समाजीकरण क्या है ? समाजीकरण के प्रमुख प्रक्रिया या स्तरों को स्पष्ट कीजिए तथा समाजीकरण को प्रभावित करने वाले मुख्य कारको का वर्णन कीजिए ।
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समाजीकरण (Socialization)
समाजीकरण क्या है? बालक प्रारम्भ से ही एक कुशल सामाजिक व्यक्ति नहीं होता। प्रारम्भ में बालक कुछ मूलभूत आवश्यकताओं एवं मूल प्रवृत्तियों के कारण व्यवहार करता है। ऐसे व्यवहार पशुओं में भी पाये जाते हैं। ज्यों-ज्यों वह समाज के सम्पर्क में आता जाता है उनमें सामाजिक ‘स्व’ (Self) का निर्माण होता जाता है। धीरे-धीरे वह इस अवस्था में पहुँचता है जब वह यह अनुभव करने लगता है कि कुछ ऐसी सामाजिक बातें हैं जिनके लिए उसकी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं में संशोधन करना पड़ सकता है। ऐसा न करने पर उसे अपमानित होना पड़ता है। सामाजिक वातावरण के सम्पर्क में आने पर वह धीरे-धीरे उन व्यवहारों को छोड़ता जाता है। जिन्हें समाज की संस्तुति नहीं मिलती और उन आचरणों, व्यवहारों, गुणों, आदतों को ग्रहण करता जाता है जिनसे समाज या समुदाय सन्तुष्ट होता है। उसकी इस प्रवृत्ति को समाजीकरण कहा जाता है। समाजीकरण की कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) हैविंगहर्स्ट एवं न्यूगार्टन- ‘समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से बच्चे अपने समाज के स्वीकृत ढंगों को सीखते हैं और इन ढंगों को अपने व्यक्तित्व का एक अंग बना लेते हैं।
(2) ड्रेवर – “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने पर्यावरण के साथ अनुकूलन करता है और इस प्रकार वह उस समाज का मान्य सहायक कुशल सदस्य बनता है।
(3) गिलिन और गिलिन- “समाजीकरण से हमारा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा व्यक्ति समूह का क्रियात्मक सदस्य बनता है, उसी के स्तर के अनुसार कार्य करता है। उसके लोकाचार, परम्परा तथा सामाजिक परिस्थितियों के साथ अपना समन्वय स्थापित करता है।”
समाजीकरण की प्रक्रिया या स्तर अथवा सोपान (Process or Stages of the Socialization)
समाजीकरण की प्रक्रिया जन्म से ही आरम्भ हो जाती है। यह प्रक्रिया विभिन्न स्तरों से होकर गुजरती है। विभिन्न समाजशास्त्रियों एवं विद्वानों ने इन स्तरों का वर्णन किया है। समाजशास्त्री जॉनसन ने शैशवावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक समाजीकरण के चार स्तर बताये हैं। गिलिन एवं गिलिन ने समाजीकरण की प्रक्रिया को तीन अवस्थाओं में विभक्त किया है। फ्रायड ने सात स्तरों का उल्लेख किया है। समाजीकरण के विभिन्न स्तरों की विवेचना संक्षेप में निम्न प्रकार से की जा सकती है-
(1) मौखिक अवस्था (Oral Stage)- इस अवस्था में बालक मौखिक निर्भरता अनुभव करता है। इसमें बालक अपने मुख के हाव-भाव द्वारा मन के सन्तोष एवं दुःख आदि को प्रकट करता है। शिशु द्वारा भूख लगने पर संकेत आदि देना आरम्भ कर दिया जाता है। इस अवस्था में माता और शिशु की उप-प्रणाली अत्यन्त ही प्रभावशाली एवं शक्तिशाली होती है। यदि किसी अन्य व्यक्ति द्वारा शिशु की देखरेख की जाती है, तो उसे माता की ही भूमिका का पालन करना पड़ता है। शिशु माता और अपने में अन्तर नहीं कर पाता। परिवार के अन्य सदस्य उससे परिचित नहीं हो पाते दूसरे सदस्यों के लिए बालक एक सम्पदा के रूप में होता है।
(2) शौच सोपान अवस्था (Anal Stage) – सांस्कृतिक विभिन्नता के कारण शौच सोपान अवस्था स्तर की अवधि विभिन्न समाजों में अलग-अलग होती हैं। बालक को शौच सम्बन्धी प्रशिक्षण माता और सांस्कृतिक वातावरण द्वारा मिलता है। इस अवस्था में बालक से यह आशा की जाती है कि वह अपनी थोड़ी-बहुत देखभाल करे। बच्चे को माँ द्वारा प्यार दिया जाता है और बालक भी माँ को प्यार देता है। परिवार के अन्य सदस्य भी बालक के प्रशिक्षण में भाग लेते हैं। शौच सोपान अवस्था में बालक चलने-फिरने लगता है और बातचीत करना सीखता है। परिवार के सदस्यों के साथ बालक के सम्बन्धों का विस्तार होता है।
(3) ऑडिपल अथवा तादात्मीकरण अवस्था (Oedipal or Indentification Stage) – यह अवस्था चौथे वर्ष से आरम्भ होकर लगभग बारह या तेरह वर्ष की आयु तक चलती है। ऑडिपल संकट लगभग चार या पाँचवें वर्ष में घटित होता है। इसके पश्चात् गुप्त अवस्था का काल आरम्भ हो जाता है। इस अवस्था में बालक को लिंग-भेद का ज्ञान हो जाता है। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड (Freud) ने ऑडिपल कॉम्पलेक्स (Oedipal Complex) शब्द का प्रयोग किया है। इसका अभिप्राय लड़के की उस भावना से है, जिससे प्रेरित होकर वह अपनी माँ से प्यार करता है और वह चाहता है कि उसका पिता उसकी माँ से प्यार न करे। इस अवस्था में बालक को लिंग-भेद का ज्ञान हो जाता है। बालक अपने साथी समूहों में भाग लेता है। वह अपने वातावरण से तादात्मीकरण आरम्भ कर देता है। इसके लिए बालक अपनी भूमिकाओं एवं सामाजिक समूहों से तादात्म्य स्थापित करता है। इस अवस्था में बालक के लिए भावात्मक सुरक्षा का होना आवश्यक है।
(4) किशोरावस्था (Adolescence) – यह अवस्था मानव के जीवन की संक्रांतिकाल की अवस्था है। समाजीकरण की प्रक्रिया में यह सबसे महत्त्वपूर्ण स्तर है। इस काल में कैशोर्य संकट उपस्थित होता है। बालक के शरीर में परिवर्तन के चिन्ह प्रकट होने आरम्भ हो जाते हैं। यह बाल्यावस्था एवं युवावस्था के बीच की अवस्था है। इस किशोरावस्था में बालक का मानसिक विकास भी बड़ी तीव्र गति से होता है। बालक से यह आशा की जाती है कि वह विभिन्न भूमिकाओं का निर्वाह करे। बालक माता-पिता के नियन्त्रण से मुक्त होना चाहता है। परिणामत: वह तनावों का अनुभव करता है। बालक के जीवन में प्राथमिक समूहों की अपेक्षा द्वैतीयक समूहों का महत्त्व बढ़ जाता है। इसमें नैतिकता की भावना का विकास होता है। उसे अनेक प्रकार के निषेधों का भी पालन करना पड़ता है। बालक के आत्म-नियन्त्रण की क्षमता विकसित होती है।
समाजीकरण के प्रमुख कारक (Main Factors of Socialization)
श्री किम्बाल यंग का कहना है कि, “समाजीकरण के अनेक साधन हैं, जिसमें स्वीकृति, अस्वीकृति, दण्ड एवं स्वतन्त्रता है।” समाजीकरण में सहयोग प्रदान करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं-
(1) सुझाव ( Suggestion)- बाल्यावस्था में मानसिक विकास न होने के कारण बालकों के द्वारा सुझावों को शीघ्रता से ग्रहण कर लिया जाता है। परिवार के सदस्यों एवं अन्य व्यक्तियों के द्वारा दिए गए सुझावों को ग्रहण करके बालकों द्वारा ज्ञान वृद्धि की जाती है, जो समाजीकरण में सहायक बनते हैं। हुलयालकर (S. C. Hulyalker) का कहना है कि, “सामाजिक जीवन में सुझाव का बहुत महत्त्व है। व्यक्तियों के व्यवहार को परिवर्तन करने का यह महत्त्वपूर्ण ढंग है। व्यक्ति के समाजीकरण में सुझाव का प्रमुख कार्य है।” समाजीकरण के कार्य में सुझाव प्रमुख कारक है।
(2) अनुकरण (Imitation) – अनुकरण द्वारा व्यक्ति समाज में अनेक व्यवहार प्रतिमानों को सीखता है, जिससे समाजीकरण का कार्य सरल हो जाता है। अनुकरण के द्वारा ही व्यक्ति भाषा सीखता है। मीड के शब्दों में, “दूसरों के कार्यों व जान-बूझकर व्यवहारों को अपनाने को अनुकरण कहते हैं।” अनुकरण एक प्रकार का सीखा हुआ व्यवहार है। समाजीकरण एवं व्यक्तित्व के विकास में अनुकरण विशेष योगदान करता है। अनुकरण ऊपर से नीचे की ओर चलता है और यह ज्यामितीय अनुपात में कार्य करता है। यह विचारों की अपेक्षा व्यक्ति के कार्यों को अधिक प्रभावित करता है। समाज में बच्चे सदैव अपने से बड़ों का अनुकरण करते हैं।
(3) सहानुभूति (Sympathy) – सहानुभूति का अर्थ है दूसरे व्यक्तियों की भावना व संवेगों को देखकर उसी प्रकार की भावना या संवेग को प्रकट करना। इसका सम्बन्ध मानसिक जीवन के भावात्मक पक्ष से है। इसके द्वारा व्यक्ति तत्काल किसी को आकर्षित या प्रभावित कर सकता है। यह सामाजिक व्यवहार का स्रोत है और समाजीकरण का एक प्रमुख कारण है। इसके कारण बालक को उद्वेगों एवं प्रेरणाओं को सीखने में मदद मिलती है।
(4) स्वीकृति या अस्वीकृति (Approval and Disapproval) – स्वीकृति के द्वारा भी बालक मानव व्यवहारों को सीखता है। बालक के ठीक व्यवहार पर सहमति एवं गलत व्यवहार पर असहमति प्रकट की जाती है। स्वीकृति एवं अस्वीकृति के कारण बालकों के समाजीकरण का कार्य सरल हो जाता है। हमें बालकों को स्वीकृत व्यवहार करने के लिए प्रेरित एवं प्रशिक्षित करना चाहिए।
(5) मजाक उड़ाना (Ridicule)- किसी का मजाक उड़ाना भी एक प्रकार का दण्ड है। ऐसा करने से बच्चा लज्जित होता है, परिणामत: वह अपने व्यवहार में सुधार करता है। मजाक उड़ाकर अच्छा कार्य करने के लिए प्रेरित करने से समाजीकरण में सहयोग मिलता है।
(6) पुरस्कार एवं दण्ड (Reward and Punishment)- पुरस्कार एवं दण्ड भी समाजीकरण के प्रमुख कारक हैं। बालक द्वारा जब अच्छा कार्य किया जाता है तो उसे पुरस्कार दिया जाता है और जब गलत कार्य किया जाता है तो दण्ड का प्रयोग किया जाता है। इन दोनों कारकों के प्रयोग से बच्चों को सामाजिक प्रतिमानों के अनुरूप कार्य करने के लिए प्रेरित किया जाता है। यह आवश्यक नहीं है कि पुरस्कार का स्वरूप भौतिक ही हो। यह अभौतिक रूप में भी हो सकता है। पुरस्कार एक मुस्कान एवं मधुर शब्द के रूप में भी हो सकती है।
(7) स्वास्थ्य (Health)- अच्छा स्वास्थ्य एवं समाजीकरण में भी सम्बन्ध है। समाजीकरण बालक के स्वास्थ्य पर भी निर्भर है। स्वस्थ बच्चों में समाजीकरण की प्रक्रिया तीव्र रूप से कार्य करती है। अस्वस्थता के कारण अपनी मित्र मण्डली में घुल-मिल नहीं पाते, परिणामत: समाजीकरण में बाधा पड़ती है। अतः स्वास्थ्य भी समाजीकरण का एक प्रमुख कारक है।
बालक के समाजीकरण में परिवार एवं विद्यालय की भूमिका (Role of Family and School in the Socialization of a Child)
परिवार प्रमुख प्राथमिक समूह है। यह समाजीकरण का प्रमुख अभिकरण है। यह बालक के समाजीकरण के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी है। बालक परिवार में जन्म लेता है एवं परिवार के द्वारा ही उसे भाषा, संस्कृति एवं व्यवहार प्रतिमानों का ज्ञान होता है। परिवार की संरचना कुछ इस प्रकार की है कि वह समाजीकरण का कार्य सरलता से कर लेता है। समाजशास्त्री जॉनसन का कहना है, “परिवार विशेष रूप से संगठित रहता हैं जो समाजीकरण को सम्भव बनाता है।”
परिवार नागरिक गुणों की प्रथम पाठशाला है। परिवार में ही बालक नैतिकता का पाठ पढ़ता है। पारिवारिक वातावरण एवं संरचना बालक के समाजीकरण में सहयोग देते हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि जिन बालकों को पारिवारिक वातावरण नहीं मिला था, उनका व्यवहार जंगलों की तरह था। समाजशास्त्री पारसन्स ने बालक के व्यक्तित्व निर्माण के लिए परिवार को आवश्यक माना है।
समाजीकरण में परिवार, व्यक्ति और समाज के बीच की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। परिवार व्यक्ति और समाज का आधारबिन्दु है। पारिवारिक संरचना की दृष्टि से इसमें चार महत्त्वपूर्ण स्थितियाँ होती हैं-
(क) पति-पत्नी, (ख) पिता-बच्चे, (ग) माता-बच्चे एवं (घ) बच्चे-बच्चे। माता-पिता के सम्बन्धों का भी बच्चों पर प्रभाव पड़ता है। यदि माता-पिता के परस्पर के सम्बन्ध अच्छे नहीं हैं और उनमें तनाव है तो ऐसी स्थिति में बालक का समाजीकरण प्रभावित होगा। बालक के समाजीकरण में विकृति आ सकती है। इसके विपरीत यदि माता-पिता के सम्बन्ध ठीक हैं तो बालक का समाजीकरण सामान्य ढंग से ठीक प्रकार होता है। इन्हीं सम्बन्धों से बच्चे अपने भविष्य के सम्बन्धों की कल्पना करते हैं। माता-पिता के पारस्परिक यौन सम्बन्धों का गोपनीय होना भी आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं होता तो बच्चों का समाजीकरण प्रभावित हो सकता है। यदि कोई स्त्री अपने पति से घृणा करती है, तो यह घृणा की भावना बच्चों में भी विकसित हो सकती है। पिता-बच्चे का सम्बन्ध भी बालक के समाजीकरण को प्रभावित करता है। पिता की स्थिति एक नेता जैसी होती है। परिणामतः बच्चा पिता के कार्यों का अनुकरण करता है। पिता के ऊपर ही बच्चों की शिक्षा का भी उत्तरदायित्व रहता है। (माता-बच्चे) का सम्बन्ध बालक के विकास को प्रभावित करता है। माता का प्यार पाकर बालक में कुछ आशाएँ विकसित होती हैं। इन आशाओं पर उसका समाजीकरण निर्भर करता है। यदि कोई बालक माँ के प्यार से वंचित रहता है तो उस बालक का समाजीकरण कुप्रभावित हो सकता है। बालक के ‘आत्म’ के विकास में माता-पिता की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। परिवार में बच्चों बच्चों का सम्बन्ध उन्हें परस्पर एक-दूसरे से सीखने का अवसर देते हैं। इनके परस्पर सम्बन्धों का भी समाजीकरण पर प्रभाव पड़ता है। परिवार की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति भी समाजीकरण को प्रभावित करती है।
बच्चा अपने परिवार की परम्परा के अनुरूप अपना एक दृष्टिकोण विकसित कर लेता है। परिवार की आर्थिक सम्पन्नता अथवा आर्थिक अभाव (गरीबी) का भी बच्चे के समाजीकरण पर प्रभाव पड़ता है। गरीब परिवार के बालकों में हीनता की भावना विकसित हो जाती है। वे सदैव चिन्तित रहते हैं और इसका प्रभाव बालक के मानसिक विकास पर पड़ता है। परिवार सांस्कृतिक अनुकूलन द्वारा बालक का समाजीकरण करता है। किम्बाल यंग का कहना है, “परिवार के सदस्य और विशेष रूप से (माता-पिता) द्वारा एक दिए हुए समाज के मौलिक सांस्कृतिक नियमों (Fundamental Culture Patterns) का बच्चे को परिचय दिलाते हैं। परिवार अपने बच्चों पर नियन्त्रण भी रखता है, परिणामत: बच्चों में समाजविरोधी प्रवृत्तियाँ विकसित नहीं होतीं। इस प्रकार परिवार की तुलना हम एक लघु समाज से कर सकते हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि परिवार समाजीकरण का एक प्रमुख एवं प्रभावशाली अभिकरण है। “
विद्यालय बालक के विचारों एवं दृष्टिकोण को प्रभावित करता है। बालक यहाँ अपने सहपाठियों, अध्यापकों एवं पुस्तकों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करता है। आधुनिक युग में शिक्षा संस्थाओं का समाजीकरण की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। शिक्षालय औपचारिक शिक्षा प्रदान करने वाली संस्था है। बालक परिवार में ज्ञान प्राप्त कर शिक्षालय की नवीन परिस्थितियों में प्रवेश करता है और धीरे-धीरे शिक्षा, शिक्षक, शिक्षार्थी, खेल-खिलाड़ी, पुरस्कार और दण्ड, पुस्तकालय, प्रयोगशाला और विभिन्न वस्तुओं के बारे में जानता है और सम्बन्धित नियम उपनियमों का विभिन्न जाति, धर्म, वर्ग, समुदाय आदि के बच्चों से सम्पर्क होता है।
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