सूर की भक्ति भावना पर प्रकाश डालिए।
अथवा
“सूरदास का समग्र काव्य पुष्टिमार्ग के अनुसार विरचित है।” इस कथन की सत्यता की परीक्षा कीजिए।
अथवा
सूरदास की भक्ति- पद्धति की सोदाहरण विवेचना कीजिए।
“पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने के बाद सूरदास ने ‘शान्ति और प्रीति’ के स्थान पर अपने इष्टदेव के प्रति अधिक आत्मीयता का भाव अपनाया और श्रीकृष्ण के ब्रज के सम्बन्धों के द्वारा अपनी प्रेम-भक्ति प्रकट किया।”
-डॉ0 ब्रजेश्वर वर्मा
‘भज् सेवायाम्’ भक्ति शब्द की रचना है। इसमें ‘क्तिन्’ प्रत्यय का समायोग है। इसका अर्थ है। भगवान् की सेवा करना। शाण्डिल्य भक्ति-सूत्र के अनुसार ईश्वर में अनुरक्ति का होना ही भक्ति है। महाप्रभु वल्लभाचार्य ने भक्ति की अपनी परिभाषा दी है। उनके अनुसार, “भगवान् में माहात्म्यपूर्वक सुदृढ़ स्नेह ही भक्ति है। मुक्ति का इससे सरल उपाय नहीं है।” श्रीमद्भागवत में भक्ति के तीन रूप मिलते हैं (1) विशुद्ध भक्ति, (2) नवधा भक्ति, (3) प्रेमा भक्ति एकादश स्कन्ध के 14वें अध्याय में भक्ति को योग, ज्ञान, धर्म, स्वाध्याय, तप, दान से ऊपर माना गया है। जहाँ तक सूर की भक्ति-भावना का प्रश्न है, यह कहा जा सकता है कि उनकी भक्ति भावना उनके विनय के पदों से प्रकट हुई है। उनके पदों का सम्यक अध्ययन करने पर विद्रित होता है कि वल्लभाचार्य से दीक्षित होने से पूर्व सूर भारतवर्ष में प्रचलित अन्य भक्ति-पद्धतियों एवं उपासना-प्रणालियों से प्रभावित थे। इसीलिए उनके कुछ पद हठयोग एवं शैव साधना से प्रभावित जान पड़ते हैं और कुछ पदों में वे निर्गुण भक्ति के भी समर्थक दिखायी देते हैं, जिससे वे जाति-पाँति का विरोध, वेद-शास्त्र की निन्दा, ज्ञान और वैराग्य की महत्ता, आन्तरिक साधना का महत्त्व, सतगुरु की महत्ता, मूर्तिपूजा के विरोधी सन्तों का गुणगान आदि का वर्णन करते हुए दिखायी देते हैं। इसीलिए कहीं वे ‘जौ लौं सतस्वरूप नहिं सूझत’ कहकर सत्यपुरुष की प्रशंसा करते हैं, तो कहीं ‘अपुनपौ, आपुन ही में पायौ’ अथवा ‘शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो’ आदि कहकर निर्गुणमार्गी कबीर की भाँति अन्तःसाधना एवं सतगुरु के उपदेश आदि का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए दिखायी देते हैं। इतना ही नहीं, सूर के ऐसे पद भी पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं, जिनमें रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य, रामानन्द आदि के विचारों का भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इसीलिए सूर के पदों में नवधा भक्ति और विनय की प्रधानता है और विनय की सातों भूमिकाएँ– दीनता, मानमर्षता, भयदर्शन, भर्त्सना, आश्वासन, मनोराज्य और विचारणा विद्यमान हैं तथा वैष्णव सम्प्रदाय के नियमों का पालन दिखायी देता है।
वस्तुतः सूर के काव्य में भक्ति की महिमा का गुणगान ही अधिक हुआ है क्योंकि सूर मूलतः कवि थे। उनके अनुसार कलियुग में भक्ति ही जीव का कल्याण करने में सफल है। बिना भक्ति के जीव को उसका अभीष्ट नहीं मिल सकता है। कलियुग में ज्ञान का माहात्म्य लोगों द्वारा ग्राह्य होगा। अतः भक्ति को पाकर वे मोक्ष पा सकते हैं। सूरदास स्पष्ट कहते हैं कि भक्ति स्वतः पूर्ण है, वह साधन नहीं स्वतः साध्य है, व्यापार नहीं लक्ष्य है। उसकी प्राप्ति सब कामनाओं की इतिश्री है। हरि का भक्त स्वयंसिद्ध हरि ही होता। है। उसके आगे लगभग सभी झुक जाते हैं। कबीर भी कहते हैं, “सतगंठी कोपीन दै साधु न मानै शंक,, राम अमलि भाता रहै, गिनै इन्द्र कौ रंक।” लगभग इसी लहजे में महात्मा सूर भी अपनी बात रखते हैं-
हरि के जन की अति ठकुराई।
महाराज रिषिराज महामुनि देखत रहे लजाई॥
भक्ति के क्षेत्र में सूर के पद दैन्य भाव से अभिषिक्त हैं। वे लगभग तुलसी की विनय-पत्रिका को समरस करते दिखायी पड़ते हैं। सूरदास के पदों में तन्मयता तथा मार्मिकता का अदम्य पुट है और सूर को इसमें पर्याप्त सफलता भी प्राप्त हुई है। सूरदास को भक्ति के लिए जाति का कैद मान्य नहीं है। वे कबीर के समान ‘जाति-पाँति पूछ नहिं कोई, हरि को जपै सो हरि का होई।’ के समान स्पष्ट कहते हैं-
जाति-पाँति कोउ पूछत नाहीं श्रीपति के दरबार।
सूर का यह स्पष्ट कथन है कि भक्ति का अधिकार सबको है। स्त्री तथा शूद्र सबको समान अधिकार है। सूर ने स्पष्ट कहा है कि मनुष्य का चेता कुछ नहीं होता है, लेकिन प्रभु का चेता तत्काल होता है। मनुष्य के समस्त उद्यम उसी के द्वारा सम्भव हो पाते हैं। सूर की ही शब्दावली में द्रष्टव्य है—-
करी गोपाल की सब होइ।
जो अपनो पुरुषारथ मानत, अति झूठो है सोड़।
साधन मंत्र-जंत्र उद्यम बल ये सब डारौ धोइ ॥
सूर ने योग को नकारा है। उन्हें भक्ति ही रासती है। उन्होंने निष्काम भक्ति पर बल दिया है। उन्होंने भक्ति में वैराग्य को प्रशस्त बताया है लेकिन वैराग्य में योग को अस्वीकार किया है। सूर ने अपने समय में प्रचलित यौगिक प्रक्रियाओं का विरोध किया है। इसीलिए सूर ने योगमार्गी साधुओं की निन्दा की है-
भक्ति बिना जौ कृपा न करते तौ हौं आसन करतौं ।
X X X
साधु शील सद्रूप पुरुष कौ अपजस बहु उच्चरती।
औघड़-असत-कुचीलनि सौं मिलि, माया जल में तरती।
सूरदास द्वारा विरचित पदों से इस बात का परिचय मिलता है कि उनकी भक्ति साध्यरूपा है और उनकी स्थिति वैधी भक्ति से साम्य रखती दिखायी पड़ती है। सूरदास का समय ऐसा था, जबकि नाथपन्थी योगियों की बहुलता थी। सूर ने इन समस्त साधुओं के प्रति किसी प्रकार का राग नहीं दिखाया है उल्टे उनमें विरोधी स्वर अधिक उठते दिखायी पड़ते हैं। सूरदास ने भगवान् का माहात्म्य उनकी भक्त वत्सलता, दयालुता, पतित पावनता और शक्तिमत्ता के रूप में व्यक्त किया है और भक्त की लघुता, अपनी निस्सहायता, दीनहीनता एवं पतितावस्था का भी चित्रण किया है।
सूर की भक्ति में तुलसी की अपेक्षा दैन्य का सर्वथा अभाव है। तुलसी की तरह वे कहीं भी नाक में रगड़ते नहीं दिखायी पड़ते। वे एक मुँहलगे सेवक की तरह ही दिखायी पड़ते हैं। कहीं-कहीं सूर प्रभु को चुनौती भी देते दिखायी देते हैं-
नाथ जू अब कैं मोहिं उबारो।
पतितन मैं विख्यात पतित हौं, पावन नाम तुम्हारो॥
बड़े पतित नाहिन पासेगहु, अजमिल को हो जु बिचारो।
भाजै नरक नाउँ मेरो सुनि, जमहि देय हठि तारो॥
छुद्र पतित तुम तारे श्रीपति, अब न करो जियगारो।
सूरदास साँचो तब माने, जब होवै मम निस्तारो ॥
सूर तुलसी से एक कदम आगे हैं। तुलसी यदि अधम हैं तो सूर अधमों के शिरोमणि सूर काव्य में इसीलिए अधिक आनन्द तथा कथन-शैली आकर्षक हो गयी है। सूर अपना दर्जा ऊपर रखते हैं लेकिन कहाँ– अधमों की श्रेणी में यहाँ पर सूर का साग्रह प्रयास द्रष्टव्य है-
महा माचल मारिबे की सकुच नाहिन मोहिं ।
परचिहौं पन किये छारे लाज पन की तोहिं॥
नाहिनै काँचो कृपानिधि करो कहा रिसाइ
सूर कबहूँ न द्वार छाँड़े डारि हौ कटराइ ॥
निश्चय ही कहना पड़ता है कि सूर की भक्ति-भावना में दास्य-भाव तथा संख्य-भाव दोनों का मिश्रण दिखायी पड़ता है। सूर ने अपनी भक्ति-भावना में सांसारिकता से विरक्ति की माँग की है। उन्होंने इसको शुद्ध माया तथा प्रपञ्च माना है और पूर्ण रूप से मिथ्या माना है।
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