राजनीति विज्ञान / Political Science

अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का अर्थ एंव इसके विकास की आवश्यकता

अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का अर्थ एंव इसके विकास की आवश्यकता
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का अर्थ एंव इसके विकास की आवश्यकता

अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना से आप क्या समझते हैं? अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास की आवश्यकता एवं महत्व की विवेचना कीजिए।

अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का अर्थ- अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना एक ऐसी योग्यता है जो आलोचनात्मक रूप से सभी लोगों के आचार-विचार का निरीक्षण करे और उनकी अच्छाइयों की एक दूसरे से प्रशंसा करे जिसमें इनकी राष्ट्रीयता और संस्कृति का ध्यान न रखा जाये।

दूसरे शब्दों में- जब व्यक्ति अपने राष्ट्र तक सीमित न रहकर समस्त विश्व को अपना समझने लगता है और उससे प्रेम करने लगता है, तब उसकी भावनाएं अन्तर्राष्ट्रीयता की परिधि में रहने लगती है। उसके विचार अधिक व्यापक हो जाते हैं।

गोल्डस्मिथ ने अन्तर्राष्ट्रीयता की परिभाषा इस प्रकार दी है- “अन्तर्राष्ट्रीयता मनुष्य को यह बताने का प्रयत्न करती है कि व्यक्ति अपने राज्य का ही सदस्य नहीं है वरन् संम्पूर्ण संसार का नागरिक भी है।”

डॉ० डब्लू० एच० सी० लेव्ज के अनुसार- “अन्तर्राष्ट्रीय भावना इस ओर ध्यान दिये बिना कि व्यक्ति किस राष्ट्रीयता या संस्कृति के हैं, एक-दूसरे के प्रति सब जगह उनके व्यवहार का आलोचनात्मक और निष्पक्ष रूप से निरीक्षण करने और आंकने की योग्यता है।”

डॉ० लेविस के अनुसार- डॉ० लेविस ने अन्तर्राष्ट्रीय भावना की परिभाषा इस प्रकार दी है- “अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना एक योग्यता है जो बिना यह ध्यान दिये कि व्यक्ति की क्या संस्कृति अथवा राष्ट्रीयता है उसे एक दूसरे के प्रति सभी स्थानों पर उसके व्यवहार का आलोचनात्मक और निष्पक्ष रूप से निरीक्षण करने तथा आंकने में समर्थ बनाती है।”

सफाया व शईदा के अनुसार- “अन्तर्राष्ट्रीय एकता वह सूचित चेतना है जो विश्व समाज में एक राष्ट्र का अस्तित्व बनाये रखती है तथा एक राष्ट्र यदि अपना अस्तित्व कायम रखना चाहता है तो उसे विश्व समाज में शान्ति बनाये रखने का प्रयत्न करना होगा तथा युद्धों से बचना होगा।”

इस प्रकार यदि हम बिना भेदभाव के किसी व्यक्ति के राष्ट्र प्रजाति अथवा संस्कृति का सम्बन्ध अच्छाइयों को मानते हैं तो हममें अन्तर्राष्ट्रीय भावना होती है। हम सीमा का ख्याल न रखकर सम्पूर्ण विश्व को एक कुटुम्ब के रूप में देखते हैं और पारस्परिक निर्भरता की अपेक्षा रखते हैं। सबसे प्रेम रखते हैं और सभी संस्कृतियों और इनके मानने वालों की अपेक्षा रखते हैं। सबसे प्रेम रखते हैं और सभी संस्कृतियों और उनके मानने वालों की अच्छी बातों को ग्रहण करते हैं तो ऐसी स्थिति अन्तर्राष्ट्रीय भावना की होती है। परन्तु आज ऐसा नहीं होता है। विश्व का इतिहास इसे बताता है कि यह एक कल्पना थी और आज तक कल्पना रही, फिर भी राष्ट्रों के प्रयत्न अवश्य होते रहे कि समूची मानवता का एक सूत्र में बंध जाये और वसुधैव कुटुम्बकम की भावना उत्पन्न हो।

अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास की आवश्यकता

अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना आधुनिक समय में अत्यन्त आवश्यक है। आज हमें किसी राजनैतिक समस्या का समाधान राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं वरनु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी करना चाहिए क्योंकि आज का युग अन्तर्राष्ट्रीयता का युग है। इस युग में हम अकेले नहीं रह सकते। अपने विकास के साथ-साथ हमें दूसरों के विकास का भी ध्यान रखना है। यह कार्य विश्व बन्धुत्व की भावना से ही सम्भव हो सकता है अत: आज अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना के विकास की बहुत आवश्यकता है।

इस भावना के विकास की आवश्यकता निम्न कारणों से हैं।

(1) अन्तर्राष्ट्रीय भावना से ही मानव का कल्याण सम्भव- संकीर्ण राष्ट्रीयता की भावना के कारण बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में दो महायुद्ध हो चुके हैं और तीसरे की तलवार सिर पर लटक रही है। इन युद्धों के परिणामों से आप भली भांति परिचित है। इन युद्धों में सामूहिक क्रूरता, मानव का अंग-अंग अत्याचार, मौलिक, मानवीय और राजनीतिक अधिकारों का हनन और धार्मिक स्वतन्त्रता का विनाश जितनी अधिक मात्रा में हुआ है, उतनी मात्रा में मानव जाति के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ इसीलिए आज का समाज राष्ट्रीयता को भय की दृष्टि से देखने लगा है। अब राष्ट्रीयता द्वारा विश्व में सुख तथा शान्ति के स्थायित्व की और मानव समाज के कल्याण की कोई आशा नहीं की जा सकती। राष्ट्रीयता उस मानव की सृष्टि करने में असमर्थ है जो अपने को पहचान कर विश्व के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित कर सकता है अर्थात् विश्व के नागरिकों के प्रति प्रेम, सद्भावना, सहानुभूति तथा उदारता का व्यवहार कर सकता है इसीलिए आज के युग की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना है।

(2) राष्ट्रों के पारस्परिक हित- आधुनिक समय में विश्व के समस्त देश तीव्रता से प्रगति के मार्ग पर अग्रसर है। जो देश इस ओर थोड़ा भी कमजोर पड़ेगा पिछड़ जायेगा। अत: अब दूसरे देशों के प्रति उदासीन नहीं रहा जा सकता। अब कूप मंडूक राष्ट्रीयता का युग बीत गया है। अब कोई राष्ट्र स्वयं अपने में पूर्ण तथा आत्मनिर्भर नहीं है। एक राष्ट्र की उन्नति दूसरे राष्ट्रों पर निर्भर है। अपने दैनिक जीवन की आवश्यक वस्तुओं के लिए हमें दूसरों का मुँह ताकना पड़ता है। अब तो हमें अन्तर्राष्ट्रीयता का दृष्टिकोण ही अपनाना चाहिए और ऐसी शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए जो अन्तर्राष्ट्रीय भावनाओं के विकास में सहायोग दे सकें तभी हमारे देश का भी भला होगा।

(3) मानवीय एकता की भावना – सम्पूर्ण मानव जाति एक है और विश्व एक इकाई है। यद्यपि विश्व के भिन्न-भिन्न देशों में विभित्र रूप, रंग, जाति तथा धर्म के लोग निवास करते हैं परन्तु उन सबकी मानवीय आत्मा एक है। हम भारत के रहने वालों को भारतीय कहते हैं और अरब के रहने वालों को अरबी परन्तु जहाँ तक मानवीय गुणों का सम्बन्ध है, ये सब देशों में एक है। हम भारतीय उदारता या भारतीय सहानुभूति नहीं कहते। ये तो सभी देशों के निवासियों के मानवीय गुण है। अतः शिक्षा द्वारा बालकों को इन गुणों की प्राप्ति के लिए उत्साहित करना चाहिए। और उनमें अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास करना चाहिए। इससे बालक समस्त मानव जाति के प्रति प्रेम तथा सहानुभूति रखना सीख जायेगे।

(4) अविकसित राष्ट्रों को विकसित करना- सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में आज संसार के सभी देश समान नहीं है। कुछ अभी भी अपनी स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ रहे हैं। इन पिछड़े देशों को सभ्यता के सामान्य स्तर पर लाना तथा उनके जीवन को सुखी एवं समृद्धिशाली बनाना मानवता के नाते हमारा पुनीत कर्तव्य है। प्राय: विश्व के कुछ पिछड़े देशों के कारण ही पारस्परिक वैमनस्य, लड़ाई, झगड़े, कलह तथा युद्धों की रचना होती है। यदि हम अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत होकर मानवता के नाते अपने पिछड़े हुए देशों की जनता को सभ्य एवं स्वतन्त्र बना लें तो संसार के सभी देशों के नागारिक सुख और शान्ति से रह सकते हैं।

(5) सभी देशों के मध्य एकता की भावना विकसित करना- संसार के सम्पूर्ण देश विश्व रूपी परिवार के सदस्य है। इस विश्वरूपी परिवार के सभी राष्ट्र चाहे वे बड़े हों अथवा छोटे शिक्षित हो या अशिक्षित प्रगतिशील हों या पिछड़े हुए, सदस्य है। हमारा लक्ष्य विश्व परिवार है। जिस प्रकार एक परिवार के सदस्य पारस्परिक प्रेम तथा भाई चारे की भावना से सम्बद्ध रहते हैं उसी प्रकार विश्व रूपी बड़े परिवार के सदस्यों को प्रेम तथा भाई चारे की डोरी में सम्बद्ध रहना चाहिए। यदि ऐसा सम्भव हो सका तो विश्व में पारस्परिक द्वेष, घृणा, ईर्ष्या, लम्पटता पनपने न पायेगी और विश्व में सुख, शान्ति, समानता तथा स्वतन्त्रता स्थापित हो सकेगी।

(6) विज्ञान और तकनीकी के विकास हेतु – आधुनिक युग में विज्ञान और तकनीकी का बहुत तेजी से विकास हो रहा है। आज आविष्कारों ने संसार को बहुत छोटा और विभिन्न देशों को बहुत निकट ला दिया है। रेडियो, टेलीफोन, टेलीविजन इंटरनेट आदि ने तो संसार को बिल्कुल सिमटा कर रख दिया है। किसी भी देश में होने वाली घटना विश्व के अन्य देशों में कुछ ही पलों में प्रसारित हो जाती है। एक देश में होने वाली राजनैतिक व सामाजिक दशा का प्रभाव दूसरे देशों पर पड़ता है। अत: ऐसी स्थिति में अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का विकास आवश्यक है।

(7) मानव जाति तथा मानव मूल्य एक है- सम्पूर्ण मानव जाति एक है और विश्व एक इकाई है। यद्यपि विश्व के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में विभिन्न रूप, रंग, जाति तथा धर्म के लोग निवास करते हैं परन्तु उन सबकी मानवीय आत्मा एक है। हम भारत के रहने वालों को भारतीय कहते हैं और अमेरिका के रहने वालों को अमेरिकन, परन्तु जहाँ तक मानवीय गुणों का सम्बन्ध है, ये सब प्रदेशों में एक है। हम भारतीय उदारता या भारतीय सहानुभूति नहीं कहते। ये तो सभी प्रदेशों के निवासियों के मानवीय गुण है। अत: शिक्षा द्वारा बालकों को इन गुणों की प्राप्ति के लिए, उत्साहित करना चाहिए और उनमें अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास करना चाहिए। इससे बालक समस्त मानव जाति के प्रति प्रेम तथा सहानुभूति रखना सीख जायेगे।

(8) विश्व युद्ध की रोकथाम का मूल साधन है- अन्तर्राष्ट्रीय भावना के विकास के द्वारा हम विश्व युद्ध की पुनरावृत्ति को रोक सकते हैं। विश्व में सुख और शान्ति स्थापित कर सकते हैं। अत: अब शिक्षा द्वारा अथवा शिक्षालयों द्वारा बालकों में अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करने का प्रयत्न करना चाहिए जिससे इस तरह की शिक्षा पाये हुए बालक जीवन में प्रवेश करने पर अन्तर्राष्ट्रीयता के सच्चे स्वरूप का संरक्षण तथा परिवर्धन कर सकें।

एक राष्ट्र का कल्याण जिस प्रकार राष्ट्र के सभी व्यक्तियों पर निर्भर करता है, उसी प्रकार विश्व बन्धुत्व परिवार अथवा विश्व राष्ट्र का कल्याण सभी राष्ट्रों में उत्तम भावनाओं के विकास पर तथा उनके पारस्परिक मैत्रीपूर्ण प्रेमपूर्ण तथा शान्तिपूर्ण व्यवहार पर निर्भर करता है। शिक्षा द्वारा ही वसुधैव कुटुम्बकम का सिद्धान्त प्रतिफलित हो सकता है। विश्व बन्धुत्व का भाव जगाने के लिए यह आवश्यक है कि हम बालकों के समक्ष आरम्भ से ही विश्व परिवार का लक्ष्य रखें। आरम्भ से ही बालकों में यह भावना भरने का प्रयत्न करें कि विश्व के सभी राष्ट्र संसार रूपी परिवार के सदस्य है और हमें सभी देशों को समान रूप से सम्मान करना चाहिए।

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Anjali Yadav

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