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संगठन संरचना को प्रभावित करने वाले संयोगिक घटक | contingency factors affecting organization structure in Hindi

संगठन संरचना को प्रभावित करने वाले संयोगिक घटक | contingency factors affecting organization structure in Hindi
संगठन संरचना को प्रभावित करने वाले संयोगिक घटक | contingency factors affecting organization structure in Hindi

संगठन संरचना को प्रभावित करने वाले संयोगिक घटक

संगठन संरचना का कोई एक स्वरूप सभी उपक्रमों के लिए उपयुक्त नहीं है बल्कि प्रत्येक उपक्रम के प्रकृति व आकार के आधार पर संगठन संरचना कई घटकों पर विचार करके निर्धारित की जाती है। अतः संगठन संरचना एक महत्वपूर्ण कार्य है। पीटर एफ० ड्रकर के अनुसार, “संगठन संरचना एक अत्यन्त महत्वपूर्ण साधन है तथा गलत संरचना व्यवसाय की कार्यक्षमता को भयंकर रूप से प्रभावित करेगी और यहाँ तक कि गलत संरचना व्यवसाय का विनाश तक कर सकती है।” पीटर एफ० ड्रकर तथा एल्बर्ट विक्सबर्ग ने संगठन संरचना को प्रभावित करने वाले विभिन्न संयोगिक घटकों का वर्णन किया है जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-

(1) संगठन का आकार- संस्था का आकार भी संगठन संरचना को प्रभावित करने वाला प्रमुख घटक है। बड़े उपक्रम में विशिष्टीकरण व विकेन्द्रीयकरण पर बल दिया जाता है जबकि छोटी संस्था में केन्द्रीय संगठन संरचना अपनाई जाती है।

(2) संगठन का उद्देश्य – संगठन स्वयं में कोई उद्देश्य नहीं होता, वह तो संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने का एक साधन मात्र है। आर० सी० डेविस ने लिखा है कि, “संस्था के उद्देश्य संगठन संरचना के प्रमुख निर्धारक तत्व हैं।” अतः संगठन संरचना का निर्धारण करते समय संस्था के उद्देश्यों से कर्मचारियों की क्रियाओं का निर्धारण होता है, जिनके निष्पादन हेतु संगठन संरचना तैयार की जाती है।

(3) व्यूह रचना – प्रबन्धकों की व्यूहरचना का भी संगठन संरचना का प्रभाव पड़ता । अल्फ्रेड डी० चाउलर ने लिखा है कि, “संगठन संरचना व्यूह रचना का अनुगमक करती है।”

(4) कार्यों की प्रकृति- संस्था में किये जाने वाले कार्यों की प्रकृति भी संगठन संरचना को प्रभावित करती है। किसी भी उपक्रम की स्थापना कुछ विशिष्ट कार्यों को करने के लिए की जाती है। अतः कार्यों की प्रकृति जैसी होगी, वैसी ही संगठन संरचना की स्थापना की जायेगी।

(5) वातावरण- संगठन संरचना पर वहाँ के राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक पर्यावरण का भी प्रभाव पड़ता है। लारेन्स एवं लोरर्च के अनुसार, “गतिशील वातावरण में कार्य करने वाली फर्मों का संगठन लोचशील होना चाहिए, जबकि स्थिर वातावरण में कार्य करने वाली फर्मों की संगठन संरचना कठोर होनी चाहिए।

(6) कर्मचारियों की योग्यता- किसी संस्था में कार्यरत कर्मचारियों की योग्यता संरचना को प्रभावित करती है। यदि संस्था के कर्मचारी अत्यन्त योग्य एवं निपुण हैं तो व्यवसाय के संचालन में विशेषज्ञों की को प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होगी तथा संगठन में रेखा प्रारूप को अपनाया जा सकता है। किन्तु इसके विपरीत विशेषज्ञ कर्मचारियों के अनुरूप किसी उपयुक्त संरचना का निर्माण करना होगा।

(7) नियन्त्रण विस्तार- प्रत्येक प्रबन्धक की निरीक्षण एवं निर्देशन की योग्यता सीमित होती है। वह एक सीमित संख्या में ही व्यक्तियों का नियन्त्रण कर सकता है। अतः इस सीमा को ध्यान में रखते हुए ही संगठन संरचना का निर्माण किया जा सकता है।

(8) बाजार की स्थिति संगठन संरचना पर बाजार के प्रकार एवं स्थिति का भी बहुत प्रभाव पड़ता है। बाजारों का आकार सीमित होने पर संगठन संरचना को छोटा रखना होगा। किन्तु राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों की दशा में संगठन का ढाँचा विस्तृत एवं व्यापक होगा।

(9) तकनीक – किसी उपक्रम में उत्पादन क्षेत्र में प्रयुक्त तकनीक भी संगठन संरचना को प्रभावित करती है। जॉन वुडवार्ड का मत है कि जैसे-जैसे तकनीकी जटिलता बढ़ती है, वैसे वैसे संगठन के स्तर बढ़ते हैं, इससे न केवल प्रबन्धकों व पर्यवेक्षकों की संख्या बढ़ती है, बल्कि कर्मचारियों की पारस्परिक निर्भरता भी बढ़ जाती है। फलस्वरुप संगठन संरचना प्रभावित होती है।

(10) प्रबन्धकों का दृष्टिकोण- प्रबन्धकों का दृष्टिकोण भी संगठन को प्रभावित करता है। जहाँ प्रबन्धकों का दृष्टिकोण एकाकी नियन्त्रण व निर्देशन का होता है। वहाँ संगठन का ढाँचा सरल होगा। किन्तु स्वायत्त इकाइयों व विकेन्द्रीयकरण को महत्व देने वाले प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को अधिकाधिक सत्ता सौंपना चाहते हैं, अतः उनकी संगठन संरचना जटिल व विस्तृत होगी ।

(11) विक्रय नीतियाँ – जो संस्थाएँ रक्षात्मक विक्रय नीति को अपनाती हैं, उनकी संगठन संरचना अपेक्षाकृत छोटी व सरल होती है। किन्तु जो संस्थाएँ आक्रामक विक्रयनीति को अपनाती है, बाजार पर नियन्त्रण करने की दृष्टि से उन्हें संगठन संरचना को विस्तृत बनाना होता है।

(12) पद समता- संगठन संरचना की स्थापना करते समय पद समता का भी ध्यान रखना चाहिए। इसके अनुसार संगठन के किसी एक ही अधिकारी के दो समान पद वाले अधीनस्थों के अधिकारों में किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं होना चाहिए। समान कार्य करने वाले व्यक्तियों के पद व अधिकार समान होने चाहिएँ, ताकि मधुर सम्बन्धों की स्थापना की जा सके।

(14) विभागीयकरण – विभागीयकरण के अनेक आधार हो सकते हैं, जैसे- वस्तु, उपभोक्ता, भौगोलिक क्षेत्र, क्रिया आदि और प्रत्येक आधार प्रत्यक्ष रूप से संगठन संरचना को प्रभावित करता है। जहाँ तक सम्भव हो सके, उपक्रम विभागों व उपविभागों में मूल क्रियाओं का वर्गीकरण समान आधार पर किया जाना चाहिए क्योंकि इससे संगठन संरचना सरल बनी रहती है तथा विभिन्न विभागों पर नियन्त्रण भी सुगमतापूर्वक किया जा सकता है।

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Anjali Yadav

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