किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए?
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किशोरावस्थाक की विशेषताएँ
किशोरावस्था की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(1) किशोरावस्था एक परिवर्तन की अवस्था है— किशोरावस्था बाल्यावस्था एवं प्रौढ़ावस्था के बीच की अवस्था है जिसमें कई परिवर्तन होते हैं; जैसे— शारीरिक, मानसिक मनोवैज्ञानिक, संवेगात्मक, बौद्धिक, सामाजिक आदि। इस कारण इस अवस्था को परिवर्तनों की अवस्था कहा जाता है। इन परिवर्तनों के कारण बाल्यावस्था की आदतें, व्यवहार के लक्षण समाप्त हो जाते हैं तथा उनका व्यवहार प्रौढ़ावस्था की ओर अग्रसर होता जाता है। अब किशोर यह भली-भाँति समझने लगता है कि “वह अब बालक नहीं है बल्कि बड़ा हो गया है इसलिए उसे स्वावलम्बी होना चाहिए। अर्थोपार्जन कर आत्म निर्भर बनना चाहिए। अपना काम स्वयं करना चाहिए। जीवन की कठिनाइयों एवं संघर्षों का सामना करना चाहिए।”
हरलॉक के अनुसार “किशोरावस्था में होने वाले परिवर्तनों का ज्ञान किशोरों को धीरे- धीरे होता है और इस ज्ञान की वृद्धि के साथ-ही-साथ वह वयस्क व्यक्तियों की तरह व्यवहार करना प्रारंभ कर देता है, क्योंकि अब वह वयस्क दिखाई देने लगता है।”
(2) किशोरावस्था अस्थिर एवं तीव्र संवेगों की अवस्था है- किशोरों में उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास व परिवर्तनों के फलस्वरूप अनेक बदलाव आते हैं। जैसा कि विदित है किशोरावस्था ‘तनाव व तूफान’ की अवस्था है। किशोर कभी बहुत भावुक व गम्भीर कभी अत्यधिक उत्साही व कल्पनाशील रहता है। कुछ मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि किशोरों में संवेगात्मक अस्थिरता का प्रमुख कारण ग्रन्थीय परिवर्तन व सामाजिक सम्बन्धों की व्यापकता व समायोजन है।
(3) किशोरावस्था कामुकता के जागरण की अवस्था है- शारीरिक वृद्धि एवं हार्मोन परिवर्तन के कारण यौन अंगों में परिपक्वता आ जाती है। फलतः उनमें कामेच्छा (Sex Desire) की जागृति होने लगती है किशोरावस्था के बालक-बालिकायें विषय लिंगों के प्रति आकर्षित होने लग जाते हैं। उनका यह आकर्षण मात्र दैहिक होता है। यदि उनके इस आकर्षण को रोका नहीं जाए और सही दिशा निर्देश नहीं दिये जाएँ तो वे भ्रमित हो जाते हैं और गलत कार्य कर बैठते हैं। लड़कियाँ बिन ब्याही माँ बन जाती हैं। लड़के दुराचरण के शिकार हो जाते हैं।
(4) किशोरावस्था उमंगपूर्ण कल्पना की अवस्था है— किशोरों में उमंगपूर्ण कल्पना की प्रधानता होती है। वे अपना अधिकांश समय कल्पना लोक के विचरण में ही बिताते हैं। वे अपनी कल्पना में कभी डॉक्टर बनकर मरीजा का ऑपरेशन करते नजर आते हैं, तो कभी इंजीनियर बनकर किसी बड़े पुल का निर्माण करते हैं, कभी कल्पना चावला की तरह अंतरिक्ष में सैर करते हैं व कैंसर जैसे खतरनाक बीमारी हेतु दवाइयों की खोज करते हैं। उनकी कल्पनाएँ रंग-बिरंगी होती है जिसमें वे नायक होते हैं। काल्पनिक संसार में जाने के कारण वे शांत एवं अन्तर्मुखी हो जाते हैं। बालक विभिन्न प्रकार की कल्पनाएँ उस समय अधिक करते हैं, जब उनके प्रेम संबंध किसी लड़का-लड़की से चल रहे होते तथा उसे दूसरों के सामने प्रकट करने में संकोच करते हैं। यहाँ तक कि वे अपनी प्रेम संबंधी निजी समस्याएँ अंतरंग मित्रों से भी नहीं कर पाते हैं। अतः वे अपने कल्पना जगत में, काल्पनिक मित्र से बातचीत करके उन सभी सपनों को साकार कर लेते हैं जो वास्तविक जगत में शीघ्र संभव नहीं है।
(5) पूर्व किशोरावस्था के बालकों की स्थिति अस्पष्ट होती है- पूर्व किशोरों की स्थिति बड़ी ही अस्पष्ट होती है। जब वे बालकों की तरह व्यवहार करते हैं, तो उन्हें यह कहकर डाँटा-फटकारा जाता है कि “इतने बड़े हो गये हैं और फिर भी बच्चों की तरह हरकत करते हों।” जब वे वयस्कों की तरह बताचीत करते हैं, व्यवहार करते हैं, तो यह कहकर उपहास/मजाक उड़ाते हैं कि “तुम अभी इतने बड़े नहीं हुए हो कि वयस्कों की भाँति व्यवहार करो।” ऐसी स्थिति में बालक यह नहीं समझ पाता है कि कब वह बड़ा हो जाता है और कब छोटा बालक। कब बालकों की तरह व्यवहार करना चाहिए और कब नहीं? अतः परिवार व समाज में किशोर बालक की तरह स्वतंत्रता पूर्वक व्यवहार करने की अनुमति दी जाती है और न ही उसे युवा की तरह मान-सम्मान ही मिलता है। इन दोनों ही स्थितियों में उसकी स्थिति “धोबी क कुत्ता न घर का न घाट का” वाली कहावत चरितार्थ होते नजर आती है। वह त्रिशंकु की तरह बालक और युवा के बीच में लटका नजर आता है। इस अस्पष्ट स्थिति के कारण उसे माता-पिता एवं परिवार के सदस्यों के साथ समायोजन बिठाने में कठिनाई आती है। अनेक बार उसे अपने माता-पिता एवं परिवार के सदस्यों से डाँट भी खाना पड़ सकती है।
(6) किशोरावस्था निश्चित प्रतिमान की अवस्था है- शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था की तरह ही किशोरावस्था का भी अपना एक निश्चित विकास प्रतिमान होता है जो शनैः-शनैः विकसित होकर परिपक्वावस्था को प्राप्त करता है। प्रारंभ में प्रायः सभी किशोरों को अपने माता-पिता की बातें जरा भी नहीं सुहातीं । उनके सलाह, सुझाव, रोकटोक उन्हें बिल्कुल भी अच्छे नहीं लगते। वे माता-पिता की बातों का विरोध करते हैं। अतः वे उनसे चिढ़ते हैं। इसके विपरीत उन्हें पड़ोसियों, मित्रों की बातें अधिक अच्छी लगती हैं। किशोर बालक उन्हें ही अपना हितैषी मानते हैं। इसका लाभ उसके पड़ोसी उठाते हैं और उन्हें भ्रमित कर देते हैं। आये दिन अखबारों में पढ़ने को मिलता है कि पड़ोसी ने 14-15 वर्ष की बालिका को बहला- फुलसाकर घर से भगाकर गया तथा बाद में बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी। यह सब तीव्र शारीरिक, मानसिक एवं मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों के कारण ही होता है। जैसे-जैसे किशोर- किशोरियों की उम्र बढ़ती जाती है और शारीरिक वृद्धि व विकास अपने चरम सीमा पर पहुँच जाता है, वैसे-वैसे उनमें बुद्धि एवं परिपक्वता आ जाती है। अब वे अपने माता-पिता की बातों को महत्त्व देने लग जाते हैं। उनके भीतर व्याप्त अस्थिरता, असुरक्षा की भावना, अनिश्चितता, भ्रम आदि दूर हो जाता है। तथा वे सांवेगिक रूप से स्थिर हो जाते हैं।
(7) किशोरावस्था शैशवावस्था की पुनरावृत्ति है- किशोर-किशोरियों की बहुत-कुछ आदतें, कार्य व्यवहार, संवेग रुचियाँ आदि शिशु की तरह होते हैं। वे शिशु की भाँति ही असुरक्षि, अस्थिर, चंचल, लापरवाह एवं स्वयं के प्रति अनिश्चित होते हैं। वे संवेगात्मक रूप से भी काफी भावुक होते हैं। अतः उन्हें रोते-हँसते जरा-सी भी देर नहीं लगती। जरा-जरा सी बात पर नाराज हो जाते हैं। वहीं वे चिकनी-चुपड़ी, मीठी-मीठी बातों में आकर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार भी हो जाते हैं। वे उसी कार्य को करते हैं जिनमें उन्हें खुशी मिलती है। शिशुओं की भाँति उन्हें भी प्रेम होता है कि वे माता-पिता एवं दूसरे लोगों के आकर्षण के केन्द्र बिन्दु है। परन्तु ऐसा सोचना सरासर गलत है। उन्हें माता-पिता, भाई-बहनों, परिवार के सदस्यों, मित्रों व शिक्षकों के साथ समायोजन बिठाना पड़ता है। शिशु जिस प्रकार विपरीत लिंगों के प्रति आकर्षित होता है, ठीक उसी प्रकार किशोर-किशोरियाँ भी विपरीत लिंगों के प्रति आकर्षित होता है। किशोर अपनी प्रेमिका में अपनी माता का प्यार व स्नेह ढूंढ़ता है तो किशोरियाँ अपने प्रेमी में पिता का स्नेह । उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि किशोरावस्था शैशवावस्था की ही पुनरावृत्ति है।
(8) किशोरावस्था तूफान एवं परेशानी की अवस्था है— चूँकि किशोरावस्था में तीव्र शारीरिक, मनसिक, संवेगात्मक एवं हार्मोन परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों के कारण बालक भ्रमित हो जाता है कि उनके भीतर यह सब क्या हो रहा है। वह यकायक हो रहे इन परिवर्तनों के साथ समायोजन स्थापित नहीं कर पाता है, जिससे वे तनावग्रस्त हो जाते हैं।
(9) किशोरावस्था आत्मनिर्भरता की अवस्था है— किशोरावस्था के बालक- बालिकायें शारीरिक व मानसिक रूप से इतना परिपक्व हो जाते हैं कि वे अपने सभी काम खुद ही करते हैं। खाने-पीने, नहाने-धोने, पढ़ने-लिखने, स्कूल का होम वर्क आदि करने के अलावा वे घरेलू कार्यों में भी माता-पिता एवं परिवार के सदस्यों के कार्यों में सहयोग करते हैं। आत्मनिर्भरता की यही भावना उसके प्रौढ़ जीवन की तैयारी में सहायता प्रदान करती है।
(10) किशोरावस्था वीर पूजा की अवस्था है— किशोरावस्था के बालक-बालिकाओं में अदम्य साहस व असीम उत्साह होता है। उनके मित्रों की संख्या भी अधिक होती है परन्तु वे उन्हीं मित्र को हीरों मानते हैं जो देखने में आकर्षक व स्मार्ट, बोलने में वाकपटु व मधुर हो तथा जिसका कार्य एवं व्यवहार उत्तम हो तथा जिसमें नेतृत्व की क्षमता हो। इसके अतिरिक्त किशोर उन लोगों को अपना आदर्श मानते हैं जो समाज एवं राष्ट्र की उन्नति में योगदान देते हैं। कुछ किशोर-किशोरियाँ नये चमकते क्रिकेट महेन्द्र सिंह धोनी को अपना हीरो मानते हैं तो कुछ अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को । वे उन्हें अपना आदर्श मानकर अपने जीवन में प्रगति करना चाहते हैं।
(11) किशोरावस्था व्यवसाय चुनने की अवस्था है— व्यवसाय चुनने की सबसे सुन्दर व श्रेष्ठ अवस्था होती है “किशोरावस्था”। किशोर बालक-बालिकायें पढ़-लिखकर क्या बनना चाहते हैं, इसका निर्धारण भी इसी अवस्था में हो जाता है। यदि वह डॉक्टर, इंजीनियर, व्याख्याता, वकील या अन्य पदों पर आसीन होना चाहता है तो उसी तरह का विषय का चयन करके, पूरे मन से अध्ययन करता है और सफलता प्राप्त करता है। जो किशोर 17-21 वर्ष तक अपना व्यवसाय/नौकरी का निर्धारण नहीं कर पाते हैं वे जीवन में ठोकरें खाते-फिरते हैं। क्योंकि व्यवसाय का निर्धारण, इसी अवस्था में किया जाना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हैं।
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