समाजीकरण के प्रमुख अभिकरण क्या हैं ? समाजीकरण के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
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समाजीकरण के अभिकरण (Agencies of Socialization)
बच्चे के समाजीकरण में विभिन्न अभिकरणों का योगदान होता है। इनमें निम्नलिखित मुख्य हैं-
(1) परिवार ( Family) – परिवार समाज की महत्त्वपूर्ण संस्था है जिसमें बच्चे का पालन-पोषण होता है। इसलिए बच्चे का समाजीकरण सर्वप्रथम परिवार द्वारा आरम्भ होता है। परिवार का प्रभाव ही बच्चे के व्यक्तित्व का विकास करता है। मानवोचिल गुणों से सर्वप्रथम परिचय परिवार के माध्यम से होता है। ‘आत्म’ का विश्वास पारिवारिक स्तर पर ही होता है। प्रो० मीड के अनुसार यही समाजीकरण की प्रक्रिया का मुख्य आधार है।
(2) पड़ोस (Neighbourhood) – परिवार के बाद पड़ोस का स्थान मुख्य है। पड़ोसियों के सम्पर्क में आने से बच्चे की दूसरों के व्यवहार को ग्रहण करने की प्रक्रिया आरम्भ होती है।
(3) साथी ( Friends) – बच्चा जब कुछ बड़ा हो जाता है तो वह अपने ही तरह के अन्य बच्चों के सम्पर्क में आता है। अतः इस स्तर पर वह दूसरों से प्रभावित होना शुरू होता है।
(4) जाति और वर्ग (Caste and Class)- जाति और वर्ग भी समाजीकरण के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। जाति और वर्ग प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक स्थिति प्रदान करते हैं। व्यक्ति के समाजीकरण की प्रक्रिया इस प्रकार की सामाजिक स्थिति से प्रभावित होती है।
(5) स्कूल (School)- स्कूल का जीवन भी समाजीकरण में सहायक होता है। शिक्षक का व्यक्तित्व, रहन-सहन, अनुशासन आदि उसे प्रभावित करते हैं और वह उनका आत्मीकरण करता है।
(6) सामाजिक संस्थाएँ (Social Institutions)- परिवार के अतिरिक्त, अनेक ऐसी संस्थाएँ हैं, जिनके सम्पर्क में बच्चा बड़ा होने पर आता है, जैसे धार्मिक, राजनीतिक संस्थाएँ इत्यादि। ये संस्थाएँ व्यक्तित्व के विकास और सामाजिक आदर्शों को सिखाने में सहायक होती हैं।
(7) शारीरिक कारक (Physiological Factors)- समाजीकरण में शारीरिक रचना का स्थान भी महत्त्वपूर्ण है। जिस व्यक्ति की शारीरिक रचना दोषपूर्ण है, उसमें समाजीकरण की प्रक्रिया अधिक कार्यशील नहीं होती है। जैसे मूर्ख और पागल व्यक्ति। ऐसे लोगों में आत्मीकरण की क्षमता का विकास नहीं हो पाता।
(8) मानसिक क्षेत्र (Psychological Field) – मानसिक क्षेत्र भी समाजीकरण को प्रभावित करता है। मानसिक क्षेत्र के अनुसार, व्यक्ति केवल उन सामाजिक आदर्शों को अपनाता है, जिन्हें वह अपने लिए आवश्यक समझता है
(9) आवश्यकताएँ – मनुष्य की शारीरिक और सामाजिक आवश्यकताएँ भी समाज के योग्य बनने को विवश करती हैं। शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह समाज द्वारा मान्य प्रणाली को अपनाता है। इसके अतिरिक्त, वह सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज द्वारा स्वीकृत व्यवहार ग्रहण करता है।
(10) भाषा (Language)- भाषा समाजीकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। भाषा के द्वारा व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करता है। इसी के आधार पर वह सामाजिक अन्तःक्रियाएँ करता है। भाषा के ही द्वारा व्यक्ति समाज के विभिन्न मानकों, नियमों, आदर्शों तथा अभिवृत्तियों आदि को सीखता है। अतः हम कह सकते हैं कि भाषा व्यक्ति के समाजीकरण की महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है।
समाजीकरण का महत्त्व (Importance of Socialization)
मानव समाज में ही रहकर मानव प्राणी समुचित विकास कर सकता है। बिना समाज के उसकी मानवीय सत्ता असम्भव है। समाज के सम्पर्क से ही एक जैविकीय प्राणी एक सामाजिक प्राणी बनता है तथा सहानुभूति, परोपकार जैसे गुण व्यक्ति को समाज से ही प्राप्त होते हैं जिससे यह बात पुष्ट हो जाती है कि मानव प्राणी का समाजीकरण कितना आवश्यक है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए समाजीकरण के कुछ प्रमुख महत्त्वों को हम इस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं-
(1) सुदृढ़ अनुशासन का मार्गदर्शन- जो अनुशासन राजकीय प्रयास के परिणामस्वरूप नहीं हो पाते वे अनुशासन एक जैविक प्राणी को माता पिता के सम्पर्क से ही प्राप्त हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त धार्मिक संस्कारों आदि के द्वारा भी बच्चे का जिस प्रकार का समाजीकरण होता है उससे एक विशिष्ट अनुशासनात्मक गुण अपने आप बच्चे में समाहित हो जाते हैं। उदाहरण के लिए अमुक कार्य उचित है या अनुचित, इसे करना चाहिए या नहीं आदि का निर्धारण बच्चा समाज में रहते-रहते सीखता है जिससे बिना प्रशासनिक दबाव के ही बच्चा अनुशासित जीवन जीने को बाध्य होता है। वास्तव में इस तरह की बाध्यता बच्चे को समाज में रहने पर ही प्रेरित कर सकती है जिसके माध्यम से बच्चा सुदृढ़ एवं अनुशासित जीवन जी सकता है।
(2) सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति- मनुष्य अपनी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति समाज में ही रहकर कर सकता है। बिना समाज के उसकी आवश्यकताएँ या तो पूरी नहीं होंगी या फिर अधूरी ही रह जाएँगी। समस्त पारिवारिक सम्बन्ध व्यक्ति को समाज में ही प्राप्त होते हैं। माता-पिता, भाई, बहन, मामा-मामी आदि अगणित सम्बन्ध समाज की ही देन हैं। इसके अतिरिक्त भी सांस्कृतिक, धार्मिक जैसी अनेक गतिविधियों से परिचय व्यक्ति का समाज से ही होता है। इस प्रकार शारीरिक, मानसिक, भौतिक आधिभौतिक समस्त सम्बन्ध व्यक्ति को समाज के सम्पर्क में आने के बाद ही सम्भव हो पाते हैं।
(3) सामाजिक दायित्वबोध- समाजीकरण का एक महत्त्व यह भी है कि व्यक्ति समाज में रहते-रहते सामाजिक दायित्वों को भी स्वाभाविक रूप से सीखता चलता है। उसे समाज में माता-पिता, भाई-बहन तथा अन्य लोगों के प्रति क्या करना चाहिए आदि की जानकारी समाज के प्राथमिक एवं द्वैतीयक समूहों के बीच ही रहकर वह करता है। इसी . सामाजिक दायित्वबोध का ही परिणाम है कि व्यक्ति समाज सेवी, परिवार – सेवी एवं राष्ट्रसेवी जैसे दायित्वों को अपने ऊपर आवृत्त कर लेता हैं।
(4) विभिन्न सामाजिक क्षमताओं का विकास- जन्म से लेकर मृत्यु- पर्यन्त व्यक्ति शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ाव्यवस्था एवं वृद्धावस्था जैसी अनेक अवस्थाओं से गुजरता है। परिणामस्वरूप उसे जीवन में अनेक प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं और ये अनुभूतियाँ व्यक्ति की अगणित क्षमताएँ प्रदान करती हैं, जिससे व्यक्ति समाज की अनेक विघटनकारी स्थितियों का डटकर मुकाबला करता है।
(5) सामाजिक प्राणी बनाने में सहायक- समाज में रहना और बात है तथा समाज के अनुरूप ढलना और बात है। व्यक्ति समाज में रहकर समाज के अनुसार अपने को ढालता है। समाज से बाहर एकान्त जंगलों में जानवरों के सम्पर्क से व्यक्ति का समाजीकरण सम्भव नहीं है। कास्पर हाज़र, अन्ना, राजू जैसे बालकों की ऐतिहासिक घटनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि व्यक्ति बिना सामाजिक सम्पर्क के बेकार है।
इस प्रकार उपर्युक्त कथनों के आधार पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मानव समाज द्वारा ही व्यक्ति का समाजीकरण होता है और इस समाजीकरण के परिणामस्वरूप ही व्यक्ति का जीवन समाजोचित बनकर स्वयं तथा समाज को लाभान्वित करता है।
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