अध्यापक शिक्षा का सम्प्रत्यय बताते हुए अध्यापक शिक्षा की आवश्यकताओं का वर्णन कीजिए। तथा शिक्षा गुणवत्ता हेतु विशेष अनुसंधान प्रशिक्षण कार्यक्रम का उल्लेख भी कीजिए।
शिक्षा एक आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। जन्म से व्यक्ति सीखने लगता है। तथा अपने अनुभव से उसमें शुद्धता लाता है तथा मृत्यु तक उसकी प्रक्रिया चलती रहती है। इस प्रकार से शिक्षण को एक सामाजिक प्रक्रिया भी कहा जा सकता है। इसमें एक व्यक्ति का विकास न होकर पूरे समाज का निर्माण होता है। इसलिए शिक्षा समाज का एक अभिन्न अंग मानी जाती है तथा वैदिक काल से ही शिक्षक को इसका श्रेय / सम्मान दिया जाता रहा हैं।
शिक्षक को समाज ने जो सम्मान दिया है तथा उसने समाज में जो महत्वपूर्ण पद्भार संभाला है इसके कारण शिक्षक का भी यह उत्तरदायित्व बनता है कि वह भी अपने शिक्षण के प्रति समर्पण व प्रतिबद्धता की भावना रखे।
शिक्षक को छात्रों के प्रति विद्यालय के प्रति समाज के प्रति समर्पण भाव रखना चाहिए। उसे विद्यार्थियों में देश भक्ति, प्रकृति प्रेम, विश्वबन्धुत्व, मानसिक अनुशासन, मानवता के मूल्यों का विकास करना चाहिए। इन सब कार्यों को करने के लिए अध्यापक को अपने विषय में अच्छी पकड़ होनी चाहिए उसमें आत्म विश्वास झलकना चाहिए, उसे अध्यापन के समय विषयवस्तु में तल्लीन हो जाना चाहिए। उसे छात्रों में नैतिक गुणों का विकास करना चाहिए।
शिक्षा समाज की एक अनिवार्य आवश्यकता है क्योंकि शिक्षा ही देश के विकास एवं उसकी सम्पन्नता का आंकलन अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कराती है। कोई राष्ट्र कितना ही सम्पन्न क्यों न हो, लेकिन पूर्णतः सम्पन्नता का प्रतीक उस देश की शिक्षा ही है। जिस प्रकार बिना सूर्य के लालिमा की कल्पना करना असम्भव है ठीक उसी प्रकार बिना शिक्षक के कोई भी राष्ट्र अपनी श्रेष्ठता अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रकट नही कर सकता।
जगतगुरू शंकराचार्य की दृष्टि से शिक्षा वह है, जो मुक्ति दिलाये (“सं: विद्या या विमुक्तेय” – शंकराचार्य)। गाँधी जी ने शिक्षा के विषय में कहा है – “शिक्षा से मेरा तात्पर्य मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास में है।” राष्ट्र के निर्माण में प्रभावशाली शिक्षकों की भूमिका को नकारा नही जा सकता। एच.जी. वेल्स ने शिक्षकों के महत्व को बताते हुए कहा है – “शिक्षक इतिहास का निर्माता है। राष्ट्र का इतिहास विद्यालयों में लिखा जाता है और विद्यालय अपने शिक्षकों की गुणवत्ता से बहुत भिन्न नही हो सकते।” समाज की वर्तमान पीढ़ी की स्थिति को देखकर लगता है कि ऐसा कुछ अवश्य है जो वर्तमान युवा पीढ़ी को नही सिखाया जा सकता है। कोठारी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि – “भारत के भाग्य का निर्माण कक्षाओं में हो रहा है।” राष्ट्र निर्माण का यह पावन कार्य शिक्षक कर रहे है।
लेकिन आज शिक्षक की शिक्षण कुशलता, उसकी कार्यशैली आदि प्रश्नांकित क्यों हो गयी है? इस सम्बन्ध में कुछ विचारकों का मत है कि शिक्षक जन्मजात होते है, बनाए नहीं जाते है। लेकिन पूर्व व अनुसंधानों के परिणामों के द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि प्रशिक्षित शिक्षक अप्रशिक्षित शिक्षकों की तुलना में अधिक प्रभावशाली होते है। इस प्रकार यह कहना अनुचित नही होगा कि पूर्व व शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रमों द्वारा शिक्षक कुशलता व गुणवत्ता में वृद्धि की जा सकती है जिसमें शिक्षक शिक्षार्थियों के अधिगम को प्रभावशाली बनाने में सहयोग दे सके।
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अध्यापक शिक्षा का सम्प्रत्यय
शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का निर्माण करना है तथा अध्यापक शिक्षा मनुष्य निर्माण की प्रक्रिया को निश्चित करती है। मानव निर्माण की प्रक्रिया शैशावस्था से प्रौढ़ावस्था तक चलती है, इसलिए अध्यापक शिक्षा के सभी स्तर ऐसे अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम को विकसित करने में सहायक होंगे जो कि एक और वातावरण और दूसरी ओर सीखने वालों की विभिन्नताओं तथा सामाजिक आवश्यकताओं को निश्चित करें।
मुख्य रूप से अध्यापक शिक्षा इस बात पर बल देती है कि प्रत्येक स्तर पर अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम का निरूपण बच्चों के विकास एवं देश के उद्देश्य के संदर्भ में करना चाहिए। यह एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जिसके कारण उसमें लचीलापन, मानवीय एवं अन्तः अनुशासन की आवश्यकता है।
अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम का उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति में सामान्य शिक्षा एवं व्यक्तिगत संस्कृति का विकास करना होना चाहिए। उनमें शिक्षण की योग्यताओं को विकसित करना होना चाहिए तथा उसे शिक्षण के उन सिद्धान्तों के प्रति जागरूक बनाये रखना होना चाहिए जो स्नेहपूर्ण मानवीय सम्बन्धों के लिए आवश्यक हो तथा उनमें उत्तरदायित्व की भावना हो, जो शिक्षण के माध्यम से सहयोग दें और समाज में आदर्श बने। इस प्रकार अध्यापक शिक्षा से अभिप्राय अध्यापक के गुणों का तार्किक ढंग से व्यवस्थित होना है। इसके अन्तर्गत शिक्षण कौशल, शिक्षण उद्देश्य, सामाजिक विकास, व्यक्तिक विकास आदि को रखा जाता है। शिक्षण कौशल, शिक्षण उद्देश्य तथा शिक्षण की प्रकृति ये तीनों मिलकर अध्यापक शिक्षा की रूपरेखा को तैयार करते हैं।
विशेष अनुसंधान प्रशिक्षण कार्यक्रम (एस.ओ.पी.टी.)
शिक्षा में गुणवत्ता व संवर्द्धन के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षकों को विषय का अत्यन्त ज्ञान, आधुनिक शिक्षण विधियों की जानकारी तथा शिक्षा की नवीन संकल्पनाओं और नवाचारों से भली-भाँति परिचित कराया जाए, जिससे वे समाज और राष्ट्र की आकांक्षाओं के अनुसार उपयोगी मानव संसाधन विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान कर सके। इसके लिए प्रत्येक शिक्षक को उचित समयान्तराल के पश्चात् प्रशिक्षण दिया जाना अत्यन्त आवश्यक है।
इसी उद्देश्य से मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार ने राष्ट्रीय शैक्षिक और प्रशिक्षण परिषद् को प्राथमिक विद्यालयों में अध्यापकों के प्रशिक्षण हेतु जो विशेष अभिविन्यास कार्यक्रम की योजना का उत्तरदायित्व सौंपा, उसे एस.ओ.पी.टी. के नाम से अभिवक्त किया गया है। 4.5 लाख प्राथमिक शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए सन् 1993-94 में इस कार्यक्रम का प्राथमिक शिक्षा में आगमन हुआ।
इस प्रशिक्षण कार्यक्रम में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की संकल्पना के अनुसार ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड योजना में विद्यालयों को दी गई सामग्री के प्रयोग, भाषा, गणित और पर्यावरण अध्ययन (विज्ञान और सामाजिक विज्ञान) विषयों को न्यूनतम अधिगम स्तरों की जानकारी तथा शैक्षिक तकनीकी के प्रयोग पर विशेष बल दिया गया है। संकल्पना यह है कि यह प्रशिक्षण प्राप्त करके शिक्षक उपर्युक्त विषयों के दक्षताधारित शिक्षण में निपुण हो सकेंगे जिसमें छात्र की अधिगम उपलब्धि में गुणात्मक सुधार होगा।
शिक्षण विद्वता पर आधारित है और विद्वतता तब तक सार्थक नहीं होती जब तक वह विद्यार्थियों तक संचारित न की जाय शिक्षण छात्रों एवं अध्यापकों के मध्य अन्तर्सम्बन्ध है। लेकिन अध्यापक के लिए तैयारी छात्रों के अधिगम से ज्यादा महत्वपूर्ण है। आज शिक्षा का मुख्य कार्य अध्यापक की बौद्धिक एवं तकनीकी क्षमताओं में अभिवृद्धि है। आज के अध्यापक को ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो नवीन रचनात्मक एवं तात्कालिक हो और जो नये जीवन दर्शन पर आधारित हो। ऐसी शिक्षा को सामाजिक आदर्शों आदि पर भी बल देना चाहिए।
अध्यापक शिक्षा की आवश्यकता
अध्यापक शिक्षा की योजना का उद्देश्य भावी अध्यापक को शिक्षण क्रिया से सम्बन्धित सिद्धान्तों, नियमों, तथ्यों एवं विधियों का ज्ञान एवं बोध कराने से है। अध्यापक अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर अपने व्यवसायिक जीवन में सीखे हुए ज्ञान का प्रयोग करते है लेकिन अध्यापक शिक्षा में भी दिन प्रतिदिन विकास के कारण, समय बीतने के साथ-साथ उनका ज्ञान अध्यापक शिक्षा के क्षेत्र में प्राचीन एवं निरपेक्ष होता जाता है। हम अपने समाज के मूल्यों एवं मानकों में भी परिवर्तन देख रहे है, इस प्रकार यह सत्य है कि शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है और प्रत्येक अध्यापक का उद्देश्य जीवन पर्यन्त सीखना होना चाहिए। यह मान्यता इस विश्वास पर आधारित है कि शिक्षा एक औपचारिक प्रक्रिया है और कक्षागत परिस्थितियों में संचालित होती है।
शिक्षा में गुणात्मक सुधार और शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए सतत् अधिगम का होना अतिआवश्यक है, क्योंकि शैक्षिक संस्था की शक्ति अधिकांशतः मुख्य रूप से — अपने अध्यापकों की गुणात्मकता पर निर्भर करती है। अध्यापक द्वारा ही छात्रों के उद्देश्यों को आलोकित किया जाता है, नये-नये उपकरणों या साधनों से छात्रों को सुसज्जित किया जाता है और उनके मूल्यों का भी निर्धारण किया जा सकता है।
इस प्रकार यह आवश्यक है कि ऐसी व्यवस्था की जाए जिसमें कि अध्यापक को उसके ज्ञान क्षेत्र में सम्बन्धित विषयों की शिक्षण विधियों, प्रविधियों, सिद्धान्तों, नियमों, मूल्यों का ज्ञान हो सके तथा उस ज्ञान कला शैक्षणिक उपयोग दैनिक जीवन में कर सके। इसलिए ही शिक्षा के क्षेत्र में अध्यापक शिक्षा के इन नवीन प्रत्यत्नों तथा आयामों की आवश्यकता हुई।
अध्यापक शिक्षा के प्रत्यय के अन्तर्गत व्यवसायिक अध्यापकों व अन्य अध्यापकों को उनके व्यवसाय से सम्बन्धित निरन्तर जानकारी प्रदान करना है एवं व्यावसायिक गुणों एवं कौशलों का विकास करना है। दूसरे शब्दों में अध्यापक शिक्षा की व्यवस्था, अध्यापक को शिक्षण व्यवसाय में प्रवेश करने के पश्चात उनके लगातार विकास के लिए उचित अनुदेशन को सुनिश्चित ढंग से दिए जाने के लिए की गई ।
राधाकृष्णन् कमीशन (1948) ने कहा था “यह बात बड़ी विलक्षण है कि हमारे शिक्षक 24 तथा 25 वर्ष की आयु तक पहुँचने से पहले ही उन विषयों के सम्बन्ध में सब कुछ पढ़ लेते है, जो उन्हें पढ़ाने होते है, और उनका शेष जीवन केवल अनुभव •प्राप्ति की शिक्षा के लिए छोड़ दिया जाता है।
टैगोर ने कहा था कि सिखाए वही जो कभी सिखना बन्द न करें। शिक्षक को तो अपनी योग्यता में सुधार लाने के लिए आजीवन ज्ञानार्जन और व्यवसायिक कुशलता प्राप्त करते रहना चाहिए। इस व्यवसायिक कुशलता और दक्षता को बढ़ाने के लिए ही प्रशिक्षण संस्थाएँ स्थापित की जाती है। परन्तु जो शिक्षक सेवाकार्य में लगे हुए है, वे सेवा कार्य छोड़कर प्रशिक्षण लेने बहुत कठिनाई से ही जा सकते है। अतः ऐसे शिक्षकों के लिए सेवाकालीन प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है। इनमें वे सभी शिक्षात्मक और सामाजिक कार्यक्रम सम्मिलित । जिनमें अध्यापक भाग लेते है।
माध्यमिक शिक्षा आयोग ने भी (1952 ) इसकी आवश्यकता स्वीकार करते हुए लिखा है “अध्यापक शिक्षा का कार्यक्रम कितना ही उत्कृष्ट क्यों न हो परन्तु इसी से उत्कृष्ट अध्यापक का निर्माण नही होता। इसमें उसे केवल ऐसा ज्ञान कौशल और अभिवृत्तियाँ मिल सकती है जिनके आधार पर वह आत्मविश्वास के साथ कार्य प्रारम्भ कर सके। परिवर्धित कौशल आलोचनात्मक रूप से विश्लेषण किए गए अनुभव और विकास के व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयत्नों से प्राप्त होता है।”
कोठारी आयोग (1966) ने सेवाकालीन अध्यापक शिक्षा को अत्यन्त आवश्यक बताया है। उसके शब्दों में “शिक्षा के सभी क्षेत्रों में तेजी से हो रही उत्पत्ति के कारण और अध्यापन के सिद्धान्तों और प्रयोगों में लगातार हो रहे विकास के कारण सेवाकालीन शिक्षा का प्रावधान अत्यन्त आवश्यक है।”
अध्यापक शिक्षा के गुणवत्ता स्तर को यदि शैक्षिक तथा उद्यमगत् दृष्टि से देश के शैक्षिक संस्थानों में कार्यरत तथा भावी अध्यापक वर्ग को कार्यकुशलता एवं दक्षता प्रदान करने के लिए उन्हें मानवीय शैक्षिक संसाधन के रूप में विकसित करने के लिए तथा भावी राष्ट्रीय नागरिकों के निर्माण सम्बन्धी दायित्व एवं कर्तव्यों को पूरा करने के लिए आवश्यक माना जाता है वो शायद आज के सन्दर्भ में अनुचित या अनपेक्षित नहीं कहा जा सकता है। 1978 में प्रस्तुत शिक्षक शिक्षा पाठ्यक्रम एक प्रारूप के अन्तर्गत तथा 1988 में इस दस्तावेज में किये गये संशोधन 1996 में राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् द्वारा प्रस्तुत परिचर्चा प्रलेख’ अध्यापक शिक्षा का पाठ्यचर्या प्रारूप’ एवं 1998 में इसके संशोधित रूप ‘गुणवत्ताधारित अध्यापक शिक्षा हेतु पाठ्यक्रम प्रारूप’ जैसे दस्तावेजों के माध्यम से आधुनिक सन्दर्भ में अध्यापक शिक्षा की आवश्यकता को स्थापित करने के लिए प्रयास किया गया है।
विद्यालयी शिक्षा प्रणाली और समाज सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति दोनों ही दृष्टि से प्रचलित अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम को अव्यावहारिक पाया गया, जबकि इसे शैक्षिक और सामाजिक दोनों ही आधारों पर उपयोगी होना जरूरी है। साथ ही राष्ट्रीय मूल्य, लक्ष्य, मान्यताएँ, आदर्श आदि की उपलब्धि के लिए सार्थक प्रयास करने में विफल होने के कारण यह मात्र असम्बन्धित सूचनाओं के सम्प्रेषण का कार्य ही कर रही है। आन्तरिक समाकलन के अभाव में सैद्धान्तिक और प्रायोगिक घटक असंगठित है।
नवीनतम शैक्षिक प्रगति, शोध परिणाम, अनुप्रयोग तथा दक्षता, कौशल आदि के विकास भी वांछित ढंग से अध्यापक शिक्षा कार्यक्रमों के माध्यम से सम्पन्न नहीं हो पा रहे है। अतः इन समस्त आवश्यताओं की पूर्ति के लिए ही आज मानव समाज को आधुनिक अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम की आवश्यकता है, यह कहना अनुचित नहीं है।
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