हैजा रोग के कारण, लक्षण तथा रोग से बचने के उपायों का वर्णन कीजिये।
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हैजा (Cholera)
हैजा एक तीव्र संक्रामक रोग है। प्रारम्भ में व्यक्ति को दस्त होते हैं। दस्त पनीला होता है। ये चावल के पानी जैसे होते हैं। दस्तों के साथ-साथ रोगी को उल्टी होती है। रोगी को प्यास बहुत सताती है। इसमें पेशाब आना बन्द हो जाता है। इसमें रोगी के हाथ-पैरों में ऐंठन बड़ी होती है। इसमें तापमान गिरता चला जाता है। यदि समय पर सावधानी नहीं बरती जाती है तो रोगी की हृदय गति रुक जाती है।
हैजा मुख्यतः पूर्वी पाकिस्तान या बंगाल, गंगा के डेल्टा तथा भारत के अन्य भागों में महामारी का रूप धारण कर लेता है। यह कुछ पूर्वी देशों में भी प्रचलित है। इसलिए इस रोग को एशियाटिक कॉलेरा के नाम से भी जाना जाता है। है
मौसम – यह रोग गर्मी के मौसम के अन्त में तथा ऑटम (Autumn) मौसम में अधिक फैलता है। ठण्डी ऋतु के आगमन पर यह समाप्त हो जाता है।
हेतकी (Etiology) – यह रोग कॉलेरा वाइब्रियो (Cholera Vibrio) नामक जीवित जीवाणु के द्वारा होता है। इस जीवाणु को कॉलेरा स्पाइरीलियम (Cholera Spirillum) के नाम से जाना जाता है। यह जीवाणु रोगी के मल तथा उल्टी में पाया जाता है। यह सक्रिय, गतिशील तथा कोमा के आकार का होता है। यह 30° से 40° सेण्टीग्रेड तापक्रम पर अल्काइन के माध्यम से पैदा होता है। यह 55° सेण्टीग्रेड के तापक्रम में कुछ मिनटों में नष्ट हो जाता है। इसकी शरीर के बाहर भूमि, दूषित कार्बनिक पदार्थों, दूध, सीवेज तथा अन्य भोज्य एवं पेय पदार्थों में अभिवृद्धि होती है। घरेलू मक्खी इस रोग को फैलाने में महत्त्वपूर्ण कार्य करती है। इस रोग के जीवाणु 15 दिन तक मक्खी में जीवित रह सकते हैं।
प्रसार- इस रोग की छूत मुख से लगती है। जब व्यक्ति दूषित जल, दूध या भोजन को ग्रहण करता है तब इस रोग के जीवाणु उसके शरीर में प्रविष्ट कर जाते हैं। यह रोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को भी लग जाता है। रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति की असावधानी के कारण वह दूसरे व्यक्तियों को इसकी छूत पहुंचा देता है। रोगी के विसर्जनों तथा वस्त्रों से भी यह रोग फैलता है। यह रोग प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपों में फैलता है। अप्रत्यक्ष रूप से यह रोग मक्खियों द्वारा फैलाया जाता है। मक्खियाँ इस रोग को सजीव तथा यांत्रिक दोनों ही रूपों से फैलाती है। इसको हैजा वाहकों द्वारा भी फैलाया जाता है, परन्तु ये इस रोग की छूत को फैलाने में महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं करते हैं।
उद्भवन-काल – इस रोग का उद्भवन-काल बहुत ही अल्प होता है। कुछ घण्टों से लेकर 5 दिन तक माना जाता है।
मृत्यु-दर- इस रोग में मृत्यु दर 5 से 75% तक हो जाती है, परन्तु आधुनिक चिकित्सा ने इस दर को कम कर दिया प्रतिकारिता- स्वाभाविक आक्रमण द्वारा दीर्घकाल के लिए इस रोग से मुक्ति मिल जाती है। एण्टी-कॉलेरा वैक्सीन का टीका लेने से 6 महीनों के लिए कृत्रिम प्रतिकारिता प्राप्त की जा सकती है।
रोग का कारण- इस रोग के साधारण कारणों में लोगों की बुरी आर्थिक एवं सामाजिक दशा, स्वास्थ्य के नियमों के पालन में लापरवाही, सफाई सम्बन्धी उपेक्षा आदि प्रमुख हैं। इसके प्रमुख कारणों में पीने योग्य उचित जल का अभाव, मक्खियाँ, सड़े-गले फल, मेवा, मृतकों को नदियों के जल में प्रवाह करने की प्रथा आदि आते हैं।
निवारक उपाय (Preventive Measures)
हैजा के निवारक उपाय निम्नलिखित हैं-
(1) पृथक्करण – रोगी को अलग कर दिया जाये। इसके लिए उसे अस्पताल भेजकर अलग कर सकते हैं या उसे घर में अन्य व्यक्तियों से अलग कर देना चाहिए। इससे घर के अन्य व्यक्तियों को सम्पर्क तोड़ देना चाहिए।
(2) अधिसूचना (Notification) – यदि किसी व्यक्ति के इस रोग से प्रस्त होने का सन्देह हो तभी उसकी सूचना अधिकारियों को दी जानी चाहिए।
(3) स्थानीय उपाय (Local Measure)- इनके अन्तर्गत निम्नलिखित उपायों को काम में लाना चाहिए-
(i) जिस कमरे में रोगी को रखा गया है, उसके फर्श पर चूना बिखेर देना चाहिए।
(ii) हाथों को धोने के लिए उपयुक्त निसंक्रामक का प्रयोग करना चाहिए। जो व्यक्ति रोगी की सेवा में रहे वह इससे अपने हाथों को धोता रहे।
(iii) रोगी के मल या दस्त तथा उल्टी को पात्र में लेना चाहिए। इस पात्र में चूना नीचे डालना आवश्यक है। उसके इन विसर्जनों को नगर या प्राम से दूर दफना या जला देना चाहिए।
(iv) भोज्य तथा पेय पदार्थों को धूल तथा मक्खियों से बचाना चाहिये।
(v) मक्खियों को नष्ट करने के लिए फार्मेलिन घोल का प्रयोग करना चाहिए। उनके लार्वा को नष्ट करने के लिए। D.D.T. का प्रयोग किया जाना चाहिए। भोजन तथा पेय पदार्थों को उनके दूषण से बचाने के लिए जालियों का प्रयोग करना चाहिए।
(vi) सार्वजनिक स्थानों में भोज्य एवं पेय पदार्थों की बिक्री पर नियन्त्रण तथा उनकी सफाई पर बल दिया जाना चाहिए।
(vii) समस्त पाखानों तथा नालियों को फिनाइल से धुलवाना चाहिये। इसके अतिरिक्त चूना या ब्लीचिंग पाउडर का भी प्रयोग किया जा सकता है।
(4) एण्टी-कॉलेरा टीका- प्रारम्भ में 0.5 सी० सी० की मात्रा में एण्टी-कॉलेरा वैक्सीन का टीका लगाया जाना चाहिये। एक सप्ताह बाद 1 सी० सी० वैक्सीन पुनः लगायी जानी चाहिये। इससे 6 माह की प्रतिकारिता प्राप्त की जा सकती है। वेजीटेबिल बाइल लवण की गोली खाली पेट दी जाये। इसके 15 मिनट बाद एक गोली वैक्सीन की दी जाये। इस मात्रा से व्यक्ति एक वर्ष की प्रतिकारिता प्राप्त कर सकता है।
(5) जल-पूर्ति का शुद्धीकरण (Sterilization of Water Supplies) – यूरोप में हैजा को रोकने के निस्यन्दित जल-वितरण ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इसने भारत में भी हैजा को रोकने से सहायता प्रदान की है। जैसे ही छूत की घटना की सूचना प्राप्त हो, तुरन्त जल के शुद्धीकरण के लिए निम्नलिखित उपायों को काम में लाया जा सकता है-
- कुओं या घर में आये जल को पोटैशियम परमेंगनेट से शुद्ध कर लेना चाहिए।
- पानी का क्लोरीनीकरण-जल को शुद्ध करने के लिए ब्लीचिंग पाउडर या क्लोरीनीकृत चूने का प्रयोग करना चाहिए।
- घरों में पानी को उबालकर शुद्ध बनाया जा सकता है। उबालने से छूत के फैलने का भय दूर हो जायेगा।
(6) रोगी के मल-मूत्र तथा अन्य विसर्जनों को कुशलता से शीघ्र ही नष्ट कर देना चाहिए, जिससे मक्खियों को अपनी वंश वृद्धि के लिए अवसर न मिल सके।
(7) एण्टी-कॉलेरा या ऑइल मिक्चर का प्रयोग निवारक तथा उपचारात्मक दोनों ही दृष्टिकोण से किया जाना चाहिए। इस मिक्चर को उपचारात्मक दृष्टि से 8 से 10 ग्राम तक प्रतिदिन लेना चाहिए। निवारक दृष्टि से पहले एण्टी-कॉलरा टीका लिया जाये तथा बाद में 1 ग्राम मिक्चर प्रतिदिन लेना चाहिये। इस मिक्चर में निम्नलिखित दवाएँ होती हैं-
- आर/स्प्रिंट एथिरिस (R. Spirit Actheris) – 40 मिनट
- आइल ऑफ क्लोव्स (Oil of Cloves) – प्रति 5 मिनट
- आइल ऑफ जूनीपर (Oil of Juniper)
- आइल ऑफ काजपूट (Oil of Cajuput)
- एसिड सल्फ्यूरिक एरोमेटिक (Acid-Sulphuric Aromatic) – 15 मिनट
(8) स्वास्थ्य शिक्षा – व्यक्तियों को जागरूक करने के लिए विभिन्न पोस्टरों, पैम्फलेटों आदि का प्रयोग करना चाहिए। इनके माध्यम से जनता को यह बताया जाये कि अधपके एवं सड़े-गले फलों, सब्जियों तथा अन्य भोज्य पदार्थों को खरीदकर खाना हानिकारक है। अतः इनके उपयोग न करने से हैजा के रोग की छूत को फैलने से रोका जा सकता है। स्वच्छता के महत्त्व को स्पष्ट किया जाये। बाजार की वस्तुओं को खाना-पीना हानिकारक है। पेय पदार्थ, आइसक्रीम आदि के प्रयोग पर रोक लगानी चाहिए। खाली पेट कहीं नहीं जाना चाहिए। दस्तावर दवाइयाँ इस काल में नहीं लेनी चाहिए। मक्खन, उबले दूध से बनाना चाहिए। गर्म पेय तथा भोजन लेना लाभदायक है। भाषण, फिल्म तथा स्लाइड्स के द्वारा एण्टी-कॉलेरा प्रचार करना चाहिए।उपर्युक्त बातों के माध्यम से जनता को सजग बनाया जाना चाहिए।
(9) निसंक्रमण – इस रोग के निवारण के लिये क्रमिक तथा अन्तिम दोनों प्रकार का निसंक्रमण करना चाहिये। विस्तर तथा वस्त्रों को भाप से निसंक्रमित किया जाना चाहिये। यदि ऐसा कुशलतापूर्वक न किया जा सके तो रोगी के वस्त्रों तथा बिस्तर को जलाना ही उपयुक्त है। यदि वे कीमती हैं तो उनको घण्टों तक सूर्य की किरणों से निसंक्रमित करना चाहिये। रोगी द्वारा प्रयुक्त बर्तनों को उबालकर निसंक्रमित किया जाना चाहिये। उसके द्वारा प्रयुक्त पलंग या चारपाई को निसंक्रमित करना चाहिए।
(10) भोजन का निरीक्षण – भोजन को सावधानी के साथ पकाया जाना चाहिए। साथ ही मक्खियों तथा धूल से सुरक्षित रखा जाये।
(11) मेला तथा हाटों में इसकी रोकथाम के लिए उपाय – मेले तथा हाटों में हैजा को रोकने के लिए निम्नलिखित कदम उठाये जाने चाहिएँ-
- रहने तथा खाना बनाने के लिए पृथक् एवं उपयुक्त व्यवस्था की जानी चाहिए, जिससे खाना मक्खियों तथा धूल के प्रकोप से बच सके।
- जल वितरण की व्यवस्था को सुरक्षित रखा जाना चाहिए।
- मल-मूत्र को दूर करने के लिए कुशल एवं उचित व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे मक्खियों को अपनी वंश-वृद्धि के लिए अवसर न मिल सके।
- नहाने के लिए पृथक् एवं उपयुक्त व्यवस्था की जानी चाहिए।
- इसके प्रारम्भ होने से पहले आस-पास के क्षेत्रों के लोगों तथा आने वाले व्यक्तियों को निःशुल्क एण्टी-कॉलेरा टीका लगाया जाये।
उपचार (Treatment)
हैजा के रोगी के उपचार के लिए निम्नलिखित कदम उठाये जा सकते हैं-
(1) उसको थोड़ा-थोड़ा ग्लूकोजयुक्त जल जल्दी-जल्दी देना चाहिए।
(2) कभी-कभी निम्नलिखित दवाइयों का पाउडर भी लाभदायक सिद्ध हो जाता है-
- सोडियम बाइकार्बोनेट – 5 ग्राम
- कालोमल (Calomal) – 1/6 ग्राम
- कैफीन (Cafline ) – 2 ग्राम
इस पाउडर को प्रति दो घण्टे पर दिया जा सकता है। उल्टी तथा दस्त बन्द हो जाने पर इसको प्रति 6 घण्टे पर दिया जाना चाहिए।
(3) यदि शरीर से पर्याप्त जल निकल गया है तो रॉजर्स हाइपरटॉनिक सैलाइन (Rogers Hypertonic Saline) नसों के माध्यम से दिया जाना चाहिए। इसकी मात्रा रक्त दाब तथा रक्त की विशेष गुरुता के अनुसार निर्धारित की जानी चाहिए। कभी-कभी रॉजर्स का अल्काइन घोल नसों या गुदा के माध्यम से दिया जा सकता है। यह घोल प्रति 2 घण्टे पर दिया जाना चाहिए। यह तब तक दिया जाये जब तक मूत्र की मात्रा 20 औंस प्रतिदिन न हो जाये। इस घोल में निम्नलिखित दवाएं होती हैं
- सोडियम बाइकार्ब (Sodium Bicarb ) – 160 ग्रेन
- सोडियम क्लोराइड (Sodium Chloride) – 96 ग्रेन
- एक्वा (Aqua) – 1 पिन्ट
(4) रोगी को गर्म रखा जाये। उसका तापक्रम गिरने नहीं देना चाहिए। उसके लिए गर्म विस्तर का भी प्रयोग किया जा सकता है।
(5) सल्फा-सूसीडाइन (Sulpha-Succidine) या सल्फागाइनीडाइन (Sulpha-Guanidine) की चार टिक्कियाँ या गोलियाँ प्रारम्भ में दी जायें। इनके साथ कायोलिन (Kaolin) 1 ड्राम दिया जाये। इसके बाद प्रति चार घण्टे पर 2 गोली तथा 1 ड्राम कायोलिन दिया जाना चाहिए। यह दवा तब तक चलती रहे जब तक उल्टी तथा दस्त बन्द न हो जायें।
(6) रोगी को अपनी प्यास को बुझाने के लिए बर्फ के टुकड़े चूसने के लिए दिए जा सकते हैं।
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