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सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ, आधार, महत्त्व एवं शिक्षा और सामाजिक स्तरीकरण में सम्बन्ध

सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ, आधार, महत्त्व एवं शिक्षा और सामाजिक स्तरीकरण में सम्बन्ध
सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ, आधार, महत्त्व एवं शिक्षा और सामाजिक स्तरीकरण में सम्बन्ध

सामाजिक स्तरीकरण से आप क्या समझते हैं ? इसकी विशेषताओं एवं महत्त्व का वर्णन कीजिए। 

सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Social Stratification)

सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ समाज का विभिन्न स्तरों में विभाजन है। स्तरीकरण ‘स्तर’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ व्यक्तियों का समूह है। समाज के विभिन्न स्तर ऊँच-नीच के आधार पर एक-दूसरे से अलग होते हैं। इन्हीं को सामाजिक स्तरीकरण कहा जाता है। यह व्यवस्था किसी एक समाज तक ही सीमित नहीं है, अपितु विश्व के सभी देशों में पायी जाती है।

दूसरे शब्दों में सामाजिक संस्तरण या स्तरीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा समाज को विभिन्न स्तरों में विभक्त किया जाता है। कतिपय विद्वानों ने सामाजिक स्तरीकरण को निम्न शब्दों में परिभाषित किया है-

1. जिसबर्ट (Gisbert) के अनुसार, “समाज की उच्चता एवं अधीनता के सम्बन्धों में पारस्परिक रूप से सम्बन्धित स्थायी समूहों अथवा श्रेणियों में विभाजन सामाजिक स्तरीकरण है।”

2. मूरे (Murray) के अनुसार, “सामाजिक स्तरीकरण समाज का उच्च तथा निम्न सामाजिक इकाइयों में किया गया समतल विभाजन है।”

3. ऑगबर्न एवं निमकॉफ (Ogburn and Nimkoff) के अनुसार, “वह प्रक्रिया जिसके द्वारा व्यक्तियों एवं समूहों को थोड़े-बहुत स्थायी प्रस्थितियों के उच्चता और निम्नता के क्रम में श्रेणीबद्ध किया जाता है, स्तरीकरण के नाम से जानी जाती है।”

4. सदरलैण्ड एवं वुडवर्ड (Sutherland and Woodward) के अनुसार, “स्तरीकरण केवल अन्तर्क्रिया अथवा विभेदीकरण की ही एक प्रक्रिया है, जिसमें कुछ व्यक्तियों को दूसरे व्यक्तियों की तुलना में उच्च स्थिति प्राप्त होती है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सामाजिक स्तरीकरण समाज का विभिन्न स्तरों में विभाजन है। एक संस्तरित समाज का तात्पर्य एक ऐसे समाज से है, जिसके विविध समूहों के आन्तरिक और बाह्य सम्बन्ध होते हैं, जिसमें व्यक्ति और समूहों को विशेष मान्यता और विशेषाधिकार के आधार पर एक-दूसरे से पृथक् किया जाता है।

सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताएँ (Characteristics of Social Stratification)

सामाजिक स्तरीकरण की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. सार्वभौमिक प्रक्रिया – सामाजिक स्तरीकरण एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है। संसार में ऐसा कोई समूह और समाज नहीं है, जहाँ किसी न किसी प्रकार संस्तरण नहीं पाया जाता हो। संस्तरण मानव जीवन की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। इसीलिए यह प्रक्रिया प्रत्येक समाज में स्वतः क्रियाशील रहती है।

2. कार्य की प्रधानता – सामाजिक स्तरीकरण में कार्य को प्रधानता दी जाती है। व्यक्ति को अपने कार्य के अनुरूप ही सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त होती है और वर्ग या जाति में उसका स्थान निर्धारित होता है।

3. पद सोपान-क्रम – सामाजिक स्तरीकरण के अन्तर्गत समाज में स्तरों का विभाजन पद सोपान-क्रम के अनुसार होता है अर्थात् इन स्तरों में किसी-न-किसी आधार पर ऊँच-नीच पायी जाती है। उदाहरण के लिए जिस जाति या वर्ग की सबसे अधिक सामाजिक प्रतिष्ठा होती है या वह आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक समृद्ध होता है, उसे समाज में उच्च समझा जाता है और इसके विपरीत मानदण्ड रखने वाले वर्ग या जाति निम्न स्तर के माने जाते हैं।

4. निश्चित प्रस्थिति और भूमिका – सामाजिक स्तरीकरण में प्रत्येक जाति अथवा वर्ग की भूमिका पूर्व निर्धारित होती है और उसी के अनुरूप समाज में उसकी प्रस्थिति मानी जाती है। उदाहरण के लिए भारतीय समाज में ब्राह्मणों की भूमिका बड़ी पवित्र मानी जाती है, यही कारण है कि उनकी सामाजिक प्रस्थिति बहुत ऊँची है।

5. सामाजिक मूल्यों में भिन्नता – सामाजिक स्तरीकरण के अन्तर्गत विभिन्न जातियों और वर्गों में पाये जाने वाले सामाजिक मूल्यों व आदर्शों में भिन्नता पायी जाती है। सामाजिक मूल्यों का यह विभेदीकरण सामाजिक स्तरीकरण की एक प्रमुख विशेषता है।

6. समाज का विभाजन- ‘सामाजिक स्तरीकरण’ समाज का विभिन्न स्तरों में विभाजन है। ये स्तर अथवा श्रेणियाँ अपेक्षाकृत स्थायी होती हैं और सभी स्तर परस्पर सम्बन्धित एवं अन्योन्याश्रित होते हैं।

सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधार (Main Bases of Social Stratification)

सामाजिक स्तरीकरण में समाज ऊँच-नीच पर आधारित विभिन्न स्तरों पर विभाजित होता है। इस स्तरीकरण के अनेक आधार हैं, जिन्हें दो प्रमुख श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-

  • (अ) जैवकीय आधार ।
  • (ब) सामाजिक-सांस्कृतिक आधार।

आयु, लिंग, प्रजाति, जन्म, बौद्धिक क्षमता तथा शारीरिक कुशलता जैसे आधार स्तरीकरण के जैवकीय आधार माने जाते हैं, जबकि व्यावसायिक स्थिति, राजनीतिक स्थिति, धार्मिक स्थिति, शिक्षा, अर्जित पद इत्यादि इसके सामाजिक सांस्कृतिक आधार हैं। इन आधारों का विस्तृत विवेचन निम्नलिखित है-

(1) आयु- प्रत्येक समाज में आयु के आधार पर सदस्यों में कुछ-न-कुछ अन्तर पाया जाता है। प्रायः वृद्ध व्यक्तियों को समाज द्वारा अधिक सम्मान दिया जाता है और बच्चों से युवाओं को परिपक्वता के आधार पर अधिक सम्मान दिया जाता है।

(2) लिंग- लिंग के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण लगभग सभी समाजों में पाया जाता है। अधिकांशतः सभी समाजों में स्त्रियों की तुलना में पुरुषों को ऊँचा स्थान प्राप्त होता है। केवल मातृसत्तात्मक समाजों में स्त्रियों का स्थान पुरुषों से ऊँचा होता है।

(3) प्रजाति- प्रजातीय आधार पर ऊँच-नीच अनेक समाजों में पायी जाती है। प्रजाति विशिष्ट शारीरिक लक्षणों से युक्त एक समूह है, जैसे अमेरिका में नीग्रो प्रजाति के लोगों को निम्न स्थान दिया जाता है, जबकि अमेरिकी समाज में गोरी चमड़ी वाली प्रजाति के लोगों को उच्च स्थान प्राप्त है। इसी प्रकार दक्षिणी अफ्रीका में रंग के आधार पर भेदभाव प्रजातिगत भिन्नता के कारण ही है।

(4) जन्म- जन्म के आधार पर ऊँच-नीच की स्थिति हस्तान्तरित होती रहती है। उदाहरण के लिए भारत की जाति व्यवस्था में व्यक्ति जन्म से ही किसी विशिष्ट जाति में पैदा होने के कारण ऊँचा या नीचा स्थान रखता है। जन्म पर आधारित स्तरीकरण बन्द समाजों में पाया जाता है।

(5) बौद्धिक क्षमता- बौद्धिक क्षमता एक जैवकीय आधार है, क्योंकि कुछ व्यक्ति जन्म से ही अद्भुत बौद्धिक क्षमता के स्वामी होते हैं और कुछ मन्द बुद्धि के होते हैं। अधिक बौद्धिक क्षमता वाले व्यक्तियों का समाज में विशेष सम्मान और प्रतिष्ठा होती है।

(6) शारीरिक कुशलता- शारीरिक कुशलता में दक्ष व्यक्तियों को भी समाज में उच्च स्थान प्राप्त होता है, जबकि शारीरिक रूप से दुर्बल जैसे अपंग या अपाहिज लोगों को समाज में अपेक्षाकृत निम्न स्थान प्राप्त होता है।

(7) व्यावसायिक स्थिति- प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रयासों के फलस्वरूप अथवा वंशानुगत रूप से जिस व्यवसाय को अपनाता है, उसके आधार पर उसे समाज में उच्च अथवा निम्न स्थान प्राप्त होता है। कुछ व्यवसाय अन्य व्यवसायों की तुलना में अपेक्षाकृत ऊँचे माने जाते है और इसीलिए इन व्यवसायों में लगे हुए व्यक्तियों को उच्च स्थान प्राप्त होता है।

(8) धार्मिक स्थिति- प्रत्येक समाज में धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। धर्मगुरुओं, धर्म-प्रचारकों तथा मठाधीशों, जिन्हें धर्म सम्बन्धी बातों का विशेष ज्ञान होता है, को समाज में उच्च स्थान प्राप्त होता है, जबकि सामान्य व्यक्तियों को धार्मिक नेताओं की तुलना में कम महत्त्व में प्राप्त होता है।

(9) राजनीतिक स्थिति- जिस वर्ग अथवा व्यक्ति के पास राजनीतिक शक्ति अथवा सत्ता अधिक होती है, उसकी समाज में उच्च स्थिति होती है। आजकल के जटिल समाजों में राजनीतिक स्थिति सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रमुख आधार बन गयी है।

(10) शिक्षा – शिक्षा के आधार पर भी समाज में उच्चता और निम्नता की स्थिति पायी जाती है। उदाहरण के लिए शिक्षित व्यक्तियों को अशिक्षित व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक सम्मान प्राप्त होता है।

(11) अर्जित पद- व्यक्ति अपने गुणों के आधार पर जिस पद को अर्जित करता है, उसके आधार पर भी समाज में उच्च या निम्न स्थिति निर्धारित की जाती है। यह व्यवस्था पदों के   महत्त्व के आधार पर पाये जाने वाले संस्तरण पर आधारित है।

सामाजिक स्तरीकरण का महत्त्व (Importance of Social Stratification)

सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था प्रत्येक समाज में किसी-न-किसी रूप में पायी जाती है, जिससे इसकी उपयोगिता का पता चलता है। यदि स्तरीकरण की व्यवस्था समाज के लिए उपयोगी नहीं होती तो यह सार्वभौमिक रूप से प्रत्येक समाज में नहीं पायी जाती। इसका महत्त्व निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है –

(1) वैयक्तिक महत्त्व – सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था वैयक्तिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण होती है, क्योंकि कार्यों और पदों का निर्धारण करके यह व्यवस्था व्यक्तियों के व्यक्तित्व के विकास में सहायता प्रदान करती है। उसे कार्य करने की प्रेरणा तो मिलती ही है, वह वैयक्तिक संघर्ष से भी बच जाता है। स्तरीकरण के फलस्वरूप उसके अधिकारों और कर्त्तव्यों की स्पष्ट परिभाषा हो जाती है। यह व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति में भी सहायक है।

(2) सामाजिक महत्त्व – समाज की दृष्टि से भी सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। यह व्यवस्था विभिन्न स्तरों को एक-दूसरे पर आश्रित बना देती है और इससे समाज में संगठन बना रहता है। व्यक्ति इस व्यवस्था निर्धारित पदों के अनुसार कार्य करके सामाजिक संगठन को बनाये रखते हैं, क्योंकि यह पूर्व निश्चित उद्देश्यों के अनुसार कार्य करने की प्रेरणा देती है। अतः यह व्यवस्था सामाजिक प्रगति में भी सहायक है। इससे परिवर्तन को भी प्रोत्साहन मिलता है। यह एक प्रकार से श्रम विभाजन की भी व्यवस्था है। प्रत्येक वर्ग अपना कार्य करता हुआ समाज को बनाये रखने में अपना योगदान देता है और इससे संघर्ष से भी रक्षा हो जाती है।

(3) मनोवैज्ञानिक महत्त्व- मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। एक तो इससे प्रत्येक प्रकार के व्यक्ति, समूह तथा स्तर को सामाजिक संतोष प्राप्त होता है, दूसरे स्तरीकरण के द्वारा ही समाज में व्यक्तियों के कार्य तथा मनोवृत्तियों का निर्धारण होता है। यह व्यवस्था व्यक्ति अपना कार्य करने के लिए प्रेरणा भी देती है।

शिक्षा और सामाजिक स्तरीकरण में सम्बन्ध (Relationship between Education and Social Startification)

सामाजिक स्तरीकरण और शिक्षा के संबंध की विवेचना दो प्रकार से की जा सकती है। पहली इस बात से कि सामाजिक स्तरीकरण का शिक्षा पर क्या प्रभाव होता है और दूसरी यह कि शिक्षा सामाजिक स्तरीकरण को किस प्रकार प्रभावित करती है। हमारे देश में सामाजिक स्तरीकरण जाति के रूप में देखा जाता है। जाति का प्रभाव बालक की शिक्षा पर भी पड़ता है। पहले विद्यालयों में उच्च जाति के बालकों को निम्न जाति के बालकों से अलग रखा जाता था परन्तु आधुनिक भारतीय समाज में निम्न वर्ग के बच्चों को वरीयता दी जा रही है।

सम्प्रदाय के आधार पर भी जातीय समाज में स्तरीकरण देखा जाता है। इसका प्रभाव शिक्षा पर पड़ता है। मुस्लिम और ईसाई सम्प्रदाय अल्पसंख्यक होने के कारण शिक्षा के हेतु अलग से सुविधाओं की माँग करते रहे हैं। इनके विद्यालयों में नियुक्ति अथवा प्रबंध के लिए राज्य सरकारों द्वारा अलग से नियम भी बनाये गये हैं। इन नियमों की आलोचना यह कहकर की जाती है कि इसके फलस्वरूप शिक्षा में असमानता को बढ़ावा मिलता है।

आर्थिक आधार बने सामाजिक वर्गों का भी शिक्षा पर प्रभाव पड़ता है। समाज का धनाढ्य वर्ग अपने बच्चों को उन विद्यालयों में भेजना पसंद करता है जहाँ निम्न आर्थिक वर्ग के बच्चे शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते। शहरों और कस्बों में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों की बाढ़ सी आ गयी है। यद्यपि भारत में सबके लिए निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की गयी है, परन्तु अभिभावक अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक शुल्क देते हैं और अपने बच्चों पर अधिक धन खर्च करते हैं कि शिक्षा एक बिकाऊ वस्तु बन गयी है। गरीबों के बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त करने से अब भी वंचित हैं। समाज के किसी विशिष्ट विद्यालय में बच्चे को भेजना सम्पन्न स्थिति का द्योतक माना जाता है। कान्वेण्ट स्कूल, पब्लिक स्कूल, सैनिक स्कूल में अपने बच्चे को भेजकर सम्पन्न वर्ग आर्थिक आधार पर प्राप्त उच्चत्व से संतुष्ट होता है।

यहाँ दूसरे पक्ष को भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है। शिक्षा भी सामाजिक स्तरीकरण को प्रभावित करती है। जाति के आधार पर स्तरीकृत समाज में भी शिक्षा की अपनी भूमिका है। उच्च कुल में उत्पन्न ब्राह्मण के मूर्ख पुत्र की अपेक्षा निम्न कुल में उत्पन्न शिक्षित बालक को अधिक आदर प्राप्त होने लगा है। शिक्षा साम्प्रदायिक कट्टरता को भी कम करती है। शिक्षा द्वारा व्यक्ति अधिक धनोपार्जन करके अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार लाने का प्रयास करता है और एक सामाजिक वर्ग से दूसरे सामाजिक वर्ग में पहुँच जाता है। इस तरह शिक्षा सामाजिक स्तरीकरण को प्रभावित करती है।

शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् व्यक्ति में अलगाव की भावना शिथिल होने लगती है। शिक्षितों में अन्तर्जातीय विवाह की संभावना अधिक रहती है इस तरह शिक्षा व्यक्ति को सामाजिक एकीकरण की ओर अग्रसर करती है। शिक्षा सामाजिक स्तरीकरण को उसी स्थिति में प्रभावित कर पाती है जब शिक्षा संस्थाओं में कार्य करने वाले व्यक्तियों, छात्रों, शिक्षकों और अन्य लोगों के मन में सामाजिक स्तरीकरण की दुर्बलताओं से संघर्ष करने की क्षमता और प्रेरणा हो, परन्तु यह प्रेरणा भी शिक्षा के द्वारा ही संभव है।

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Anjali Yadav

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