प्रगतिवाद की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
प्रगतिवादी काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
हिन्दी का प्रगतिवादी साहित्य पूँजीवादी व्यवस्था से उत्पन्न सामाजिक एवं व्यक्तिगत शोषण के विरोध का साहित्य है। आधुनिक युग के प्रारम्भ होते-होते भारत में पूँजीवादी व्यवस्था ने अपनी जड़ जमानी शुरू कर दी थी। अंग्रेज शासकों द्वारा स्थापित बड़े-बड़े कारखानों ने गाँव की दस्तकारी को समाप्त कर दिया। ये दस्तकार कारखानों में श्रमिक बनने पर मजबूर हुए। वहाँ इनका भरपूर शोषण होने लगा। श्रमिक के श्रम से पूंजीपतियों की तिजोरी भरने लगी, पर श्रमिक ज्यों के त्यो भूखे नंगे रहे। जमींदारी व्यवस्था के अन्तर्गत श्रमिकों का सा ही शोषण किसानों का भी हो रहा था।
20वीं शती के प्रारम्भ से ही बुद्धिवादी चिन्तकों ने किसानों और मजदूरों का हितचिन्तन प्रारम्भ कर दिया था। इसके पहले ही विश्व के रंगमंच पर एक महती विभूति का प्रादुर्भाव हो चुका था जो मजदूरों और किसानों के शोषण की सबसे बड़ी शत्रु थी। वह विभूति अपने व्यक्तिगत जीवन में कार्ल मार्क्स (1818 1883) के नाम से प्रसिद्ध हुई। कार्ल मार्क्स ने अपने साम्यवादी सिद्धान्तों की व्याख्या द्वारा सिद्ध कर दिया कि अखिल विश्व में पूँजीवादी व्यवस्था समाप्तप्राय है।
ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर मार्क्स ने सिद्ध किया कि आगे आनेवाला समय सर्वहारा वर्ग (मजदूर और किसान वर्ग) के उत्थान का समय है। उसने ऐसे समाज की कल्पना की, जिसमें सभी व्यक्तियों के अधिकार समान होंगे, न कोई शोषक होगा, न कोई शोषित सारे राष्ट्र की पूँजी प्रत्येक व्यक्ति की पूँजी होगी। मार्क्स ने अपने तर्कों द्वारा यह सिद्ध कर दिखाया कि धीरे-धीरे ऐसी परिस्थितियाँ उपस्थित हो रही हैं जब बड़े-बड़े कारखानों पर श्रमिकों और मजदूरों का अधिकार होगा। इन कारखानों के नाम से पूँजीपतियों की तिजोरी नहीं भरेगी। लाभ का समान रूप से बँटवारा होगा।
मार्क्स के सिद्धान्त की प्रेरणा से रूस में क्रान्ति हुई और वह जारशाही से मुक्त हुआ मार्क्स के साम्यवाद की इस सफलता ने संसार की आँखें खोल दी। उसके सिद्धान्तों का प्रचार विश्व के कोने-कोने में तेजी से हुआ। विश्वचेतना के रूप में यह विचारधारा भारत में भी आयी और प्रबुद्ध चिन्तकों का एक वर्ग इस विचारधारा को प्रश्रय देने के लिए तैयार हो गया। राजनीतिक क्षेत्र में साम्यवाद व समाजवाद कहलानेवाली इसी विचारधारा को साहित्यिक क्षेत्र में प्रगतिवाद संज्ञा से अभिहित किया गया।
मार्क्स ने साम्यवादी सिद्धान्तों की स्थापना में जितनी अनुकूल परिस्थितियों का उल्लेख किया था उसमें सभी भारत में भले ही न रही हों, फिर भी यह पूँजीवादी शोषण धीरे-धीरे बढ़ रहा था। इसके अतिरिक्त विश्व युद्ध के कारण व्याप्त महँगाई, आर्थिक मन्दी, बेरोजगारी, उस पर पूँजीवादी व्यवस्था का बढ़ता शोषण, पाशविक आचरण और दारिद्र का बोलबाला, इन सभी स्थितियों ने मिलकर देश के प्रबुद्ध चिन्तकों को इनके विरोध में आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया। प्रगतिवादी साहित्य के उद्भव का यह समय स्वतंत्रता के लिए की जानेवाली भयानक क्रान्तियों का भी समय था गांधी का मानवतावाद और सर्वधर्म समन्वयवाद भी भारत में स्थान पा रहा था। इस चिन्तन को प्रगतिशील चिन्तन की संज्ञा दी गयी है। भारत के प्रगतिशील चिन्तन ने साम्यवादी चिन्तन के लिए उपयुक्त भूमि तैयार की।
प्रगतिशील व प्रगतिवादी चिन्तन- हिन्दी साहित्य में महात्मा गाँधी और उसके पूर्व के युग चेतना मण्डित महापुरुषों द्वारा प्रचारित प्रगतिशील दृष्टिकोण से मण्डित साहित्य प्रगतिशील साहित्य की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। समाज की यथार्थपरक समस्याओं पर आधारित यह चिन्तन भारतेन्दु-युग से हो प्रारम्भ हो गया था। द्विवेदी युग के कवियों में भी यह चिन्तन मिलता है। छायावाद के दो कवियों- निराला और पन्त में यह और भी तीखा होकर उभरा है। संक्षेप में हिन्दी के मैथिलीशण गुप्त, नवीन, निराला, पन्त, दिनकर आदि कवि प्रगतिशील चिन्तन के सजग प्रहरी रहे हैं। इनका पूरा चिन्तन राष्ट्रीय समस्याओं की गोद में जन्म लेता है और राष्ट्रीय सन्दर्भों में ही इनका समाधान भी प्रस्तुत करने की चेष्टा इन चिन्तकों ने की है। मार्क्स के साम्यवाद की तमाम बातें इनमें मिल जायेंगी, पर यह नहीं कहा जा सकता कि ये कवि मार्क्स से प्रभावित थे। निराला उदाहरणस्वरूप लिये जा सकते हैं।
प्रगतिवादी साहित्य का तात्पर्य विशुद्ध साम्यवादी या मार्क्सवादी विचारधारा से युक्त साहित्य से है। मार्क्स के भौतिक द्वन्द्वात्मक विकासवाद और मूल्यवृद्धि के सिद्धान्त तथा अर्थ-व्यवस्था के आधार पर विश्व सभ्यता की व्यवस्था तथा सामाजिक यथार्थवाद से प्रभावित हिन्दी का प्रगतिवादी साहित्य पूर्ण रूप से विदेशी स्वर में खोया हुआ है। क्रान्ति, विप्लव, दुर्भिक्ष, झण्डा, हँसिया हथौड़ा, हड़ताल, विध्वंसात्मक तोड़-फोड़, रूस-चीन और माओ का गुणगान ये सभी इस काव्यधारा के विषय हैं। धर्म को अफीम का नशा और वर्ग-भेद को कराल विष मानने वाली प्रगतिवादी विचारधारा आज भी एक साम्प्रदायिक नारेबाजी मात्र बनी हुई है। इसने मानव-समष्टि के हित का चिन्तन करते करते उसके लाल (खूनी) क्रान्ति जैसी भयानक मजदूरों के हित का चिन्तन कम, पर भयानक नरहिंसा का प्रसार अधिक किया है। इसके ठीक विपरीत हिन्दी के प्रगतिशील कवि मानव समष्टि का वास्तविक हितचिन्तक और उसे एक वरेण्य मार्ग का दर्शन करानेवाला है। यही कारण है कि प्रारम्भ में जोश में आकर मार्क्स का जयगान करने वाले कवि धीरे-धीरे प्रगतिशील मान्यताओं के उपासक बनते गये हैं। भारत जैसे विविध धर्म और संस्कृति प्रधान देश में माओ का गुरु-मन्त्र नहीं चल सका।
हिन्दी के प्रगतिवादी कवियों में केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, डॉ० रामविलास शर्मा, रांगेय राघव, चन्द्रकुँवर, भवानी प्रसाद मिश्र, डॉ0 शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, त्रिलोचन, भैरव प्रसाद गुप्त, अमृत राय, राजेन्द्र यादव, महेन्द्र भटनागर आदि मुख्यतया उल्लेखनीय हैं। इस विचारधारा की कविताओं में कलात्मकता का सर्वथा अभाव है।
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