“अन्तर्राष्ट्रीय विधि विधिशास्त्र का लुप्तप्राय बिन्दु है।” प्रो० हालैण्ड के इस कथन के प्रकाश में अन्तर्राष्ट्रीय विधि की प्रकृति की व्याख्या कीजिए।
विधिशास्त्री हालैण्ड ने कहा है कि “अन्तर्राष्ट्रीय विधि विधिशास्त्र का लुप्तप्राय विन्दु है” जो कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सत्य नहीं मालूम होता। हालैण्ड अपने कथन के पक्ष में तर्क देते हैं कि चूँकि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों का पालन सौजन्यतावश किया जाता है अत: इसको विधि की कोटि में नहीं रखा जाना चाहिए। वह इन नियमों को विधि की कोटि में इसलिए भी नहीं रखना चाहते हैं, क्योंकि इसमें अनुशास्ति का अभाव है जो कि राज्य विधि में होती है। आस्टिन भी इस मत से सहमत हैं।
यह कहना कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि में अनुशास्ति का सर्वथा अभाव है, उचित नहीं होगा। परन्तु यदि यह मान लिया जाये कि इसमें अनुशास्ति का अभाव है तो भी यह कहना अनुचित होगा कि इसे विधि की कोटि में नहीं रखना चाहिए। यह सत्य है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि दुर्बल विधि है, परन्तु वह वास्तव में विधि है। अतः यह कहना कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि विधिशास्त्र का लुप्तप्राय बिन्दु है, उचित नहीं होगा। जहाँ तक अनुशास्ति का प्रश्न है, डायस (Dias) ने लिखा है, “भय तथा निजी स्वार्थ के मुख्य कारण हैं जिनकी वजह से राज्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि का पालन करते हैं।
हालैण्ड ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि को विधिशास्त्र का लुप्तप्राय बिन्दु इसलिए भी कहा है, “क्योंकि उनके मत में इसके विवादों को सुलझाने या निर्णय देने के लिए एक न्यायालय या पंच (arbiter) का अभाव रहता है तथा उसके नियमों का राज्य नम्रतावश पालन करते हैं।
ज्यादातर अन्तर्राष्ट्रीय विधिवेत्ता हालैण्ड के विचार से असहमति प्रकट करते हैं। हालैण्ड का मत इस बात पर आधारित है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि में अनुशास्तियों का अभाव है। इस विषय में यह नोट करना आवश्यक है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा राज्य-विधि की पृष्ठभूमि में अन्तर है तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि में राज्य-विधि के समान अनुशास्तियाँ न तो सम्भव है और न ही आवश्यक। इसके अतिरिक्त, यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के पीछे भी कुछ अनुशास्तियाँ हैं, यद्यपि राज्य विधि की अपेक्षा यह बहुत दुर्बल है। उदाहरण के लिए, न्याय के अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय द्वारा निर्णय पक्षकारों पर सम्बन्धित विवाद के विषय में वन्धकारी होते हैं। इसके अतिरिक्त, संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 94 में प्रत्येक सदस्य ने अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय का पालन करने का संकल्प लिया है तथा इसमें यह भी प्रावधान है कि यदि कोई पक्षकार निर्णय को कार्यान्वित नहीं करता है तो सुरक्षा परिषद् इस विषय में निर्णय ले सकती है तथा अपनी संस्तुति दे सकती है। जहाँ तक न्यायालय के क्षेत्राधिकार का प्रश्न है अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय को ऐच्छिक तथा अनिवार्य दोनों प्रकार के क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं तथा बहुत से राज्यों ने इसके क्षेत्राधिकार को स्वीकार किया है। कुछ अपवादों को छोड़कर न्याय के अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय का सामान्यतया पालन किया गया है।
अब यह सामान्यतः स्वीकार किया जाता है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि को लागू करने के लिए अनुशास्तियों की एक प्रणाली विकसित हो रही है।
सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव या निर्णय राज्यों पर बाध्यकारी होते हैं। यदि संयुक्त राष्ट्र का कोई सदस्य अतिक्रमण करता है अथवा अन्तर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा भंग करने का दोषी होता है, सुरक्षा परिषद् प्रस्ताव पारित करके उसके विरुद्ध अनुशास्तियां घोषित कर सकती है तथा इन अनुशास्तियों को लागू करवाने हेतु उसे चार्टर के अध्याय 7 में व्यापक शक्तियाँ प्राप्त हैं।
1991 का खाड़ी युद्ध इस बात का अच्छा उदाहरण है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि में न केवल अनुशास्तियाँ हैं वरन् कुछ अवसरों पर वह बड़ी ही प्रभावशाली सिद्ध होती है। इराक ने कुवैत पर अतिक्रमण तथा कब्जा करके अन्तर्राष्ट्रीय विधि का खुला उल्लंघन किया था। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव पारित करके इराक से कुवैत को स्वतन्त्र करने तथा उस पर से कब्जा हटाने को कहा। इस प्रस्ताव का इराक पर कोई प्रभाव न होने पर सुरक्षा परिषद ने इराक के विरुद्ध आर्थिक तथा राजनीतिक अनुशास्तियाँ घोषित कीं। इनका भी वांछित प्रभाव न होने पर सुरक्षा परिषद ने अमेरिका तथा उसके अन्य सहयोगी राज्यों को बल के प्रयोग द्वारा इराक के विरुद्ध परिषद के प्रस्तावों का अनुपालन कराने को अनुमति प्रदान की। बहुराष्ट्रीय सेनाओं ने इराक के विरुद्ध युद्ध करके कुवैत को स्वतन्त्र करा दिया तथा सुरक्षा परिषद् के प्रस्तावों का पालन करवाया। इसके पूर्व, इसी प्रकार की कार्यवाही संयुक्त राष्ट्र ने उत्तर कोरिया (1948) के विरुद्ध तथा कांगो (1961) में की थी।
यहाँ पर भी उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र के अतिरिक्त अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं (जैसे विश्व स्वास्थ्य संघ, अन्तर्राष्ट्रीय संस्था) के संवैधानिक विलेखों में भी अनुशास्तियाँ हैं जो कि अभ्यास में बड़ी ही प्रभावकारी सिद्ध होती हैं।
उपरोक्त विवरण के आधार पर कह सकते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि विधिशास्त्र का विलुप्त बिन्दु नहीं है, वरन् अन्तर्राष्ट्रीय विधि नियमों तथा सिद्धान्तों का एक समूह है, जिसे अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के सदस्य अपने पारस्परिक सम्बन्धों में बन्धनकारी मानते हैं। किसी राज्य द्वारा न मानने पर, इन नियमों का बाह्य शक्ति द्वारा पालन कराया जा सकता है। असंख्य संधियों में राज्य न केवल अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों को बाह्यकारी स्वीकार करते हैं वरन् लगातार इस तथ्य का अनुमोदन करते हैं कि उनके मध्य विधि है। वह अपने अधिकारियों, न्यायालयों एवं राष्ट्रीयता वाले व्यक्तियों को अन्तर्राष्ट्रीय विधि द्वारा अधिरोपित कर्त्तव्यों के अनुरूप कृत्य करने को कहकर भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि को स्वीकार करते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विधिक रूप को 1970 के राज्यों के मध्य मैत्री सम्बन्धों एवं सहयोग से सम्बन्धित अन्तर्राष्ट्रीय विधि के सिद्धान्तों की घोषणा में भी स्वीकार किया गया है।
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