दार्शनिक उपागम का क्या तात्पर्य है? शिक्षा में इस उपागम की भूमिका समझाइये।
दार्शनिक उपागम ( Philosophical Approach ) शिक्षा की समस्याओं के सुलझाने के लिए एवं शिक्षा को ठीक प्रकार से समझने के लिए हमें दर्शन की सहायता लेनी पड़ती है। दार्शनिक उपागम में शिक्षा की विषय-सामग्री को दार्शनिक दृष्टि से देखा जाता है। इस उपागम को समझने के लिए हमें दर्शन और शिक्षा की प्रकृति तथा सम्बन्ध को समझना आवश्यक है। दर्शन का जन्म जिज्ञासा संशय एवं जीवन के प्रति उदासीनता के कारण माना गया है। आंग्ल भाषा में यह शब्द दो ग्रीक शब्दों के मिश्रण से बना है तथा साधारण रूप से इसका अर्थ ज्ञान सम्बन्धी विज्ञान के रूप में लगाया जाता है। संस्कृत दर्शन शब्द ‘दृश्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है ‘देखना’ । “दृश्यते अनेन इति दर्शनम्”, अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाए या तत्व का ज्ञान हो वह दर्शन है। डॉ. राधाकृष्णन् की दी हुई परिभाषा उक्त अर्थों से अधिक व्यापक प्रतीत होती है। उनका कथन है कि दर्शन यथार्थता के स्वरूप का तार्किक ज्ञान है। प्रो० मिस शर्क ने कहा है कि दर्शन विश्व की प्राचीनतम विद्या है। इसका वास्तविक अर्थ विज्ञान अथवा व्यवस्थित प्रयत्न जो शताब्दियों के इकट्ठे सबूतों पर आधारित है। दर्शन बड़ा ही आत्मानुभवी है और विशेषकर तत्वों की खोज में तो शीघ्र ही अन्तर्मुखी हो जाती है।
शिक्षा ( Education) शब्द आंग्ल भाषा लैटिन से आया है। आंग्ल भाषा में इसका जो पर्यायवाची शब्द है उसका अर्थ है ‘पालन-पोषण’ वैसे तो सर जॉन एडम्स इसका प्रचलित मूल बतलाया है पर मूल उनके दृष्टिकोण से भ्रामक है। क्योंकि लैटिन भाषा के कोश में दिये हुए प्रचलित मूल के अनुसार शिक्षा का अर्थ होगा, ‘भीतर बाहर लाना’ । परन्तु प्रश्न वह है जो भीतर है ही नहीं उसे बाहर लाया कैसे जा सकता है। इस प्रकार के अर्थ लगाने का मूल कारण एक भ्रामक विचारधारा है जो आत्मा में प्रत्येक ज्ञान निहित मानती है। वैसे यह बात स्पष्ट है कि यदि छात्र को किसी तिथि का ज्ञान हैं ही नहीं तो शिक्षक कितने भी प्रयत्न क्यों न करे छात्र की आत्मा से तिथि निकलवायी ही नहीं जा सकती जब तक कि उसे उसका बोध न कराया जाए। किन्तु आत्मा की शक्ति का अर्थ यदि निहित गुण हो तो कदाचित उसे शिक्षा द्वारा विकसित माना जा सकता है।
शिक्षा जीवन की पर्यायवाची है। प्रतिक्षण हम शिक्षित होते रहते हैं। संकीर्ण अर्थों में हैं शिक्षा को कक्षा अध्यापन या निर्देशन माना जाता है।
जॉन स्टुअर्ट मिल हमारी पहली बात से सहमत हैं। उनके मत से शिक्षा मनुष्य को बनाती भी और बिगाड़ती भी है। इसलिए जिस प्रकार शिक्षा और निर्देशन में अन्तर है। विशालता और संकीर्णता का, उसी प्रकार उनके प्रतिरूप शिक्षार्थी तथा छात्र में अन्तर है है। हम विलियम पैंटी द्वारा सन् 1648 में प्रयुक्त शब्द ‘शिक्षार्थी’ ही मान्यता देना चाहेंगे। इस प्रचलन के पीछे सर जॉन एडम्स की स्वीकृति हमारी सहायक सिद्ध होगी। हिन्दी में अर्थ की दृष्टि से शिक्षार्थी और छात्र में कोई अन्तर नहीं है। हिन्दी का ‘छात्र’ शब्द भी ‘एजूकण्ड’ की भाँति व्यापक है।
छात्र को निष्क्रिय मानना भी भूल है किन्तु साधारणतया हम लोग छात्र को निष्क्रिय तथा अध्यापक को सक्रिय मानते हैं। शिक्षा के कार्य में छात्र तथा अध्यापक दोनों ही पूर्ण रूप से सहयोगी होते हैं तथा आदान-प्रदान में भाग लेते हैं। यह सत्य है कि छात्र को कभी कभी शिक्षा के उद्देश्य का ज्ञान नहीं होता; पर यह बात छात्र की निष्क्रियता सिद्ध नहीं करती।
एडलर महोदय का कथन है कि कला दो प्रकार की होती है-
(1) प्रथम, ऐसी कला, जिसमें कला का माध्यम मनुष्य हो,
(2) द्वितीय, उस प्रकार की कला जिसमें – मनुष्य माध्यम न होकर केवल सहायता मात्र हो । प्रथम कोटि की कला में कविता, मूर्तिकला आदि आती हैं तथा द्वितीय में आती हैं खेती, शिक्षा आदि।
शिक्षा दो प्रकार की होती है-
(1) जो स्वयं द्वारा दी जाए।
(2) जो किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दी जाए। शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में नैतिक तथा बौद्धिक व्यवहारों की स्थापना करना हैं।
शिक्षा का परिणाम उक्त तर्क के प्रकाश में हम शिक्षित मनुष्य में देख सकते हैं। यह मानते हुए कि हर प्रकार की शिक्षा स्व-प्रेरित तथा अपने ही प्रयत्नों का परिणाम है, हम यह स्वीकार करते हैं कि किसी न किसी रूप में अन्य व्यक्ति की सहायता इस कार्य में अपेक्षित अवश्य है। छात्र तथा शिक्षक में अन्तर परिपक्वता का है न कि बुद्धि का कुशल चिकित्सक की भाँति शिक्षक अपने को कुछ समय उपरान्त अनावश्यक-सा कर देता है। छात्र अन्त में शिक्षा का भार स्वयं सँभालता है। यही शिक्षक का उद्देश्य होना चाहिए। ध्यान रहे, शिक्षक बालकों की भिन्न-भिन्न रुचियों, गुणों, लगन आदि का अन्तर ध्यान में रखता है। संक्षेप में, उक्त विवरण का परिणाम इस प्रकार है-
- शिक्षा में छात्र तथा शिक्षक दोनों ही सक्रिय होते हैं।
- शिक्षा एक सक्रिय, सजीव, पूर्व निर्धारित प्रणाली तथा उद्देश्य पर ही दी जाती है। परिवर्तन की क्षमता सदैव अपेक्षित रहती है।
- शिक्षक ज्ञान तथा व्यक्तित्व दोनों द्वारा ही प्रभाव डालता है तथा शिक्षा देता है।
शिक्षा के सिद्धान्त तथा उद्देश्य लचीले होते हुए भी सार्वभौमिक होते हैं। हम दर्शन में सिद्धान्तों की बात करते हैं। उस समय हम कक्षा अध्यापन में अन्य किसी पक्ष की बात नहीं करते। अन्य कलाओं की भाँति मौलिकता तथा विचारों की महत्ता का ध्यान हमें शिक्षा के क्षेत्र में रखना होगा। विज्ञान में सिद्धान्तों के अनुसार कार्य करने पर स्वतन्त्रता पर बन्धन से लग जाते हैं। विज्ञान के सिद्धान्त न केवल उत्पत्ति में वरन् सार्वभौमिकता में भी भिन्न होते हैं। विज्ञान का एक सिद्धान्त सहारा तथा टुण्ड्रा दोनों में एक ही सा रहेगा। किन्तु वातावरण तथा भौगोलिक कारणों से शिक्षा के उद्देश्यों में परिवर्तन अवश्य आ जायेगा। फिर शिक्षा तथा विज्ञान के क्षेत्र की मौलिकता भी भिन्न होती है।
सिद्धान्तों के बिना व्यवहार संगत नहीं रह सकता। निश्चित व्यवहार के लिए प्रेरणा-रूप से सिद्धान्त आवश्यक हैं। किन्तु सिद्धान्त व्यावहारिकता से भिन्न होते हैं। डीवी के लिए सिद्धान्त व्यवहार का परिणाम है। उदाहरणस्वरूप, बालक प्रथम चलना सीखता है, तत्पश्चात् कहीं वह चलने का सिद्धान्त निर्धारित कर सकने के योग्य होता है। इस रूप डीवी की बात सच है। परन्तु अधिकतर उद्देश्य अथवा सिद्धान्त का निर्धारण पहले होता है, कार्य बाद में, जैसे हमें अमुक स्थान पर पहुँचने की बात का ध्यान पहले रखना पड़ता है, तभी हम अपनी साइकिल से वहाँ पहुँच सकते हैं। इस प्रकार निष्कर्ष यही निकल सकता है कि प्राथमिकता के प्रश्न का हल दृष्टिकोण में निहित है। किन्तु शिक्षा में कुशलता के लिए सिद्धान्त अपेक्षित है और चूँकि दर्शन सिद्धान्तों को प्राण देता है इसलिए शिक्षा के सिद्धान्तों के लिए दर्शन की सहायता तथा आवश्यकता स्पष्ट हो जाती है।
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