समाज की कुछ निजी विशेषतायें होती हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है-
1. समाज अमूर्त है – समाज सामाजिक संबंधों का जाल है और सामाजिक संबंध अमूर्त होते हैं अर्थात् उन्हें न तो देखा जा सकता है और न छुआ जा सकता है। सामाजिक संबंध अमूर्त होने से समाज भी अमूर्त होता है। इसीलिये रयूटर ने लिखा है कि, “समाज व्यक्तियों का संग्रह नहीं है, यह तो इन व्यक्तियों के बीच स्थापित संबंधों की एक व्यवस्था है और इसी दृष्टि से यह अमूर्त है।”
2. समाज व्यक्तियों का समूह नहीं – समाज शब्द का प्रयोग अमूर्त रूप से किया जाता है अर्थात् इसका कोई रूप नहीं है। यह तो सामाजिक संबंधों की व्यवस्था अथवा जाल मात्र है। अतः समाज व्यक्तियों का समूह न होकर उनके बीच पाये जाने वाले संबंधों की व्यवस्था का नाम है।
3. समाज केवल मात्र मनुष्यों तक ही सीमित नहीं समाज की एक अन्य विशेषता यह है कि केवल मनुष्य ही समाज में नहीं रहते अपितु पशु भी समाज में रहते हैं। कीट-पतंगों से लेकर पशु-पक्षियों, स्तनधारी जीवों तथा नर वानरों तक को हम समाज में रहते देखते हैं। मानव समाज में केवल चेतना या जागरूकता पशु समाज की तुलना में अधिक पायी जाती है और संस्कृति दोनों समाजों को एक-दूसरे से पृथक् करती है।
4. पारस्परिक जागरूकता – समाज की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता पारस्परिक जागरूकता है। जागरूकता की दशा में जिस संबंधों की स्थापना होती है, वही समाज का निर्माण करते हैं। यहाँ पर उल्लेखनीय है कि सभी संबंध दो प्रकार के होते हैं। पहले प्रकार के संबंध वह होते हैं, इन्हें हम देख सकते हैं और इनका अनुभव कर सकते हैं, जैसे पुस्तक और मेज का संबंध या आग और धुएँ का संबंध। दूसरे प्रकार के वे संबंध हैं, जो एक-दूसरे के निकट रहने, सम्पर्क में आने और प्रेरणाओं के कारण धीरे-धीरे विकसित होते हैं, इन्हें ही सामाजिक संबंध कहा जाता है। पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-बहन आदि के संबंध सामाजिक श्रेणी में आते हैं। सामाजिक संबंधों की स्थापना के लिए दोनों पक्षों में पारस्परिक जागरूकता का होना अनिवार्य है। पारस्परिक जागरूकता के आधार पर निर्मित सामाजिक संबंध ही समाज का निर्माण कर सकते हैं।
5. समाज में समानता तथा भिन्नता दोनों का समावेश- समाज में समानता एवं भित्रता दोनों ही पायी जाती हैं। कुछ समाजशास्त्री इन्हें समाज का एक अनिवार्य तत्त्व मानते हैं। समानता से तात्पर्य शारीरिक तथा मानसिक समानता है अर्थात् मानव समाज में आवश्यकताओं में समानता होती है। इनकी पूर्ति के लिए सामाजिक संबंधों का जन्म होता है और सामाजिक समानता विकसित होती है। सामाजिक संबंध सामाजिक चेतना को जन्म देते जिसे गिडिंग्स ने समानता के प्रति चेतना (Consciousness of Kind) की संज्ञा दी है। भारतीय ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा इसी चेतना और समानता का परिणाम है।
जिस प्रकार समाज के लिए समानता आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार समाज में भिन्नता को भी आवश्यक माना गया है। भिन्नता के बिना समाज की कल्पना तक नहीं की जा सकती तथा इसके अभाव में मानव चींटियों तथा मधुमक्खियों के समान हो जाते हैं। यह भिन्नता ही व्यक्तियों को एक दूसरे पर आश्रित बनाती है और सामाजिक संलिष्टता बनाये रखने में सहायता प्रदान करती है। यह भिन्नता जैविक, प्राकृतिक व सामाजिक रूपों में होती लैंगिक मित्रता समाज की निरंतरता सुनिश्चित करती है।
6. समाज में सहयोग तथा संघर्ष- समाज की एक अन्य विशेषता इसके सदस्यों में पाया जाने वाला सहयोग एवं संघर्ष है। वास्तव में मानव जीवन तथा समाज में सहयोग एवं संघर्ष दोनों का ही समान महत्त्व है। मानव जीवन तथा सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था सहयोग पर आधारित है। सहयोग ही मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति को संभव बनाता है। सहयोग दो प्रकार का होता है – प्रत्यक्ष सहयोग और अप्रत्यक्ष सहयोग। अपने सामने के सहयोग को प्रत्यक्ष सहयोग कहते हैं। ऐसा सहयोग परिवार के सदस्यों के बीच पाया जाता है। अप्रत्यक्ष सहयोग उद्देश्यों में समानता, परन्तु साधनों में भिन्नता के रूप में पाया जाता है। उदाहरण के लिए श्रम विभाजन अप्रत्यक्ष सहयोग है, जिसमें अनेक व्यक्ति आमने-सामने न होते हुए भी एक-दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति में योगदान देते हैं।
जिस प्रकार सहयोग समाज के लिए अनिवार्य है, ठीक उसी प्रकार संघर्ष को भी समाज के अस्तित्व के लिए अनिवार्य माना गया है। संघर्ष भी दो रूपों में पाया जाता है – प्रत्यक्ष संघर्ष और अप्रत्यक्ष संघर्ष प्रत्यक्ष संघर्ष एक-दूसरे के सम्पर्क में आकर किया जाने वाला है, जैसे- क्रान्ति, युद्ध, विवाह-विच्छेद इत्यादि । अप्रत्यक्ष संघर्ष आमने-सामने न होकर भी एक-दूसरे के हितों को क्षति पहुँचाता है। प्रतिस्पर्धा अप्रत्यक्ष संघर्ष का प्रमुख उदाहरण है।
यद्यपि समाज में सहयोग एवं संघर्ष दोनों पाये जाते हैं। फिर भी संघर्ष का सहयोग के अंतर्गत पाया जाना समाज के लिए अनिवार्य है। वास्तव में सहयोग समानता की तरह मुख्य स्थान रखता है और यदि संघर्ष अधिक हो जाता है तो समाज की स्थिरता खतरे में पड़ जाती है।
7. पारस्परिक निर्भरता – समाज का निर्माण करने वाली लघुतम इकाई व्यक्ति है, जो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक-दूसरे पर निर्भर है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य व्यक्तियों पर निर्भर होना पड़ता है। इस सामाजिक पारस्परिक निर्भरता की आवश्यकता व्यक्ति के बाल्यकाल से लेकर अन्त तक किसी न किसी रूप में रहती है। प्रत्येक सामाजिक संबंध भी कम या अधिक मात्रा में दूसरे सामाजिक संबंधों पर निर्भर होता है। इसीलिए पारस्परिक निर्भरता भी समाज की एक उल्लेखनीय विशेषता है।
8. परिवर्तनशीलता – समाज एक स्थिर अवधारणा नहीं है, बल्कि इसमें सदैव ही कुछ न कुछ परिवर्तन होते ही रहते हैं। इसका कारण यह है कि समय की गति के अनुरूप ही व्यक्ति की आवश्यकताओं, परिस्थितियों और विचारों में परिवर्तन हो जाता है। जब कभी भी परिस्थितियाँ और विचार बदलते हैं, तो हमारे पारस्परिक संबंधों की प्रकृति में भी परिवर्तन हो जाता है। इस परिवर्तन से समाज के रूप में भी परिवर्तन हो जाता है। उदाहरण के लिए प्राचीनकाल में गुरु-शिष्य संबंधों का जो रूप था, वह आज देखने को नहीं मिलता है। यह तथ्य समाज की परिवर्तनशीलता का ही परिणाम है।
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