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क्रियात्मक विकास का अर्थ | क्रियात्मक विकास के प्रकार | बालक के जीवन में क्रियात्मक विकास का महत्व

क्रियात्मक विकास का अर्थ | क्रियात्मक विकास के प्रकार | बालक के जीवन में क्रियात्मक विकास का महत्व
क्रियात्मक विकास का अर्थ | क्रियात्मक विकास के प्रकार | बालक के जीवन में क्रियात्मक विकास का महत्व

क्रियात्मक विकास का अर्थ

जब शिशु जन्म लेता है तो उस समय वह बिल्कुल निःसहाय तथा पराश्रित रहता है तथा उसे जिस स्थान पर लिटा दिया जाता है वह उसी स्थान पर लेटा रहता है। उसमें इतनी भी क्षमता नहीं होती कि वह यहाँ वहाँ हिल-डुल सके। धीरे-धीरे उसकी मांसपेशियों तथा नाड़ियों का विकास होने लगता है, जिससे बालक उनकी गतिविधियो को नियन्त्रित करने लगता है और जन्म के समय शिशु की मांस पेशियों की जो कि अनिश्चित क्रियायें होती हैं, उनको नियन्त्रित करने लगता है। मांसपेशियों तथा नाड़ियों की गतिविधियों को नियन्त्रित करने वाली योग्यताओं को क्रियात्मक योग्यता कहते हैं। क्रियात्मक योग्यता की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए क्रो तथा क्रो ने लिखा है-

“क्रियात्मक योग्यताओं का तात्पर्य उन विभिन्न प्रकार की शारीरिक गतियों से है जो कि नाड़ियों तथा माँसपेशियों की क्रियाओं के ‘संयोजन’ के द्वारा सम्भव होती हैं।” नाड़ियों तथा माँसपेशियों की उन योग्यताओं के विकास को क्रियात्मक विकास कहा जाता है। हरलॉक ने क्रियात्मक विकास को परिभाषित करते हुए लिखा है, “क्रियात्मक विकास का तात्पर्य माँसपेशियों की उन गतिविधियों के नियन्त्रण से है जो जन्म के समय निरर्थक तथा अनिश्चित होती है।”

क्रियात्मक विकास के प्रकार (Kinds of Motor Development) 

बाल मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न क्रियात्मक योग्यताओं के स्वरूप के आधार पर क्रियात्मक विकास को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया है।

(1) स्थूल गतिविधियाँ (Gross Movements) – सामान्यतः शैशवावस्था में अर्थात् जीवन के प्रथम 4-5 वर्षों में स्थूल गतिविधियों के विकास की प्रधानता रहती है। इन गतिविधियों में शरीर के अधिकांश अंगों का उपयोग होता है। इनके अन्तर्गत बैठना, चलना, दौड़ना, फेंकना, तैरना आदि गतिविधियों का समावेश होता है।

(2) सूक्ष्म क्रियात्मक कौशल (Minor motor Skill) — शैशवावस्था के बाद सूक्ष्म क्रियात्मक कौशल का विकास होता है। इन कौशलों में बालक की छोटी-छोटी मांस पेशियों का संयोजन होता है। इन कौशलों के अन्तर्गत-पकड़ना, लिखना, सोना, चित्र बनाना, खेलना उपकरणों का प्रयोग करना आदि सम्मिलित है।

बालक के जीवन में क्रियात्मक विकास का महत्व (Importance of Motor Development in the life of the Child )

 बालक के जीवन में क्रियात्मक विकास का अत्यधिक महत्व है। जितनी जल्दी बालक का क्रियात्मक विकास हो जाता है, उतनी ही जल्दी वह वातावरण के साथ समायोजन स्थापित कर लेता है और उसे नवीन कौशलों को सीखने में सुविधा होती है। क्रियात्मक विकास के द्वारा बालक अपने शरीर को अच्छी प्रकार से नियन्त्रित करने लगता है। बाल-विशेषज्ञों तथा बाल-मनोवैज्ञानिकों ने क्रियात्मक विकास या क्रियात्मक योग्यताओं के विकास का बालक के जीवन में निम्नलिखित महत्व बताया है-

(1) अनेक कौशलों को सीखना – बालक का क्रियात्मक विकास उसे विभिन्न प्रकार के कौशलों को सीखने में सहायता करता है। जब बालक अपने विभिन्न अंगों का अच्छी प्रकार संचालन करने लगता हैं और उनको नियन्त्रित करने लगता है, तभी वह किसी बात को सीखने के योग्य होता है। शारीरिक कौशलों (Motor Skills) का सीखना बिना क्रियात्मक विकास के सम्भव नहीं है।

(2) आत्म-निर्भरता- बालक जन्म के समय असहाय तथा पराश्रित होता है। परन्तु क्रियात्मक योग्यताओं के द्वारा उसमें स्वाश्रितता आती है। जितना ही वह अपने कार्य को बिना किसी की सहायता के स्वयं ही कर सकेगा, उतनी ही आत्म-निर्भरता उसमें आयेगी।

(3) आनन्द की प्राप्ति- बालक जब अपने खिलौनों तथा अन्य उपकरणों के साथ खेलता है तो उसे आनन्द की प्राप्ति होती है और वह अपने समय को खुशी-खुशी बिता सकता है खेल के द्वारा उसकी मांसपेशियों का व्यायाम होगा; परन्तु खेलने की शक्ति उसमें क्रियात्मक योग्यताओं के द्वारा ही आयेगी।

(4) सामाजिक विकास- क्रियात्मक योग्तयाओं के विकास के परिणामस्वरूप जब बालक में खेलने की क्षमता का विकास हो जाता है, तब वह खेलने के लिए अपने अन्य साथियों से सम्पर्क स्थापित करता है। जिन बालकों के दौड़ने, कूदने, गेंद फेंकने छलाँग मारने आदि क्रियात्मक योग्यताओं का विकास उचित समय में नहीं हो पाता है वे अकेले रह जाते हैं।

(5) शिक्षालय की क्रियाओं के समायोजन – एक बालक में जितनी जल्दी क्रियात्मक योग्यताओं का विकास हो जाता है उतने ही जल्दी वह पाठ्यक्रम तथा पाठान्तर क्रियाओं के साथ समायोजन स्थापित कर लेता है। लेखन, चित्रांकन, चित्रलेखन, दौड़ना, कूदना अनेक प्रकार के खेल खेलना, भ्रमण करना आदि क्रियाओं वे बालक जल्दी करने लगते हैं जिनमें क्रियात्मक योग्यताओं का अच्छा विकास हो जाता है।

( 6 ) ‘स्व’ को समझना- क्रियात्मक योग्यताओं के द्वारा ही बालक अपने ‘स्व’ को समझ सकता है। उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए ‘स्व’ (Self) का समझना अति आवश्यक है। अन्य बालकों की तुलना में ही वह अपने आपको समझने का प्रयास करता है। बालक जिन कौशलों को कर सकता है, उनकी प्रतिक्रिया वह अन्य बालकों पर भी देखना चाहता है। क्रियात्मक योग्यताओं के आधार पर ही वह अन्य बालकों के सम्मुख अपना रूप उपस्थित कर सकेगा।

(7) व्यक्तित्व में महत्वपूर्ण योगदान – बालक की क्रियात्मक योग्यताओं और कौशलों का विकास बालक के व्यक्तित्व को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है। अच्छे क्रियात्मक विकास की अवस्था में बालक का परिवार, खेल के साथियों और विद्यालय आदि सभी क्षेत्रों में समायोजन अच्छा रहता है। अच्छे समायोजन की अवस्था में बालक के व्यक्तित्व का विकास भी अच्छा होता है। इस प्रकार हम कह सकते है कि बाल्य जीवन में क्रियात्मक योग्यताओं का अत्यधिक महत्व हैं।

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Anjali Yadav

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