पूर्व बाल्यावस्था के कुछ प्रमुख सामाजिक व्यवहारों का वर्णन कीजिए।
पूर्व बाल्यावस्था के कुछ प्रमुख सामाजिक व्यवहार
1. खेल (Play) — पूर्व बाल्यावस्था में बालकों के भीतर खेल की भावना का विकास तीव्रता से होता है। खेलों के द्वारा ही बालक का शारीरिक, मानसिक सामाजिक व नैतिक विकास होता है। पूर्व बाल्यावस्था में बालक खेलों को इसलिए पसन्द करता है कि खेल उसे आनन्द प्रदान करते है और उसका मनोरंजन करते है।
2. 5 वर्ष की आयु में उसके खेल के साथी उसके अपने भाई-बहिन तथा पास-पड़ोस के बच्चे होते हैं अतः इस समय सामूहिक खेलों द्वारा बालक में सामूहिकता की भावना का विकास होता है। पाँच-छः वर्ष की आयु तक बालक 5-6 बालकों के समूह में खेलना प्रारम्भ कर देते हैं। खेलों के द्वारा उनकी क्रियाओं में विभिन्न सामाजिक व्यवहारों जैसे—सहयोग, सहानुभूति, मित्रता, प्रतियोगिता नेतृत्व, द्वन्द्व आदि का प्रदर्शन करते हैं।
2. अनुकरण (Imitation )– सम्पूर्ण बाल्यावस्था में बालकों में अनुकरण की प्रवृत्ति बहुत तीव्र होती है। 3-4 वर्ष का बालक केवल परिवार के सदस्यों का ही अनुकरण नहीं करता अपितु अपने समाज और समूह के साथियों का अनुकरण करके बहुत कुछ सीखता है। इस अवस्था में बालक के लिए अनुकरण द्वारा सीखना अत्यधिक आसान होता है क्योंकि बौद्धिक विकास अधिक न होने के कारण वह अपने मौलिक चिन्तन का प्रयोग नहीं कर पाता है। अतः अनुकरण द्वारा वह अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों को अपने जीवन में अपनाता है। अतः अनुकरण द्वारा वह अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों को अपने जीवन में अपनाता है। ये अनुकरणीय व्यवहार आगे चलकर भावी जीवन का आधार बनते हैं।
3. निषेधात्मकता (Negativism ) – आज्ञा के विपरीत कार्य करना ‘निषेधात्मकता’ कहलाता है। बालकों में इस प्रवृत्ति का विकास बचपनावस्था से ही हो जाता है किन्तु पूर्व बाल्यावस्था में यह प्रवृत्ति अपनी चरम पर पायी जाती है। बालकों में निषेधात्मक व्यवहार प्रायः उस समय होता है जब माता-पिता या अन्य किसी व्यक्ति द्वारा उनकी क्रियाओं में हस्तक्षेप किया जाता है या उसकी इच्छापूर्ति नहीं की जाती है। अतः अपनी बात की स्वीकारोक्ति के लिए वह निषेधात्मक व्यवहार जैसे—जमीन पर लोटना, वस्तुओं का तोड़ना, छोटे बच्चों को मारना चिल्लाना तथा बड़ों की अवज्ञा प्रदर्शित करते हैं।
4. झगड़ा तथा मारपीट (Quarrel and Aggression ) – पूर्व बाल्यावस्था में बालक अपने सम्मान के प्रति जागरूक हो जाता है। इसीलिए सामूहिक खेतों के समय झगड़े तथा मारपीट के लक्षण प्रकट होते हैं। सामूहिक खेलों में प्रत्येक बालक दूसरे बालक पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है इसलिए वह दूसरे के सुझावों और निर्देशों का पालन नहीं करता है। झगड़ा तथा मारपीट के समय बालक एक-दूसरे से खिलौने छीनने, नोंचने, काटने गंदे शब्द बोलने, धक्का देने आदि व्यवहारों का प्रदर्शन करते हैं।
5. सहयोग और सहानुभूति (Co-operation and Sympathy ) जहाँ एक ओर इस अवस्था में द्वन्द्व, स्पर्धा और आक्रामकता की भावनायें दिखायी देती है वही दूसरी ओर सामूहिक खेल उनमें सहयोग और सहानुभूति की भावना का विकास करते है। इस अवस्था में बालक केवल माता-पिता तथा परिवार के सदस्यों के प्रति ही सहयोग और सहानुभूति का प्रदर्शन नहीं करता है बल्कि समूह के साथियों के प्रति भी यह भावना शारीरिक और मानसिक कष्टों के • समय में स्पष्ट दिखायी पड़ती है।
6. चिढ़ाना व तंग करना (Teasing ) — चिढ़ाना तथा तंग करना एक असामाजिक व्यवहार है। यह क्रिया सन्तुलित बालकों की तुलना में असन्तुलित बालकों में अधिक पायी जाती है। इसमें मौखिक आक्रमण द्वारा बालक दूसरे बालकों को चिढ़ाता है। 5-6 वर्ष के बालक अपने साथियों को ही नहीं बड़ों को भी चिढ़ाते हैं और ऐसा करके वे प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
चूँकि यह एक असामाजिक व्यवहार है अतः माता-पिता को चाहिए कि वे प्रारम्भ से ही बालकों के इस गुण को हतोत्साहित करें।
7. आक्रामकता (Aggression ) – पूर्व बाल्यावस्था में बालक सहयोग और सहानुभूति के साथ-साथ आक्रामक व्यवहारों का प्रदर्शन भी करता है। इस व्यवहार का प्रारम्भ दो वर्ष की अवस्था में होता है और आयु वृद्धि के साथ बढ़कर पाँच वर्ष की अवस्था में अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाता है। बालकों के आक्रामक व्यवहार के कई कारण होते है; जैसे-ईर्ष्या, माता-पिता का असमान व्यवहार, बालक में किसी कारण से संवेगात्मक तनाव, प्रभुत्व की भावना, दूसरों का ध्यान आकर्षित करने की इच्छा, क्रिया में व्यवधान आदि।
आक्रामकता का प्रदर्शन बालक विभिन्न तरीकों से करता है, जैसे— मुट्ठी भींचना मारना वस्तुयें तोड़ना-फोड़ना, रोना, चीखना-चिल्लाना, मारपीट करना। आयु वृद्धि के साथ आक्रामक व्यवहारों के प्रदर्शन का समय भी बढ़ता जाता है।
सियर्स के अनुसार, ‘लड़कों में शारीरिक आक्रामकता पायी जाती है जबकि लड़कियाँ मानसिक प्रहार अधिक करती हैं।’ लड़कियों में आक्रामक व्यवहार अधिक स्थायी नहीं होता है। लड़कों में यह अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होता है।
8. ईर्ष्या (Rivalry ) – बालकों में ईर्ष्या की भावना का विकास तीन से छः वर्ष की अवस्था में होता है। ईर्ष्या का प्रमुख कारण प्रतियोगिता व प्रतिस्पर्धा होती है। जब बालक विभिन्न क्षेत्रों में स्वयं को दूसरे से निम्न या हीन पाता है तो उनमें लड़ाई-झगड़े के साथ ईर्ष्या की भावना का विकास होता है। ईर्ष्या का कारण, खिलौने, वस्त्र, पढ़ाई-लिखाई, माता-पिता का स्नेह आदि कुछ भी हो सकता है। ईर्ष्या की उपस्थिति में बालक लड़ाई-झगड़ा करते हैं।
9. प्रतियोगिता (Competition ) – प्रतियोगिता की भावना का विकास बालकों में तीन वर्ष की आयु से देखा जा सकता है। 4 वर्ष बालक उत्तमता और श्रेष्ठता के भाव को अच्छी तरह समझता है इसलिए दूसरों से अच्छा कार्य करने और श्रेष्ठ बनने का प्रयत्न करता है। प्रतियोगिता की भावना का विकास ईर्ष्या की भावना से भी होता है। प्रतियोगिता की भावना के कारण बालक अधिक समय तक कार्य करते है।
प्रतियोगिता पालक के विकास में सहायक होती है। इस भावना से उसे अधिक सीखने, अधिक कार्य करने और आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है।
10. मित्रता (Friendship ) – बालकों में मित्रता की भावना का विकास 2-3 वर्ष की अवस्था से प्रारम्भ हो जाता है। इस समय कुछ बालक एक साथ बैठकर खिलौनों द्वारा खेल सकते हैं किन्तु इस समय झगड़ा अधिक होता है। लगभग 5 वर्ष की अवस्था में मित्रता का भाव अधिक स्थायी हो जाता है। बालक अपने मित्रों का चुनाव, पास-पड़ोस, कक्षा, समान वृद्धि तथा पारिवारिक परिचय के आधार पर करते है।
मित्रता एक स्वस्थ सामाजिक व्यवहार है यह बालकों के सामाजिक समायोजन में सहायक होता है।
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